Dil Bechara: तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा रहा!
सुशांत सिंह राजपूत (Sushant singh rajput) और संजना संघी (Sanjana Sanghi)की फिल्म दिल बेचारा (Dil Bechara) रिलीज हो गयी है. फिल्म एक बड़ी ही क्यूट सी लव स्टोरी है जिसमें न केवल दो लोगों को मुश्किल हालात से लड़ते हुए दिखाया गया है. बल्कि ये भी बताया गया है कि उदासी के पलों में ज़िन्दगी कैसे जी जाती है.
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Dil Bechara Review in Hindi : दर्द का रिश्ता, टूटे हुए लोगों को जैसे जोड़ने का काम कर देता है. जब दो दिल प्रेम में हों तो एक-दूसरे की पसंद से भी बेतहाशा प्यार होने लगता है. यहां तक कि अज़ीबोग़रीब हरक़तें भी अच्छी लगने लगती हैं. गंभीर बीमारी के साथ भी कैसे खुलकर हंसा जाता है, जिया जाता है और लोगों को गले लगाया जा सकता है. छोटी-छोटी इच्छाओं का पूरा होना कितना सुख देता है? जीवन में एक दोस्त का होना कितना जरुरी है और सच्चा दोस्त कैसा होता है? 'दिल बेचारा' (Dil Bechara) इन्हीं अहसासों के ताने-बाने से रची गई कोमल, मधुर अभिव्यक्ति के रूप में परदे पर साकार होती है. 'दिल' सुनते ही इश्क़ की घंटियां बजने लगती हैं. वह ऑर्गन जो हमारी धड़कनों को रवानी देता है. किसी नज़र के दीदार भर से कभी ठहरता तो कभी रफ्तार पकड़ लेता है, वह एक न एक दिन प्रेम के दरिया में डुबा ही देता है और फिर राजकुमार- राजकुमारी की कहानी बनती है.
फिल्म दिल बेचारा में सुशांत सिंह राजपूत और संजना संघी
इस फ़िल्म में निरर्थक क्रांतिकारी बातें नहीं हैं और न ही हाई वोल्टेज ड्रामा. बस, हमारी आपकी साधारण सी दुनिया और उसमें जानलेवा कैंसर के साथ मुस्कुराते हुए जीते रहने का प्रयास है. यहां नायक-नायिका दोनों, अपनी-अपनी लड़ाई लड़ते हुए भी एक दूसरे के सुख-दुःख में साथ खड़े होते हैं. साथ हंसते -साथ रोते हैं पर दुखियारे बनकर नहीं रहते. पुष्पिंदर के साथ (ऑक्सीजन सिलिंडर) रहते हुए भी क़िज़ी (संजना संघी) सहज है.
वो दर्द समझती है और दूसरों का ग़म बांटने की कोशिश करती है. एक जगह वो कहती है, 'इनको गले लगाती हूं तो लगता है, इनका ग़म बांट रही हूं... या अपना.' उसका अपने माता-पिता के साथ का रिश्ता भी बहुत प्यारा है. जब वो ये बोलती है कि 'मां को लगता है जैसे जादू के लिए धूप जरूरी है वैसे ही बंगाली के लिए सोन्देश'. तो सबको अपनी-अपनी मां का लाड़ याद आ जाता है.
मैनुअल राजकुमार जूनियर उर्फ़ मैनी (सुशांत) को बेहद खुशमिज़ाज़ और ज़िंदादिल दिखाया गया है जो ख़ुद कैंसर से जूझते हुए, एक कृत्रिम पैर के साथ भी सबके जीवन में इंद्रधनुषी रंग भरने में लगा है.
फ़िल्म के कुछ संवाद याद रह जाते हैं -
'हीरो बनने के लिए पॉपुलर नहीं बनना पड़ता. वो सच मे हीरो होते हैं'.
'कहते हैं, प्यार नींद की तरह होता है. धीरे-धीरे आता है फिर एकदम से आप उसमें खो जाते हो'.
'किसी का सपना पूरा होना, उस सिली की बात ही कुछ और है.'
फ़िल्म के अंत में मैनी (सुशांत) का गुज़र जाना भीतर तक उतर जाता है. यूं तो फ़िल्मों के ऐसे दृश्य भावुक कर ही देते हैं पर इस बार जो आंसू गिरे, उनकी नमी लम्बे समय तक बनी रहेगी. यह दुःख फ़िल्म के नायक़ की मृत्यु से उपजा दुःख भर ही नहीं है बल्कि यह हम सबके प्रिय सुशांत के, इस फ़िल्म के साथ ही हमें अलविदा कह देने का भी है.
एक ओर तो यह दृश्य आपको याद दिलाता है कि हमारा सुशांत चला गया, वहीं दूसरी ओर मन सांत्वना देने का प्रयास भी करता है कि वो गया कहां? वो तो अब भी है, हम सबके बीच, अपनी फ़िल्मों के माध्यम से.
किसी भी प्रेम कहानी से ये उम्मीद जोड़ लेना कि उसमें कुछ नयापन होगा, अति आशावादी होना ही माना जायेगा. लेकिन इसके बावज़ूद भी 'प्रेम फ़ॉर्मूला' प्रायः हिट हो जाता है. 'दिल बेचारा' की थीम कुछ-कुछ 'आनंद' और 'कल हो न हो' से मिलती अवश्य है पर इसकी पटकथा में वो कसावट नहीं है कि उतना गहरा असर छोड़ सके. इधर रहमान के नाम से ही हम सबकी अपेक्षाएं ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाती हैं. उनके गीतों की विशेषता ही है कि वे धीमे-धीमे असर करते हुए गहरे पैठ जाते हैं लेकिन इस फ़िल्म को लेकर इतना आशान्वित नहीं हुआ जा सकता.
यूं फ़िल्म की कहानी में गीत अच्छे से रच-बस गए हैं, हम साथ में थोड़ा गुनगुना भी लेते हैं लेकिन बस, बात यहीं पर ही ख़त्म भी हो जाती है. हां, 'तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा' गीत को पूरा सुनने की ललक नायिका के साथ ही, दर्शकों के मन में भी बढ़ जाती है.
संजना संघी को देखकर यह क़तई नहीं लगता कि यह उनकी पहली फ़िल्म है. ख़ूबसूरत तो वे हैं ही, पर आत्मविश्वास से भरपूर उनका अभिनय भी देखने लायक़ है. सुशांत का तो कहना ही क्या! हर बार की तरह इस रोल को भी उन्होंने जी लिया है जैसे. उनके दोस्त जेपी यानी जगदीश पांडे की भूमिका में साहिल वैद भी ख़ूब जंचे हैं.
अभिमन्यु वीर सिंह के छोटे से रोल में सैफ़ अली ख़ान प्रभावी रहे हैं. शेष कलाकारों का अभिनय भी ठीकठाक है. निश्चित रूप से यह कोई क्लासिक फ़िल्म नहीं है लेकिन फिर भी ऐसा महसूस हुआ कि थोड़ी लम्बी होती तो बेहतर था. इसे सुशांत के लिए ज़रूर देखा जाना चाहिए. सुशांत के प्रशंसकों को अपने इस हीरो के खिलंदड़पन को याद रखना है, उसकी शैतानियों को सोच मुस्कुराना है और सौ दुःख-दर्दों से गुजरते हुए, जीवन कैसे जिया जाता है? यह सीख लेनी है. सुशांत के लिए यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
'तुम न हुए मेरे तो क्या, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारा रहा
मेरे चंदा! मैं तुम्हारा सितारा रहा'
ये गीत सुनकर यूं लगता है जैसे जाते-जाते सुशांत अपने दिल की बात कह रहे हों.
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