भारतीय सिनेमा के 'पितामह' दादा साहब फाल्के की कमसुनी दास्तान
Dadasaheb Phalke Birth Anniversary: हिंदी सिनेमा के जनक कहे जाने वाले धुंडीराज गोविंद फाल्के उर्फ दादा साहब फाल्के की आज जयंती है. महज 19 साल के करियर में उन्होंने 95 से ज्यादा फिल्में बनाई हैं. उनको प्रयोगधर्मी फिल्मकार माना जाता था. वो आज के फिल्म मेकर्स की तरह लकीर के फकीर नहीं थे. बल्कि सिनेमा में नित नए प्रयोग के लिए जाने जाते थे.
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मिलेनियल्स और जनरेशन जेड अक्सर कुछ लोगों के लिए मल्टी-हाइफनेट शब्द का इस्तेमाल करता है, खासकर के उन सेलिब्रिटीज के लिए जो मल्टीटैलेंटेड होते हैं. देश और दुनिया में ऐसी बहुत सारी प्रतिभाशाली हस्तियां रही हैं, लेकिन भारत के संदर्भ जब किसी एक कलाकार नाम ध्यान में आता है, तो वो धुंडीराज गोविंद फाल्के उर्फ दादा साहब फाल्के हैं. उनको 'भारतीय सिनेमा के पितामह' के नाम से सभी जाना जाता है. उनकी जिंदगी बहुत दिलचस्प रही है. उनका पूरा जीवन संघर्षों, असफलताओं और अभूतपूर्व उपलब्धियों से भरा रहा है. आज पूरा देश उनकी जयंती मना रहा है. दादा साहब का जन्म साल 1870 में महाराष्ट्र के नासिक के त्र्यंबकेश्वर में हुआ था.
पिता संस्कृत विद्वान और पेशे से पुजारी थे. घर में कुल नौ लोगों का परिवार था. ऐसे में सबका पेट भर जाए, यही सबसे बड़ी चुनौती थी. ऐसे में धुंधिराज गोविंद ने किसी तरह 10वीं की परीक्षा पास कर ली. उनको कला में बहुत दिलचस्पी थी. यही वजह है कि कुछ पैसों का जुगाड़ करके उन्होंने मुंबई के जेजे कॉलेज ऑफ आर्ट और बड़ौदा के कलाभवन में दाखिला ले लिया. यही से उनको फोटोग्राफी का भी शौक हो गया. तस्वीरें लेना उन्हें बहुत अच्छा लगता था. कहा जाता है कि वह कार्ल हर्ट्ज़ नामक एक जर्मन जादूगर से मिले, जिनसे उन्होंने कुछ 'जादू' सीखा, जिसमें ट्रिक फोटोग्राफी की कुछ तकनीकें भी शामिल थीं, इनका इस्तेमाल उन्होंने अपनी फिल्में बनाने में भी किया था.
दादा साहब फाल्के का व्यक्तिगत जीवन बहुत संघर्षों भरा रहा है. उनकी शादी के कुछ महीनों बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया. उस समय वो गर्भवती थी. ये उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था. कुछ दिनों तक एकाकी जीवन जीने के बाद घरवालों के दबाव में उन्होंने 1900 की शुरुआत में गिरिजा उर्फ सरस्वती नामक महिला से शादी कर ली. सरस्वती दादा साहब को बहुत सपोर्ट करती थी. उनको व्यक्तिगत और व्यावसायिक सलाह दिया करती थी. उनकी सलाह पर उन्होंने फोटोग्राफी छोड़कर प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना कर डाली. इसी दौरान उनको एक फिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखी. इसे देखने के बाद उनकी जिंदगी का मकसद बदल गया. उन्होंने फिल्म बनाने पर विचार शुरू कर दिया.
फिल्में बनाना कभी भी आसान नहीं रहा है. पैसा, कलाकार, इक्विपमेंट तमाम परेशानियां थीं. लेकिन कहते हैं ना कि जिद्द करने वाले अपनी इच्छा हर हाल में पूरी कर लेते हैं. दादा साहेब ने भी तमाम परेशानियों के बावजूद वो कर दिखाया, जो वो चाहते थे. उन्होंने 'फाल्के फिल्म कंपनी' बनाई. इसके बाद पहली भारतीय फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' की शुरुआत हो गई. इस फिल्म के लिए पैसों की जरूरत थी, उसे पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी सरस्वती के गहने गिरवी रख दिए. अपनी कुछ प्रॉपर्टी भी बेच दिया. फिल्म मेकिंग का ज्यादा से ज्यादा काम अपनी पत्नी के सहयोग के साथ किया करते थे, ताकि पैसे बचाए जा सके. कड़ी मेहनत और समर्पण के बाद साल 1913 में फिल्म रिलीज हो गई.
दादा साहब फाल्के की ये पहली और बड़ी उपलब्धि थी, जिसने भारतीय सिनेमा के नई दिशा देने का काम किया था. फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' की सफलता ने दादा साहब को भी बहुत प्रोत्साहित किया था. उनके पास इतने पैसे आ गए थे कि वो अब आराम से आने वाले वक्त में दूसरी फिल्मों का निर्माण कर सके. लेकिन ब्रिटिश राज से आजादी से तीन दशक पहले, उपनिवेशवाद के तहत एक फिल्म बनाना, जमीनी स्तर से उस पर काम करना और व्यावहारिक रूप से अपने देश के नागरिकों के लिए एक नई कला का परिचय देना, वो भी सीमित तकनीक वाले एक व्यक्ति के लिए, एक अनोखी जीत है. भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए साल 1969 से भारत सरकार ने 'दादा साहब फाल्के' अवार्ड की शुरुआत की थी.
आइए उन उपलब्धियों के बारे में जानते हैं, जो दादा साहब की प्रेरणा से हिंदी सिनेमा में पहली बार हुए...
- पहली फीचर फिल्म का निर्माण
पहली फीचर फिल्म का निर्माण का श्रेय दादा साहब फाल्के को ही जाता है. यदि अंग्रेजी फिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखकर हिंदी फिल्म बनाने का विचार उनको नहीं आया होता, तो न जाने कब इसकी शुरूआत हुई होती. उनके विजन की ही देन है कि आज भारतीय फिल्म इंडस्ट्री इस मुकाम पर खड़ी है. साल 1913 में रिलीज हुई पहली हिंदी फीचर फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के निर्माण की कहानी भी बहुत दिलचस्प है. किसी तरह पैसों की व्यवस्था करने के बाद जब उन्होंने कलाकारों का चयन शुरू किया तो हीरोइन नहीं मिल रही थी. उस समय फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था. राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती के रोल के लिए कोई भी महिला राजी नहीं हो रही थी. अंतत: उन्होंने एक बावर्ची अन्ना सालुंके को इस रोल के लिए चुना. उस समय थिएटर में महिलाओं की भूमिका भी पुरुष ही निभाते थे. रिलीज के बाद फिल्म सुपर हिट रही थी.
- पहली बोलती फिल्म का निर्माण
भारतीय सिनेमा की पहली फीचर फिल्म के बनने के करीब दो दशक बाद दादा साहब की प्रेरणा से पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' का निर्माण अर्देशिर ईरानी ने किया था. ये फिल्म साल 1931 में रिलीज हुई थी. कहा जाता है कि ईरानी दूरदर्शी होने के साथ कुछ बड़ा करने का सपना देखते थे. उन्होंने न सिर्फ सपने देखे बल्कि उन्हें पूरा भी किया. उनके इन सपनों ने भारतीय सिनेमा को आकार दिया. इस फिल्म की रिलीज से पहले भारत में मूक फिल्मों का निर्माण होता था जो पौराणिक कहानियों के इर्दगिर्द होती थीं. ईरानी ने उस लीक से अलग एक लोकप्रिय नाटक को चुनकर बड़ा जोखिम उठाया था. फिल्म की शूटिंग की कहानी भी रोचक है. फिल्म को आवाज के साथ बनाने के लिए रिकॉर्ड करने के लिए कलाकार माइक्रोफोन अपने कपड़ों में छुपाकर रखा करते थे. इस फिल्म का गीत 'दे दे खुदा के नाम पे प्यारे' भारतीय सिनेमा का पहला प्लेबैक सॉन्ग था.
- पहली रंगीन फिल्म का निर्माण
भारतीय सिनेमा के लिए दादा साहब फाल्के ने जो अलख जगाया, उसे आगे बढ़ाने का काम अर्देशिर ईरानी ने किया था. साल 1031 में पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' के बाद से निर्देशक वी. शांताराम ने पहली रंगीन फिल्म बनाने का काम शुरू कर दिया था. उस वक्त भारत में उस तरह की तकनीक नहीं थी कि यहां कलर फिल्म बनाई जा सके. ऐसे में साल 1933 में वी. शांताराम ने अपनी फिल्म 'सैरंध्री' को अपने स्टूडियो में शूट किया और प्रिंट लेकर जर्मनी चले गए. वहां से कलर प्रिंट का काम पूरा होने के बाद जब भारत आकर फिल्म चलाई गई तो निराश रह गए, क्योंकि फिल्म का प्रिंट खराब हो गया था. इसी दौरान अर्देशिर ईरानी ने कलर फिल्म के लिए जरूरी संशाधन जुटा लिए. उन्होंने भारत की पहली स्वदेशी कलर फिल्म 'किसान कन्या' साल 1938 में रिलीज हुई थी. उस वक्त इस फिल्म को देखने का आकर्षण लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था.
- ऑस्कर में नॉमिनेट होने वाली पहली फिल्म
भारतीय सिनेमा तेजी से अपना सफर कर रहा था. आजादी से पहले ही पहली फीचर से लेकर कलर फिल्म तक का सफर पूरा हो चुका था. अब सिनेमा की गुणवत्ता पर काम किया जा रहा था. इसी दौरान महबूब खान ने फिल्म 'मदर इंडिया' का निर्माण शुरू किया था. जो कि उन्हीं की फिल्म 'औरत' (1940) की रीमेक है. 'मदर इंडिया' भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास में दर्ज होने वाली फिल्मों में एक है. यह प्रतिष्ठित ऑस्कर अवार्ड के लिए नामित प्रथम भारतीय फिल्म थी. ऑस्कर में इसकी कांटे की टक्कर इटालियन प्रोड्यूसर डीनो डे लारेन्टिस की फिल्म 'नाइट्स आफ केबिरिया' से हुई थी, जो विजेता रही थी. इस फिल्म में नरगिस, सुनील दत्त और राजेंद्र कुमार लीड रोल में थे.
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