Netflix DARLINGS Review: बुलबुलों से बाहर निकलने की क़वायद है आलिया-शेफाली की DARLINGS!
दरअसल बुलबुलों से बाहर निकलने की क़वायद है DARLINGS. कहानी आम है लेकिन कुछ तो ख़ास है फिल्म में कि जब आप इसे देखना शुरू करते हैं तो फिर ख़त्म करके ही अपनी जगह से उठते हैं.
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संयोग ही है कि पिछले दिनों डार्क कॉमेडी के नाम पर 'गुड लक जेरी' देखी थी और अब देखी है 'DARLINGS' और दोनों ही ओटीटी प्लेटफार्म पर. जहां जेरी को गुड विश की खूब दरकार पड़ी वहीँ डार्लिंग्स की 'बदरू' वाकई डार्लिंग साबित हुई. उम्दा हास्य किसी फूहड़ता या द्विअर्थी संवादों का मोहताज नहीं होता और एक डार्क कॉमेडी फिल्म ऐसा कुछ कर पाए, बहुत कम ही हुआ है. लेकिन कहने में कोई गुरेज नहीं है 'डार्लिंग्स' ऐसा कर जाती है और अपने नाम की प्लुरलिटी को भी जस्टिफाई करती है. रिव्यू के तहत फिल्म की कहानी बताकर उसमें मीन मेख निकाल दिया तो व्यूअर्स के साथ अन्याय होगा क्योंकि फिल्म ना तो डार्क रहेगी और ना ही कॉमेडी. सो इस बिना पर रिजर्वेशन रखते हुए ही रिव्यू बढ़ाते हैं. हिंदू धर्म में कई बोध कथाओं का समावेश है ठीक वैसे ही जैसे बाइबिल में PARABLES का!
तमाम चीजें हैं जो एक फिल्म के रूप में डार्लिंग्स को परफेक्ट एंटरटेनर बनाती हैं
'बिच्छू मेंढक' की प्रसिद्ध बोध कथा फिल्म के एक महत्वपूर्ण किरदार के मुख से सुनने को मिलती है जिसे सुनाने की वाजिब वजह है उसके पास! वह दुष्ट आदमी की इंसानी फ़ितरत की तुलना बिच्छू से करती है! कथा, चूंकि बोध कराती है, बताई जा सकती है, फ़िल्म के लिये रुचि प्रभावित जो नहीं होगी. एक बिच्छू मेंढक के पास जाकर कहता है कि क्या वह अपनी पीठ पर बैठाकर उसे उफनती हुई नदी पार करा सकता है?
मेंढक कहता है कि मैं आपको नदी पार नहीं कराना चाहता. मैं जानता हूं कि तुम बीच धार में निश्चित ही मुझे डंक मारोगे. बिच्छू कहता है कि मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं? अगर मैं ऐसा करूंगा तो हम दोनों ही मारे जाएंगे. उसकी बातों पर भरोसा न होने के बाद भी मेंढक जोखिम उठाने को तैयार हो जाता है. बीच धार में पहुंचकर वही होता है जिसका मेंढक को अंदेशा था.
जहर से असहाय मेंढक नदी में डूबने लगता है. डूबने से पहले मेंढक पूछता है तुमने ऐसा क्यों किया, अब दोनों में से कोई भी नहीं बचेगा. डूबते हुए बिच्छू ने दुखी होकर कहा कि मैं क्या करूं, डंक मारना मेरी प्रवृत्ति है और मैं खुद को नहीं रोक पाया. दुष्ट पति की बिच्छुई प्रवृत्ति ही है कि वह घर में खुद को शहंशाह समझता है. बाहर दुत्कारा जाता है क्योंकि मर्द नहीं कायर है वो.
ईगो की संतुष्टि के लिए अपनी मासूम और प्यार करने वाली बीवी पर हाथ उठाता है, उसे हर बात पर जलील करता है, पीटता है, गंदा सुलूक करके खुद को बड़ा समझने की कोशिश करता है. बीवी है कि पति की हर हरकत को चुपचाप सहती है, कभी बच्चों की ख़ातिर तो कभी बच्चे की आस में ये सोचकर कि 'एक दिन वो बदल जाएगा' लेकिन बदलता पति नहीं है. बल्कि पत्नी को बदलना पड़ता है.
और पत्नी बदले 'जैसे को तैसा' के अंदाज में कह दे 'जो कुछ इसने मेरे साथ किया वही मैं इसके साथ करूंगी' तो कह दो 'Is it not a promotion of domestic violence against men?' जबकि ऐसा नहीं है. फ़िल्म किसी भी एंगल से महिलाओं को पीड़ित दिखाने के लिए पूरी पुरुष जाति को विलेन की तरह पेश नहीं करती. सिर्फ़ उन्हें विलेन बनाती हैं, जो विलेन हैं.
जरूर पितृसत्ता के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करती है, पर पुरुषों को शैतान की तरह ट्रीट नहीं करती. बिच्छू-मेंढक की बोध कथा को संपूर्ण मनुष्य जाति पर ट्रांसलेट करना बेमानी है. माना हर बिच्छू डंक मारता है चूंकि उसकी प्रवृति है लेकिन बिछुआई प्रवृति हर इंसान की फितरत नहीं होती तभी तो स्त्री के कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले जुल्फी और कासिम भी है फिल्म में.
दरअसल बुलबुलों से बाहर निकलने की क़वायद है DARLINGS! कहानी आम है लेकिन कुछ तो ख़ास है कि शुरू से अंत तक बांधे रखती है. अति किसी चीज की नहीं है. ओटीटी पर होते हुए भी और वह भी नेट्फ़्लिक्स पर इस कल्चर के वन टू आल सारे गुण एब्यूज, वायलेंस, न्यूडिटी, एरोटिज़्म आदि नदारद है जबकि स्कोप तो भरपूर था.
हां, अन्यथा ट्विस्ट्स भरपूर हैं कहानी में और उन्हें जिस प्रकार ट्रीट किया गया है, राइटर डायरेक्टर जसमीत के रीन बधाई की पात्र है. एक पल किरदार क्रूर तम है तो दूसरे ही पल उससे सहानुभूति भी जग उठती है. तो इस फिल्म को बुरा कहना बेईमानी ही होगी और अच्छा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं है. वीकेंड चल रहा है. आलिया की 'डार्लिंग्स' को मिस करना बड़ी भूल होगी.
इसलिए अपने बिजी शेड्यूल से समय निकालकर 'डार्लिंग्स' देख ही डालिये. और ना देखी तो सुनिश्चित कर लें कि फ़ौरन से पेश्तर बिना वीकेंड का इंतजार किये देख ही लेंगे. फिर फिल्म कितनी प्रासंगिक है, समझ में आती है जब आये दिन घरेलू हिंसा की ख़बरें सुर्खियां बनती है. और हिंसा हर वर्ग में है, कथित संपन्न और आभिजात्य वर्ग में भी.
जस्ट इन खबर है भारतीय मूल की मनदीप कौर ने न्यूयॉर्क (अमेरिका) में आत्महत्या से पहले वीडियो बनाकर अपने पति रणजोधबीर सिंह संधू पर घरेलू हिंसा का आरोप लगाया. 30 वर्षीय मनदीप ने कहा था, '8 साल हो चुके हैं. मैं अब रोज़ाना मार नहीं झेल सकती.' उसने कहा, 'मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की… मुझे लगा कि वह सुधर जाएगा… लेकिन ऐसा नहीं हुआ.'
बात एक्टरों की, मेकर्स टीम, प्रोडक्शन टीम की तो रह ही गई. आलिया भट्ट ने बदरू के रोल में एक बार फिर साबित किया है कि वो सिर्फ़ स्टार नहीं हैं, बल्कि आला दर्जे की अदाकारा भी हैं. एक डरपोक, सहमी हुई बीवी से निडर, बेखौफ और दबंग डार्लिंग्स बनने का सफर आलिया ने जिस तरह तय किया है, काबिल-ए-तारीफ है. उसकी आंखें बरबस बोलती हैं.
शेफ़ाली शाह बदरू की मां शम्शू की कुंठा, उसकी फ्रस्ट्रेशन को उम्दा तरीके से सामने लाती हैं. कुल मिलाकर आलिया और शेफाली की डार्क कॉमेडी खूब एंटरटेन करती है. रोशन मैथ्यू ने ज़ुल्फ़ी के रोल में बहुत कुछ करने की कोशिश नहीं की है, ठीक भी है. विजय वर्मा तो फ़िल्म की जान हैं. हमज़ा की क्रूरता उन्होंने ख़ुद में आत्मसात की है. एक समय के बात उनसे नफ़रत हो जाती है और बतौर कलाकार यही उनकी सफलता है.
राजेश शर्मा कसाई कासिम के छोटे से रोल में भी प्रभावित करते हैं. प्रोडक्शन टीम की हिस्सा आलिया भी है, शाहरुख़ खान भी हैं. और कौन कहता है प्यार उम्र देखकर होता है? सच में प्यार की उम्र नहीं होती! ग्रेट सस्पेंस है फिल्म का- जुल्फी को 'बदरू' से नहीं बल्कि ...से प्यार है!
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