आईओ के कन्फर्मेशन बायस की पोल खोल है क्रिमिनल जस्टिस का 5वां एपिसोड!
क्रिमिनल जस्टिस एपिसोड 5 : जिसे कानूनी भाषा में ‘माई साइड’ बायस भी कहा जा सकता है और यह मानव स्वभाव और व्यवहार में रचा बसा है. एक वकील के रूप में सफल होने के लिए जरुरी है माई साइड को समझना, इसका उपयोग कैसे करना है और जाल में पड़ने से कैसे बचना है? आइये समझते हैं.
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न्यायालय जुवेनाइल मुकुल को अडल्ट मानते हुए ट्रायल की प्रक्रिया बढ़ाएगी, तय हो चुका था, पांचवें एपिसोड में. क्रिमिनल ट्रायल शुरू होता है और स्टैंडर्ड 'NOT GUILTY' मुकुल से कहलवाया जाता है. आख़िर आगे की कार्यवाही का औचित्य भी तो हो न्याय की भाषा में . स्क्रिप्ट होनहार माधव मिश्रा(पंकज त्रिपाठी) को एक रोचक प्रसंग के माध्यम से कन्फर्मेशन बायस का सिरा पकड़ा देती है जिसे वह बखूबी भुना भी लेता है दोनों फ्रंट पर. एक तरफ़ तो वह अपने मुवक्किल मुकुल को उसके पूर्वाग्रह ग्रस्त मन जनित बाधाओं के बारे में समझा पाता है और फिर अपने लिए उसका विश्वास भी जीत लेता है. नतीजन उसके लिए भरी अदालत में आईओ के आरोपी मुकुल के प्रति पाले गए पूर्वाग्रह की पोल खोलने की राह आसान हो जाती है. व्यूअर्स के साथ नाइंसाफी ही होगी यदि हम अदालत की रोचक और रोमांचक कार्यवाही का खुलासा कर दें. फिर भी इतना भर हिंट दे ही देते हैं कि अभियोग पक्ष की आकर्षक और आक्रामक वकील लेखा पीरामल (श्वेता बसु प्रसाद) को आरोपी मुकुल का डिक्टाफोन मिल गया है ! निश्चित ही छठे एपिसोड में वह पुरजोर तरीके से तर्क रखेंगी, माननीय न्यायालय भी सहमत होते ही नजर आएंगे और तभी एक बार फिर माधवगिरी चमकेगी.
मनोरंजन का फूल डोज है क्रिमिनल जस्टिस का एपिसोड 5
कुल मिलाकर दिलचस्प होगा अगला एपिसोड. अब थोड़ी बात करें कन्फ़र्मेशन बायस की जिसका शिकार अमूमन हम सभी कभी न कभी होते ही हैं. हिंदी में बोलें तो पुष्टिकरण पूर्वाग्रह जो एक ऐसी मनोवैज्ञानिक घटना है जिसमें एक व्यक्ति उन संदर्भों या निष्कर्षों को स्वीकार करता है जो चीजों में उसके मौजूदा विश्वास की पुष्टि करते हैं. पुष्टिकरण पूर्वाग्रह सांख्यिकीय त्रुटियों की ओर ले जाता है, क्योंकि यह लोगों द्वारा जानकारी एकत्र करने और उसकी व्याख्या करने के तरीके को प्रभावित करता है.
दरअसल मानव स्वभाव की जटिलता उसे उन चीजों या सबूतों को महत्व देने के लिए बाध्य करती है जो उसकी मान्यताओं की पुष्टि करते हैं. तार्किकता धरी रह जाती है चूँकि विचार अक्सर पक्षपाती होते हैं और हमारे विचारों का समर्थन करने वाली जानकारी से प्रभावित होते हैं. पुष्टिकरण पूर्वाग्रह एक प्रकार का संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह है जो खराब निर्णय लेने की ओर जाता है. यह हमें निर्णय लेने के लिए किसी स्थिति को निष्पक्ष रूप से देखने से रोकता है.
माननीय न्यायाधीश को न्याय में मनोविज्ञान का दखल नहीं सुहा रहा था लेकिन जब माधव मिश्रा जी ने इस टूल के सहारे प्रतिपरीक्षा में सिद्ध कर दिया कि अब तक के तमाम प्रस्तुत किए गए सबूत निष्पक्ष नहीं है, माननीय जज क़ायल हो उठे. आईओ का पुष्टिकरण पूर्वाग्रह ही था कि उन्होंने उन सबूतों को रखा जो उनके विश्वास की पुष्टि करते थे जबकि हर मौक़े पर विपरीत तथ्य भी मौजूद थे जिनकी अनदेखी की गई. मनुष्य की इसी प्रवृत्ति को सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म भी खूब भुनाते हैं.
वे भांप जो लेते हैं मान्यता को. लाइक डिसलाइक का गेम इसी कॉन्फ़र्मेशन बायस का नतीजा है ! मैंने कुछ पोस्ट किया और तुमने लाइक नहीं किया तो मेरे पूर्वाग्रह को मैं संपुष्ट कर देता हूं कि तुम मुझे लाइक नहीं करते जबकि हो सकता है कि तुमने पोस्ट देखा ही न हो और यदि देखा भी हो तो तवज्जो नहीं दो हो या फिर लाइक बटन दबाना तुम्हारी फ़ितरत ही न हो. आजकल गूगल बाबा महान है, हम सर्च करते हैं, जिस प्रकार से हम सर्च करते हैं मसलन सवाल के रूप में या तुलना के भाव में;
बाबा के गुर्गों को देर नहीं लगती समझने में कि हमने ऐसा क्या सोच रखा है जिसकी पुष्टि के लिए सर्च किया गया है. नतीजन तदनुसार जवाब दे दिया जाता है और हम संतुष्ट होते हैं हमारी मान्यता पर गूगल ने भी ठप्पा जो लगा दिया है ! कानूनी भाषा में इसे ‘माई साइड ’ बायस भी कहा जाता है और यह मानव स्वभाव और व्यवहार में रचा बसा है. एक वकील के रूप में सफल होने के लिए जरुरी है माई साइड को समझना, इसका उपयोग कैसे करना है और जाल में पड़ने से कैसे बचना है!
हालांकि दोहराना ही होगा फिर भी एक उदाहरण देने से पहले कह दें जब किसी व्यक्ति का सामना घटनाओं या सबूतों की एक श्रृंखला से होता है, तो वह उन्हें समझाने के लिए एक परिकल्पना को अपनाएगा. पुष्टिकरण पूर्वाग्रह उन सबूतों के टुकड़ों की तलाश करने और वजन देने की प्रवृत्ति है जो परिकल्पना का समर्थन करते हैं और उन सबूतों को अनदेखा करते हैं जो इसे अस्वीकार करते हैं. यह स्वयं की परिकल्पना के समर्थन के रूप में अस्पष्ट साक्ष्य की व्याख्या करने की प्रवृत्ति में भी प्रकट होता है.
दरअसल जद्दोजहद है कि परिकल्पना साबित ना भी हो सके तो इसे गलत भी न ठहराया जा सके तो उन सबूतों से बचा जाए जिनकी बिना पर प्रारंभिक परिकल्पना गलत साबित की जा सकती हो. अब अंत में आ जाएँ साउथ अफ्रीका के कन्फर्मेशन बायस के शिकार एक प्रसिद्ध आपराधिक मामले पर. एक युवा सरकारी मुलाजिम था, जिस पर जून 2005 में अपनी प्रेमिका की हत्या का आरोप लगाया गया था. प्रेमिका यूनिवर्सिटी की सुंदर और बुद्धिमान छात्रा थी.उसकी हत्या उसी के फ्लैट में हथौड़े से सर पर वार करके की गई थी.
पुलिस ने शुरुआत में ही एक लीक पकड़ ली कि मुलाजिम ही उनका आदमी है जिसने ह्त्या की है. वजहें भी थी ऐसा मानने की जैसे कि मुल्जिम का अजीब व्यवहार और पल पल उसका अपने बयान बदलना. पूरी पुलिस जांच और अभियोजन इस परिकल्पना पर आधारित था और सबूत के हर टुकड़े, जो संभवतः बेचारे मुलाज़िम को दोषमुक्त कर सकते थे, को नजरअंदाज कर दिया गया था और सबूत के हर उस टुकड़े को जो उनकी परिकल्पना का समर्थन करता था, भले ही अस्पष्ट था, हाईलाइट किया गया.
इसका अर्थ यह था कि वह दोषी था. एक महत्वपूर्ण सॉलिड एलिबी थी मुलाजिम के पास कि वह ह्त्या वाले पूरे दिन अपने आफिस में कार्यरत था और कालांतर में इसी बिना पर वह छूटा भी लेकिन तब तक उसके पेरेंट्स लाखों खर्च कर चुके थे और उसका करियर तबाह हो चुका था. विडंबना देखिये अभी भी उन लोगों की कमी नहीं है जो मुलाज़िम को दोषी मानते हैं बावजूद एक उद्देश्यपूर्ण साक्ष्य के और गलत सार्वजानिक धारणा की वजह से मुलाजिम को देश छोड़ना पड़ा ! देखा जाए तो जो लीक अभियोजन ने मुकुल के मामले में पकड़ ली है जिन्हें अंततः अधूरा सच बताने की क़वायद ही है स्ट्रीम हो रही क्रिमिनल जस्टिस की !
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