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Updated: 29 सितम्बर, 2022 03:27 PM
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क्यों चुप रहें आख़िर ईमानदारी से रिव्यू जो लिखते हैं ? आर बाल्की की 'चुप' एक अच्छा साइको थ्रिलर ड्रामा है जिसका फर्स्ट हाफ एंगेजिंग हैं तो सेकंड हाफ उतावलेपन में भी फर्स्ट हाफ को पूरा सपोर्ट कर जाता है. साथ ही वर्सेटाइल मेकर बाल्की ने अपनी फ़िल्मी दुनिया के 'गोदी' समीक्षकों को इस साइको थ्रिलर के माध्यम से क्रिटिकल मैसेज भी दिया है. एज ए रूल कहें या कहें थंब रूल किसी फिल्म के हिट या फ्लॉप होने का तो निःसंदेह बॉल ऑडियंस के कोर्ट में होती है. ऑडियंस में से ही किसी सिनेमा के व्यूअर्स निकल कर आते हैं. और ऑडियंस प्रभावित होता है रिव्यू से जिसे देने वाले अधिकतर फिल्मों को बिना महसूस किए, बिना किसी रिसर्च के, एजेंडे के तहत दे देते हैं. सो 'गोदी 'मीडिया की तर्ज पर गोदी क्रिटिकस भी होते हैं, वजह पैसा है, चकाचौंध है और कुछ हद तक कथित 'बिग' लोगों की नजरों से उतर जाने का खौफ भी है. नतीजन व्यूअर्स जब एक बकवास फिल्म को देखकर निकलता है, ठगा सा रह जाता है, स्टारनुमा रेटिंग के दुष्चक्र का शिकार जो हो जाता है. फिर आज की प्रोफ़ेसनल प्रमोशन और मार्केटिंग का एक मुख्य टूल है क्रिटिक्स के रिव्यूज़ को मैनेज करना जिसके तहत प्री रिव्यू का हाइप ऐसा क्रीएट किया जाता है कि लिबरल पोस्ट रिव्यू भी करप्ट हो जाते हैं.

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बाल्की ने समीक्षकों की इसी ‘गोदी’ क़ौम को निशाने पर लिया है. क्या वे चुप करा पाएंगे उन्हें ? हरगिज़ नहीं लेकिन उन्होंने ईमानदार कोशिश की है, कहानी उन्हीं की है, पटकथा और संवाद में भी उनका दख़ल है, निर्देशक तो है हीं और प्रोडक्शन में भी दिवंगत राकेश झुनझुनवाला के पार्ट्नर हैं. कुल मिलाकर जेनयुइन मेकर हैं वो. आइडिया क्लिक हुई कि ‘चुप ‘बनानी है तो फिर कौन उन्हें रोक सकता था ? बाल्की के आईडिया ने मूर्त रूप लिया एक साइको थ्रिलर ड्रामा में जिसे आउटलाइन करें तो इस प्रकार है - मुंबई पुलिस लगातार हो रहे खतरनाक और बेहरम हत्याओं की वजह से एक्शन में हैं.

मर्डर फिल्म क्रिटिक्स के हुए हैं जिनका एक पैटर्न है. चूँकि पैटर्न है तो वो सीरियल किलर है जिसे बेईमान समीक्षकों से नफ़रत है. नफ़रत की वजह क्या है ? क्या इसलिए कि उसकी किसी फिल्म का खराब रिव्यू किया गया है? लेकिन वो तो अच्छा रिव्यू करने वालों को भी मार रहा है. पुलिस की यही कश्मकश है, रिव्यूओं के स्टारों की उलझन है. निःसंदेह बाल्की की क्रिएटिविटी ने यूनिक कहानी रची है, उनकी खासियत ही है कि सेकंड हाफ तक आते आते फिल्म प्रेडिक्टेबल होकर भी दिलचस्प बनी रहती है. जब रचनात्मकता आला हो तभी सभी सब-स्टोरीज मुख्य स्टोरी में रच बस जाती हैं और मैसेज को भली भांति कंट्रीब्यूट भी करती हैं.

और फिर बाल्की का कहानी कहने का एक अलग और अच्छा अंदाज है और यह उनकी यूएसपी रही है जो इस फिल्म में भी दिखती है. फिर फिल्म में गुरुदत्त के दर्द के साथ साथ चलना अपने आप में अनूठा अनुभव है.  वन लाइनर निष्कर्ष ही है फिल्म का, 'कागज़ के फूल बनाने वाले को कागज के कलम वालों ने चुप करा दिया.' 'कागज़ के फूल' गुरुदत्त की महत्वकांक्षी फिल्म थी, आई 1959 में थी लेकिन कल्ट मूवी के रूप में प्रशंसा मिली दो दशक बाद अस्सी के दशक में.

तब जब फिल्म रिलीज़ हुई, वे क्रिटिक्स ही थे जिन्होंने निजी निहित हितों के वशीभूत होकर बेसिरपैर की समीक्षाएं लिख डाली थी जिस वजह से गुरुदत्त अवसाद के भवसागर में डूब गए, तिल तिल कर टूटते रहे और अंततः जान ही दे दी. और जब 'कागज़ के फूल' को सराहा जाने लगा, गुरुदत्त दुनिया छोड़कर जा चुके थे.शायद सिनेमा के सौ साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि फिल्म समीक्षकों को कहानी का केंद्र बनाया गया है.

फिल्म क्रिटिक्स को चुप कराने निकला एक जुनूनी शख्स, जिसका मानना है कि उसकी समीक्षा कैसे एक फिल्मकार की दिशा और दशा को बदलने के लिए काफी साबित हो सकती है, आर बाल्की की यह फिल्म रेटिंग सिस्टम पर कटाक्ष करती भी दिखती है, मगर फिर वे उसे किरदारों के जरिए जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं.

पार्श्व में गुरुदत्त की फिल्मों के गाने जब तब बजते हैं ‘जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैं सुनी, बात कुछ ही बन ही गई ... ये है मुंबई मेरी जान...ये दुनिया गर मिल भी जाए तो ...' मन प्रफुल्लित हो उठता है. एकबारगी तो ख्याल ये भी मन में आता है कि काश, इन दिनों फिल्मों के लिए रचे जाने वाले अक्सर कानफोड़ू गीत संगीत की बजाय हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम युग कहे जाने वाले दौर की फिल्मों का संगीत ही क्यों नहीं फिर से प्रयोग में लाया जाता?

अमित त्रिवेदी के म्यूजिक में कोई खराबी नहीं है लेकिन जब पृष्ठभूमि में चल रहे सचिन देव बर्मन की ‘जाने क्या तूने कही’ की धुन कानों में पड़ जाए तो फिर कोई दूसरी धुन क्योंकर सुहाएगी ? कलाकारों पर 'चुप्पी' तोड़ें, उसके पहले तकनिकी पक्ष की बात कर लेते हैं. सिनेमैटोग्राफी प्रभावित करती है. साइकिल से ढलान उतरने वाला दृश्य जबरदस्त है. सिनेमा प्रेमियों के लिए ख़ास आकर्षण है बांद्रा की गलियों में स्टार्स की बनी पेंटिंग्स, महबूब स्टूडियो, गुरुदत्त के रेफेरेंस और और भी अन्य रूपक और उपमाएं ! 'चुप' कैसे रहें कमतर एडिटिंग को लेकर ?

सेकंड हाफ फर्स्ट सरीखा बेहतरीन जो नहीं बना ! एक और बात पर 'चुप' नहीं रह सकते ! पता नहीं आर बाल्की को किस बात की जल्दी थी ? सस्पेंस का खुलासा थोड़ा और टाल सकते थे ! परंतु ग्रेट मैसेजिंग है तो थोड़ी मोड़ी कमियों पर 'चुप' रहना बनता है. जहां तक एक्टरों की बात है तो हर क्रिटिक की बोलती बंद है यदि ईमानदार है तो ! बुरा बोलने की गुंजाइश ही नहीं है और सब के सब इतना अच्छा निभा ले गए हैं कि बोलने के लिए शब्द ही नहीं है ! ये तो हुआ पूरी कास्ट के लिए ! अलग अलग देखें तो दुलकर सलमान सब पर भारी हैं.

उन्होंने कमाल की एक्टिंग की है. मल्टीपल डिसऑर्डर पर्सनालिटी सरीखे किरदार में एक पल वो मासूम है तो दूसरे ही पल वो क्रूर है और एक अन्य पल में वीभत्स हत्यारा भी है. वाकई लाजवाब परफॉरमेंस दी है इस मलयालम लेफ्टिनेंट 'राम' ने. सनी देओल का काम अच्छा है और अच्छा इसलिए है कि मेकर ने उम्र के हिसाब से उनके किरदार को गढ़ा है, वे किसी 25 साल की हीरोइन से रोमांस नहीं करते, न ही उन्हें अपनी सफ़ेद दाढ़ी और बाल छिपाने की जरुरत पड़ी.

हां, वे अपनी थोड़ी सी निकली तोंद छिपाते जरूर नजर आते हैं, हालांकि इसे भी मेकर ने बखूबी जस्टिफाई कर दिया है. इसीलिए वे रियल लगते हैं. एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट के रूप में श्रेया धनवंतरी का काम काफी सहज रहा है. उसमें चपलता है, चंचलता है और अभिनय की कुशलता है. वह सुंदर भी खूब दिखती है और अपने किरदार में खो जाने के लिए मेहनत भी खूब करती हैं. पूजा भट्ट को देखा तो बस अच्छा लगा, उन्होंने एक अमनोवैज्ञानिक की भूमिका खूब निभाई है.

तमिल अदाकारा सरन्या पोनवान्नन इस फिल्म का सबसे सुखद सरप्राइज हैं. नेत्रहीन होते हुए भी एक बिंदास, बेतकल्लुफ और बेझिझक मां के किरदार में वाकई लिबरल सरन्या ने कमाल किया है. कैमियो में बिग बी का अलहदा अंदाज भी लुभाता है. वे वाकई थर्ड अंपायर है फिल्म के. और अंत में फिल्म के संवादों का जिक्र लाजमी है. खासे चुटीले हैं, कई जगह हास्य पैदा करते हैं तो कई जगह कड़वी सच्चाई भी कह जाते हैं.

मसलन 'अच्छे फिल्म एक्सपीरियंस के लिए मोबाइल फोन्स और क्रिटिक्स दोनों साइलेंट होने चाहिए ... ऑडियंस की आंखें खोल उनका टेस्ट अपग्रेड कर... जिन्दा फील करने के लिए सिनेमा चाहिए ... A film is a director's baby, how can you molest someone's child...यार ?...We have got a new kind of a serial killer...जो STAR देने वालों को STARS दे रहा है ...Critics का critic ...'

कुल मिलाकर एक क्लासिक फिल्म है जो दूर तलक चलेगी ! जब भी परदे पर लगेगी, व्यूअर्स खुद ब खुद तलाश लेगी. फिल्म इस मायने में हिट है कि बिना किसी शोर शराबे के कुल लागत 10  करोड़ को बड़े आराम से निकाल ले जायेगी और कल मेकर पाएंगे कि जितना लगाया था उसका दोगुना यानि 20  करोड़ से ज्यादा जेब में आ गया. हालांकि थोड़ा स्ट्रेटेजिक मूव भी रहा मेकर का, निश्चित ही दिवंगत राकेश झुनझुनवाला सुझा कर गए होंगे; और वह है फिल्म को 75 रुपये मात्र में दिखाने का.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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