कबतक शुतुरमुर्ग बनेंगे निहलानी साहब, सच को सामने आने से रोक नहीं सकेंगे आप
मलयालम फिल्म 'का बॉडीस्केप्स' को निहलानी साहब ने सेंसर बोर्ड सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया. कारण- उनको लगा कि इस फिल्म में 'समलैंगिक और समलैंगिक संबंधों के विषय की महिमामंडन' किया गया है!
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फिल्म प्रमाणन संस्था सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) पहलाज निहलानी की अगुवाई में नित नए कीर्तिमान गढ़े जा रहा है. हम एक ऐसी सदी में जी रहे हैं जहां हर चीज, हर बात वर्जित है, हर बात अमान्य है. निहलानी साहब इस बात को साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं. चाहे बात महिलाओं पर आधारित फिल्मों या फिर LGBTQ समुदाय पर केंद्रित फिल्म की हो, वो अपने सेंसरशिप की ताकत को दिखाने से कतई नहीं चूकते. ना ही फिल्मों को काटने में, ना ही फिल्मों की रीलिज रोकने में.
सबसे ताजा मामला एक मलयालम फिल्म 'का बॉडीस्केप्स' से जुड़ा है. निहलानी साहब ने इस फिल्म को सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया. कारण- उनको लगा कि इस फिल्म में "समलैंगिक और समलैंगिक संबंधों के विषय की महिमामंडन" किया गया है! फिल्म कालीकट में रहने वाले तीन युवाओं के जीवन पर आधारित है. हैरिस, एक समलैंगिक चित्रकार है; विष्णु, एक ग्रामीण कबड्डी खिलाड़ी; और उन दोनों की दोस्त सिया. सिया एक मानवाधिकार कार्यकर्ता है और उसने स्त्रीत्व के प्रमुख मानदंडों को मानने से इंकार कर दिया है.
फिल्म के निर्देशक जयन चेरियन ने सेंसर बोर्ड से प्राप्त चिट्ठी को अपने फेसबुक पर पोस्ट किया. चिट्ठी में लिखा गया है- "दूसरी पुनरीक्षण समिति का मानना है कि फिल्म समलैंगिक और समलैंगिक संबंधों के विषय का महिमामंडन कर रही है. फिल्म नग्नता से भरपूर है और पूरी फिल्म में पुरुष शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को चित्रों में क्लोज़ शॉट्स के ज़रिए दिखाया गया है.
CBFC की चिट्ठी जो जयन को मिलीखत में ये भी लिखा है कि- "फिल्म में महिलाओं के प्रति अभद्र भाषा और अपमानजनक टिप्पणी का प्रयोग किया गया है. फिल्म के पोस्टर में भी समलैंगिकता और महिलाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणी का प्रयोग किया गया है. फिल्म में बहुत ज्यादा गालियों और आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग किया गया है. यहां तक कि एक मुस्लिम महिला चरित्र को मास्टरबेट करते हुए दिखाया गया है."
यह दूसरी बार है जब इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने प्रमाण पत्र देने से इनकार किया है. इसके फिल्म के निर्देशक ने केरल उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था. केरल उच्च न्यायालय ने सेंसर बोर्ड को प्रमाण पत्र देने का आदेश भी दिया. लेकिन साथ ही सेंसर बोर्ड को फिल्म में आपत्तिजनक दृश्यों को काटने की अनुमति भी दी.
हालांकि, बोर्ड ने अदालत के आदेश के बावजूद इस मामले पर अपने निर्णय को बदलने से इंकार कर दिया. ऐसा लगता है कि पहलाज निहलानी एंड कंपनी जिस भी विचार या फिल्म कंटेट से सहमत नहीं होते उन्हें किसी मॉरल पुलिस या चौकीदार की तरह बाहर का रास्ता दिखा देते हैं. खासकर के अगर स्टोरी में जेंडर, सेक्शुएलिटी, धर्म, और सांप्रदायिकता का एक भी एंगल है तब तो भूल ही जाइए.
यह कोई पहली बार नहीं है जब बोर्ड ने इस तरह का कदम उठाया हो. हाल ही में बोर्ड ने 'लिपस्टिक अंडर माई बुरखा' नाम की फिल्म को प्रमाण पत्र देने से मना कर दिया. इसके पीछे कारण दिया कि ये फिल्म बहुत ही ज्यादा महिलाओं पर केंद्रित है.
महिला केन्द्रित विषय के कारण चली कैंची
इससे पहले, 'इन दिनों मुजफ्फरनगर' को भी प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया था. कहा कि- यह फिल्म एक समूह के प्रति बहुत ही ज्यादा आलोचनात्मक है.मुजफ्फर नगर दंगों पर बनी थी ये फिल्मये अपने आप में काफी अजीब है कि बोर्ड को चिकनी चमेली या हल्कट जवानी जैसे गाने या फिर 'ग्रैंड मस्ती' जैसी फिल्मों को पास करते समय ना तो अश्लीलता दिखती है ना ही कोई दिक्कत महसूस होती है. डियर सेंसर बोर्ड आखिर क्यों तुम इतने पक्षपातपूर्ण हो रहे हो?
आखिर अपने समाज की सच्चाई को स्क्रीन पर लाने में आपको इतना डर क्यों लग रहा है? ऐसा लगता है जैसे शुतुरमुर्ग सोचता है कि अगर वो शिकारी को नहीं देख रहा है तो शिकारी भी उसे नहीं देख पार रहा है! वैसी ही आप सोचते हैं कि अगर LGBTQ समुदाय के प्लॉट पर बनी फिल्मों को रिलीज नहीं होने देंगे तो ये समुदाय ही समाज से खत्म हो जाएगा. या फिर अगर आप महिलाओं पर केंद्रित फिल्मों और महिलाओं का अपनी कामुकता के अपनाने वाली फिल्मों को पास नहीं करेंगे तो महिलाएं पल्लू के पीछे ही छिपी रहेंगी?
समलैंगिकता पर बनी फिल्म 'का बॉडीस्केप्स'हमें तो निश्चित रूप से ये लगता है कि आप बहुत ही ज्यादा डर गए हैं. आप डर गए हैं कि अगर अपनी विचारधारा के अलग फिल्मों को सिनेमाघरों तक जाने दिया तो फिर वो विचार आपको ही आकर घेर लेंगे. और आपको इस वास्तविकता का सामना करना पड़ सकता है. लेकिन जो बात आप नहीं समझ पा रहे हैं वो ये कि 'लिपस्टिक अंडर माई बुरखा' और 'का बॉडीस्केप्स' जैसी फिल्में आज के समाज की वास्तविकता को दिखा रही हैं. हमारे समाज की ऐसी वास्तविकता को जो किसी आड़ में छिपी हुई है, लेकिन ये सारा कुछ इस मिनट में भी हमारे अपने ही पड़ोस में ही हो रहा है.
मुख्य प्रश्न ये है कि- आप होते कौन हैं ये तय करने वाले कि लोगों को क्या देखना चाहिए और क्या नहीं? आपको समाज का ठेकेदार किसने बनाया? सेंसर बोर्ड का काम सिर्फ फिल्मों को सर्टिफिकेट देना है, यही इसका नाम सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन भी कहता है. आप अपने दकियानूसी विचारों को दूसरों पर मत थोपो.
तो मिस्टर पहलाज निहलानी आप जाकर अपना काम कीजिए और हमारी फिल्मों को अकेला छोड़ दीजिए.
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