दिलीप कुमार तो हमेशा रहेंगे, बस युसूफ साहब का जिस्म चला गया...
मैं जब दिलीप कुमार की बैक टू बैक फिल्में देखने के बाद उनकी हालिया सूरत देखता था तो मुझसे देखी नहीं जाती थी. मुझसे बर्दाश्त नहीं होता था. मैं दिल की बात कहूं तो मुझे बहुत सुकून मिला ये जानकर कि अब मुहम्मद युसूफ खां साहब ने अपना मुश्किलों भरा जीवन त्याग दिया.
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मैं द ट्रेजेडी किंग दिलीप साहब को पर्सनली तो नहीं जानता था. न ही मैं उनसे कभी मिल सका, न कोई ख़त लिखा कभी और न ही किसी तरह का कोई संवाद नसीब हुआ. मैं दिलीप साहब को बस पर्दे तक जानता था. मैं उनकी फिल्में देखता था. मेरी तरह करोड़ों लोगों की उनसे वाकफियत, यानी जान-पहचान शायद इतनी ही रही थी. मैं देखता था कि कैसे वो इक-इक पल में अपने चेहरे के भाव बदलकर सीन को क्या से क्या कर देते थे.
दिलीप साहब उर्फ़ दिलीप कुमार उर्फ़ मुहम्मद युसूफ खां सन 1922 में जन्मे थे. इस लिहाज़ से वो इस साल अपना 99वां जन्मदिन मनाते और अगले साल अपनी उम्र का शतक पूरा करने वाले थे. यूं एक आंकडें के तौर पर देखकर बहुत से लोग इस अफ़सोस में हैं कि आख़िर क्यों चले गए. कुछ समय और रुक जाते. पर मैं जब उनकी बैक टू बैक फिल्में देखने के बाद उनकी हालिया सूरत देखता था तो मुझसे देखी नहीं जाती थी. मुझसे बर्दाश्त नहीं होता था. मैं दिल की बात कहूं तो मुझे बहुत सुकून मिला ये जानकर कि अब मुहम्मद युसूफ खां साहब ने अपना मुश्किलों भरा जीवन त्याग दिया और उनकी आत्मा अब शांति की ओर बढ़ गयी.
दिलीप कुमार का इस तरह जाना तमाम सिने प्रेमियों को गहरी उदासी दे गया है
दिलीप साहब सन 44 में पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर नज़र आए थे. फिल्म थी ज्वार भाटा जो बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी थी. फिल्म के अच्छे बुरे होने से ज़्यादा उन दिनों देश और दुनिया के हालात ऐसे थे कि फिल्म और रंगमंच फीका पड़ने लगा था. लेकिन दिलीप साहब ने फिर 47 में जुगनू नामक फिल्म की जो सुपर डुपर हिट हुई और यहीं से दिलीप साहब खुद भी जुगनूं की तरह अंधेरे में चमक उठे. उनका एक अलग अंदाज़ बन गया. घर की इज्ज़त, शहीद, मेला, अनोखा प्यार और नदिया के पार फिल्में ब्लॉकबस्टर हो गयी और दिलीप साहब ट्रेजेडी किंग कहलाए जाने लगे.
उनका एक विशिष्ट अंदाज़ था कि वो डायलॉग बहुत धीरे बोलते थे. कई बार तो सिनेमा हॉल में लोग हूटिंग करने लगते थे कि आवाज़ तेज़ करो, आवाज़ तेज़ करो. अंदाज़, हलचल, दीदार, तराना, दाग, अमर, देवदास और आज़ाद सरीखी फिल्में वो मील का पत्थर फिल्में थीं जिन्हें देखकर आज भी एक्टर्स एक्टिंग करना सीखते हैं. फिर 1960 में कोहिनूर और मुग़ल-ए-आज़म ने तो उनका कैरियर अलग ही लेवल पर पहुंचा दिया.
उनकी एक्टिंग को देश ही नहीं दुनिया में भी सराहा जाने लगा. ये उनकी पहली पारी चल रही जिसमें गंगा-जमना, लीडर, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम सरीखी फिल्में उन्हें अवार्ड्स भी दिलवा रही थीं और उनकी तारीफ भी हो रही थी. फिर भी आप बाकी एक्टर्स से तुलना करें तो आपको दिलीप साहब की फिल्में सबसे कम मिलेंगी. उन्होंने कभी ढेर फिल्में करने पर फोकस नहीं किया. बीआर चोपड़ा की नया दौर उस वक़्त की एक मास्टर क्लास फिल्म थी और मेरी नज़र में उनकी पहली पारी की सबसे ख़ूबसूरत फिल्म थी.
वहीं मैं उनकी दूसरी पारी की बात करूं, जब दिलीप साहब ने पेड़ के पीछे रोमांस करना छोड़ सीरियस टॉपिक पर मैच्योर रोल करने शुरु किए, जिसमें सुभाष घई की ड्यूल विधाता और सौदागर शामिल है. मनोज कुमार की क्रान्ति भी बेहतरीन फिल्म है वहीं रमेश सिप्पी की अमिताभ बच्चन संग शक्ति भी बहुत अच्छी फिल्म है. पर मेरी नज़र में दिलीप साहब ने दूसरी पारी की अपनी बेस्ट एक्टिंग बीआर चोपड़ा निर्मित मशाल में दी. जिसमें वह वहीदा रहमान और अनिल कपूर के साथ थे.
फिल्म के उस सीन का ज़िक्र मैं स्पेशली करना चाहूंगा जो सभी की नज़र में फेमस है. इस फिल्म में दिलीप कुमार एक जर्नलिज्म किए प्रिंटिंग प्रेस चलाने वाले बने हैं. इनका अख़बार ईमानदारी से सच्ची ख़बरें और समाज में घपला करते लोगों की पोल खोलने वाली खबरें जनता तक पहुंचाता है. लेकिन बुराई भी अपना काम नहीं छोड़ती. दिलीप कुमार की प्रेस में आग लगा दी जाती है. उनको घर से बाहर कर दिया जाता है.
उसी दौरान एक सीन है कि दिलीप साहब वहीदा रहमान, जो उसमें उनकी पत्नी बनी हैं, रात के वक़्त सड़क पर साथ साथ चलते हुए कहते हैं कि 'देखो सुधा, जब भी मुसीबतें आती हैं तो हर ओर से आती हैं. हमें घर से भी निकाल दिया और उधर प्रेस में भी आग लग गयी. कोई बात नहीं, कोई न कोई रास्ता निकलेगा...' इतना कहते-सुनते वहीदा रहमान के पेट में अचानक दर्द उठने लगता है और वो कराहने लगती हैं.
दिलीप कुमार को कुछ समझ नहीं आता कि अब क्या करें, तो वो राह चलते लोगों से मदद मांगने के लिए कोई गाड़ी रुकवाने की कोशिश करते हैं. उस सीन में दिलीप साहब, जो अमूमन धीमे से धीमा डायलॉग बोलते नज़र आते थे; ज़ोर ज़ोर से, बिलख बिलख के मदद की गुहार लगाते हैं पर कोई नहीं आता. बीच-बीच में वो अपनी पत्नी के पास आकर उसे ढाढस भी बांधते हैं और राते के सन्नाटे में आती जाती हर गाड़ी के सामने खड़े होकर बिलखते हैं, रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं पर कोई मदद के लिए नहीं आता.
अगले ही पल पता चलता है कि सुधा की जान शरीर से निकल गयी. और दिलीप साहब असहाय से होकर उनके सिर को अपने सीने से लगाकर रोने लगते हैं. यह सीन, इस पूरी सदी का सबसे मार्मिक सीन है. इसमें सिर्फ एक आदमी की लाचारी नहीं दिखाई गयी बल्कि पूरे समाज को बेनकाब किया गया है. गरीब और सच्चे आदमी की बेबसी भी दिखाई गयी है. इस सीन को देखते वक़्त अगर आपकी आंखों में आंसू न आ जाए तो समझिए आपका दिल पत्थर का हो चला है.
सुभाष घई के साथ 1991 में आई सौदागर दिलीप साहब की रिलीज़ हुई आख़िरी फिल्म थी. बीते तीस सालों से वह बड़े पर्दे से दूर थे. बीच में कुछ समय उन्होंने राजनीति में भी दिया पर जो कमाल बड़े पर्दे पर करने के आदी थे, वो पार्लियामेंट में न हो पाया. जब ये ख़बर मिली की दिलीप साहब ने शरीर छोड़ दिया तो मेरे कानों में वही आवाज़ गूंजने लगी – 'ए भाई, ए भाई कोई मदद कर दो भाई... कोई मदद कर दो.'
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