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Updated: 22 दिसम्बर, 2022 06:29 PM
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पठान के बेशरम रंग गाने को लेकर समूचे देश में बवाल मचा हुआ है. कुछ अल्पसंख्यक सांसदों ने संसद में भी पठान के लिए सवाल उठाया. मानों वे सरकार से गारंटी चाहते हैं कि पब्लिक के मुंह में कपड़ा ठूंसकर बायकॉट की मुहिम को शांत कराएं. शाहरुख का उत्पीडन किया जा रहा है. तुष्टिकरण के चक्कर में वोट भुनाने की वजह से कुछ राजनीतिक दलों के सांसदों ने भले शाहरुख खान और पठान के पक्ष में अपने तंत्र और अपनी सरकारों का इस्तेमाल करें, मगर उन्हीं के फॉलोअर कला के नाम पर पठान फिल्म की 'बेशरम रंग' की गंदगी को बर्दाश्त करने के पक्ष में नहीं दिख रहे. बायकॉट बॉलीवुड की मुहिम में उन्हें शामिल देखा जा सकता है. बॉलीवुड के विरोध में यह जो नया ट्रेंड बना है वह ऐतिहासिक है. खुली आंखों से देखा जा सकता है कि लगभग हर विचारधारा के लोग कला के नाम पर जानबूझकर फैलाई जा रही शाहरुख और यशराज फिल्म्स की गंदगी को घटिया करार देते हुए मिल जाएंगे. लोग इस बात पर भी हैरानी जता रहे हैं कि आखिर सेंसर बोर्ड का काम क्या है, वह कर क्या रहा?

सेंसर मलिक (मलयालम) जैसी फिल्म को पास कर देता है जो खुलेआम ना सिर्फ एक अब्राहमिक धर्म का महिमामंडन करता है बल्कि एक तरह से एक समुदाय को ऐतिहासिक रूप से पीड़ित के रूप में पेश करता है. उन्हें हथियारबंद होने के लिए जाने अनजाने प्रेरित भी करता है. आपराधिक गतिविधियों को भी जायज ठहराता नजर आता है और उसके लिए भी प्रेरित करता है. फहद फासिल की मलिक ओटीटी पर रिलीज की गई थी. आइचौक ने केरल के बैकग्राउंड में बनी फिल्म को लेकर कई विश्लेषण किए थे. नीचे दो के लिंक हैं. आप चाहें तो क्लिक कर पढ़ सकते हैं.

besharam rangदोनों में से कौन सी फोटो को अश्लील माना जाए.

अब सवाल है कि देश में सिनेमा कॉन्टेंट को मॉनिटर करने की जिम्मेदारी तो सेंसर बोर्ड की है. अगर उसकी आंख होने के बावजूद इस तरह की चीजें निकल रही हैं तो उसके होने ना होने का कोई औचित्य नहीं है. सेंसर बोर्ड को बंद कर देना चाहिए.

चीन की शवयात्राओं में नाचने वाली स्ट्रिपर्स दीपिका के बेशरम अवतार से ज्यादा सभ्य नजर आ रही हैं

बेशरम रंग के बहाने सेंसर पर बात करने से पहले चीन की दिलचस्प शवयात्राओं और वहां के सरकार का रुख जान लेते हैं. चीन कम्युनिस्ट व्यवस्था पर चलने वाला देश है. एक प्रगतिशील देश. दुनिया के सर्वाधिक ताकतवर और संपन्न देशों में से एक. कम से कम हम मान सकते हैं कि चीन में हमारे यहां जैसे लैंगिक पूर्वाग्रह तो नहीं ही होंगे. चीन तमाम मामलों में हमसे ज्यादा एडवांस है. लेकिन कुछ साल पहले तक चीन के तमाम हिस्सों में शवयात्रा के दौरान एक अजीबोगरीब प्रथा नजर आती थी. प्रथा यह कि वहां शवयात्राओं में स्ट्रिपर्स का डांस करवाने का रिवाज दिखता था. जिसकी जैसी हैसियत, उसकी शवयात्रा में उतनी ज्यादा फीमेल स्ट्रिपर्स. लेकिन चार साल पहले चीन के संस्कृति मंत्रालय ने शवयात्राओं में स्ट्रिपर्स की प्रस्तुति को अश्लील और भद्दा बताते हुए बैन कर दिया. असल में यह परंपरा ताइवान की है. कम्युनिस्ट व्यवस्था से पहले चीन और ताइवान एक ही भूगोल का हिस्सा थे. अब अलग हैं.

शवयात्राओं में स्ट्रिपर्स की प्रस्तुति लोगों की भीड़ जुटाने के मकसद से की जाती थी. यह धीरे-धीरे सामजिक प्रतिष्ठा का विषय बन गया. स्ट्रिपर्स इसलिए बुलाई जाती थीं कि जितने ज्यादा लोग आएंगे शवयात्रा को भव्य माना जाएगा. कुछ स्थानीय परंपराओं में प्रजनन पूजा के रूप में भी देखा जाता था. वैसे अपने देश में भी शवयात्राओं में जश्न का रिवाज कहीं-कहीं दिखता है. खासकर जब बड़े बूढों की स्वाभाविक मृत्यु होती है तो ढोल नगाड़ों के साथ उनकी अंतिम यात्रा निकाली जाती है. लेकिन स्ट्रिपर्स का रिवाज नहीं है. कम से कम आईचौक की नजर तो ऐसे किसी रिवाज पर नहीं पड़ी है. स्ट्रिपर्स की फोटो नीचे देख सकते हैं.

China strippers vs Besharam Rangचीन की एक शवयात्रा में स्ट्रिपर्स का पोल डांस फोटो- AFP

अब बेशरम रंग के गाने में दीपिका की तमाम छवियों को देखिए. देखा ही होगा. और इन दोनों तस्वीरों की तुलना कीजिए. किस फोटो को अश्लील और भद्दा माना जाए? स्ट्रिपर्स की तस्वीर को या फिर बिकिनी में दीपिका पादुकोण की तस्वीर को. जब स्ट्रिपर्स पर चीन की कार्रवाई को देखते हैं तो बेशरम रंग के बहाने सेंसर बोर्ड से सवाल जायज हो जाता है. आखिर सेंसर बोर्ड (CBFC) ने कैसे बेशरम रंग को बिना किसी शर्त के रिलीज करने की अनुमति प्रदान कर दी. क्या सेंसर को यह काल्पनिक डर था कि वह अगर कॉन्टेंट को रोकता तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठते. इस्लामोफोबिया के नारे लगते. वह तो बिना कुछ किए भी लगता है. हर दिन असंख्य उदाहरण हैं. औरंगजेब को अपना पूर्वज बताने वाला और उसकी कब्र पूजकर लौटा, मस्ती से घूम रहा एक कांग्रेसी सांसद भी जब मोदी सरकार पर सरेआम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन का सवाल उठा सकता है तो अन्य सवालों की फ़िक्र क्यों करना.

जब खुद शाहरुख ही एयरपोर्ट पर तलाशी की प्रक्रिया के बहाने विक्टिम कार्ड खेलते हैं तो क्या ही कहना. शाहरुख को लगता होगा कि वे किसी देश के प्रेसिडेंट हैं, उनके लोगों को भी लगता होगा कि वे सर्वशक्तिमान हैं. बावजूद वे एक नट हैं जो कुछ पैसों के बदले नाच गाना करता है और नाना प्रकार के करतब दिखाता है. शाहरुख इससे ज्यादा कुछ नहीं हैं और देश में उनसे बेहतर एक्टर लाखों की संख्या में मौजूद हैं. रील्स उठाकर देख लीजिए. अंदाजा लग जाएगा. मुंबई के कुछ 100 करोड़ी सितारों को छोड़ दिया जाए तो क्या 'पठान' देश के 99 प्रतिशत लोगों के परिधान व्यवहार का प्रतिनिधित्व करता है. अगर नहीं करता है तो सेंसर को सवाल उठाना था. चाहे जो प्रतिक्रिया आती.

100 करोड़ी एक्टर्स को स्टारडम बचाने के लिए अब हीरोइनों की देह की वैशाखी चाहिए

बेशरम रंग आने के बाद पब्लिक प्लेटफॉर्म्स पर सेंसर की भूमिका पर सवाल आ रहे हैं. मोदी सरकार के तमाम समर्थक और विरोधी पूछ रहे कि आखिर सेंसर की आंखों पर कौन सा चश्मा है जो उसे कला और अश्लीलता में फर्क नजर नहीं आया. अगर कला के मायने बेशरम रंग ही हैं तो फिर सॉफ्ट पोर्न कॉन्टेंट का बिजनेस करने वाले शिल्पा शेट्टी के पति राज कुंद्रा पर कार्रवाई क्यों की गई और क्यों सुप्रीम कोर्ट ने एकता कपूर के एक वेबशो पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी भी क्यों की? मजेदार यह है कि वेबशो पर शिकायत भी एक पूर्व सैनिक ने की थी जिसपर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आई. सवाल है कि डिजिटल युग में हमारे पास चीजों की निगरानी के लिए कोई व्यवस्था है भी कि नहीं. फ़िल्में तो सेंसर से होकर ही गुजरती हैं. बावजूद अगर बेशरम रंग निकल रहा है तो फिर डिजिटल स्पेस में निगरानी का आलम क्या होगा, और करोड़ों करोड़ लोगों को कुछ लोग महज पैसे कमाने के लिए सॉफ्ट पोर्न के झांसे में किस कदर धकेल रहे हैं, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है.

देशभर में राज कुंद्राओं, शाहरुख खानों की कमी नहीं है जो सॉफ्ट पोर्न के ट्रिक्स से दौलत शोहरत कमाने के उपक्रम में लगे नजर आते हैं और सोशल मीडिया पर यह दिखता भी है. तमाम 100 करोड़ी अभिनेताओं को अपना स्टारडम बचाए रखने के लिए हीरोइन की ख़ूबसूरत देह के वैशाखी की जरूरत पड़ रही है. शायद 100 करोड़ी अभिनेताओं को एक्टिंग आती नहीं है. उन्हें सबकुछ आसानी से मिल गया. हीरो कनेक्शन/ फैमिली बैकग्राउंड से बन जाते हैं. ट्रिक्स के सहारे कामयाबी हथिया लेते नहीं. और जब सारी चीजें हैं ही तो पांच छह सफलाताओं के बाद एकाध कामयाबी तो मिलनी ही है. रोना तो शत्रुघ्न सिन्हाओं, अजय देवगनों और नवाजुद्दीनों को पड़ता है. कामयाबी और एक पर एक जबरदस्त भूमिकाएं देने के बावजूद किसी यश चोपड़ा और यशराज फिल्म्स की नजर उन तक नहीं पहुंचती. वे जब भी चश्मे से देखते हैं उन्हें अमिताभों या शाहरुखों का ही चेहरा नजर आता है.

सेंसर का दायित्व है कि स्वस्थ्य, कलात्मक और समाज के लिहाज से लाभप्रद मनोरंजक सिनेमा बनाने के लिए सुर्खियां और कामयाबी पाने के सस्ते ट्रिक्स को जबरदस्ती रोकना पड़ेगा. वर्ना नंगा होकर अनावश्यक रूप से देह दिखाना ही कला है तो इसके नाम पर हर कोई कुछ भी करने को स्वतंत्र है. यह देश सॉफ्ट पोर्न की भट्ठी बन जाएगी. जिसपर चढ़ी कड़ाही में हमारे आपके बच्चों का भविष्य तलकर बर्बाद हो जाएगा. सरकारें सो रही हैं. बच्चों के गैजेट को चेक करते रहिए. आपने पढ़ाई लिखाई और उनका भविष्य बेहतर बनाने के लिए गैजेट दिया हो और पता नहीं वे इस पर क्या देख रहे हैं. ध्यान रखिए, पोर्न की गंदगी का बिल्कुल आख़िरी दरवाजा है बेशरम रंग.

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