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Updated: 20 मार्च, 2022 11:12 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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द कश्मीर फाइल्स का विरोध करने वाला एक तबका बेमतलब के तर्क गढ़ता दिख रहा है. 1990 में कश्मीर में हुए व्यापक नरसंहार को अतीत के तमाम सामजिक-राजनीतिक उठापठक से जोड़कर देश के दूसरे हिस्सों की तरह हिंदू-मुस्लिम तनातनी के पारंपरिक मामलों की कसौटी पर कसना चाहता है. जबकि ऐतिहासिक तथ्य हैं कि शेष भारत की सामजिक-धार्मिक राजनीति से घाटी का मुसलमान दूर ही नजर आया है. कम से कम उस वक्त तक तो यही हालात थे.

कुछ लोग इसी आधार पर कह रहे कि कश्मीरी हिंदुओं (वे सिर्फ पंडित कह रहे) से पहले देश में दलितों पर हुए तमाम अत्याचार को पहले याद कीजिए. कई तो देश में हुए जातीय-धार्मिक दंगों की अलग-अलग लिस्ट तक साझा कर कह रहे. सवाल पूछा जा रहा है- क्या मुसलामनों के उत्पीड़न पर फ़िल्में बनाई जाएंगी? क्या गुजरात फाइल्स (2002 के दंगे) पर फ़िल्म बनेगी, और बनी तो उसे रिलीज होने दिया जाएगा?

मानवीय समाज में किसी भी तरह के उत्पीड़न की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. ना मुसलमान के खिलाफ और ना ही दलित के खिलाफ. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दूसरी जाति धर्म के लोगों के उत्पीड़न की छूट है. हर पक्ष को एक सीमा तक धार्मिक-जातीय आजादी मिलनी चाहिए. भावनाएं दोनों तरफ होती हैं. निजी. स्वाभाविक रूप से आहत भी होती हैं. सोशल मीडिया पर 'द कश्मीर फाइल्स' के खिलाफ दिख रही प्रतिक्रियाएं तो यही साबित कर रहीं कि देश के दूसरे हिस्सों में मुसलमानों के साथ जो कुछ हुआ उसके मुकाबले कश्मीर में पंडितों के साथ (सिख या हिंदुओं की अन्य जातियां भी) जो कुछ हुआ वह तो बहुत मामूली और भुलाकर आगे बढ़ जाने की चीज है.

kashmir-gujrat-srk_6_032022084418.jpgद कश्मीर फाइल्स का एक दृश्य.

हत्याओं का भी वर्गीकरण करने वालों को शर्म क्यों नहीं आती

मुझे नहीं पता कि दुर्दांत सामूहिक हत्याओं का भी वर्गीकरण कर लेने वालों का दिल-दिमाग किस तरह से सोचता होगा. विश्लेषण करने वालों के तर्क बहुत घटिया स्तर के और काफी हवा हवाई नजर आ रहे हैं. तभी तो 'कश्मीर और राममंदिर आंदोलन' का तर्क देते हुए भूल जाते हैं कि बाबरी के साथ आम भारतीय मुसलमानों की तरह कश्मीरी मुसलमान कब भावुक दिखा है? उसके मुद्दे हमेशा से बाबरी से अलग दिखे थे. कश्मीर के नरसंहार को बेमतलब की बहस मानकर बिहार में जातीय नरसंहारों का उदाहरण देने वाले यह क्यों भूल रहे कि बिहार के नरसंहार दोतरफा थे और दोतरफा जनहानि हुई. नरसंहार कैसे शुरू हुआ और वजहें क्या थी, बजाए इस पर बात करने के उनका तर्क देना कि ऐसी घटनाओं पर कभी बात ही नहीं हुई, कार्रवाइयां नहीं हुई- सरासर गलत है. लालू यादव से पूछ लीजिए, वे बेहतर बता पाएंगे कि क्या कार्रवाई हुई थी तब बिहार में.

भला इससे गिरा हुआ, जलील और क्या सकता है कि भीषण नरसंहारों में लोगों की लाशों को अलग-अलग छांटकर देखा जा रहा है. किसी की मौत को तकलीफदेह और किसी की मौत को सामान्य ठहराया जा रहा. सोचकर ही उबकाई आ रही है. गुजरात का भी खूब जिक्र हो रहा है जहां साल 2002 में दंगे हुए थे. ये दंगे कथित रूप से गोधरा में अयोध्या से लौटे कारसेवकों की कोच जलने के बाद हुए थे जिसमें कई मौतें हुईं. केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा की सरकारें थीं. पुलिस नियंत्रित नहीं कर पाई तो सेना को मोर्चा संभालना पड़ा था. गुजरात कंट्रोल हुआ पर इसमें व्यापक रूप से अल्पसंख्यकों को जानमाल का नुकसान उठाना पड़ा. यह तथ्य है, उसे बदला नहीं जा सकता. आरोप हैं कि सबकुछ राज्य सरकार के संरक्षण में हुआ था. तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कई इंटरव्यूज  में सवालों का सामना कर चुके हैं. सवाल जितने तीखे हो सकते हैं उतने पूछे गए. इंटरव्यूज को यूट्यूब पर देखा जा सकता है.

नरेंद्र मोदी का तो यह भी कहना था कि उस वक्त गुजरात के तीन पड़ोसी राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी. दंगों को नियंत्रित करने के लिए हमने पुलिस मदद मांगी पर नहीं मिली. खैर ये राजनीतिक बातें हैं. मगर इस सच को तो खारिज नहीं किया जा सकता कि गुजरात में दंगे नहीं हुए थे और क़ानून व्यवस्था के मोर्चे पर मौजूदा सरकार विफल थी. लेकिन यह कहना कि गुजरात दंगों के बाद पूरा देश और सिस्टम चुपचाप बैठा रहा- सरासर गलत है. विपक्ष छोडिए, भाजपा में भी एक धड़ा राज्य सरकार का विरोध कर रहा था. देशभर के मीडिया ने पूरी आक्रामकता से गुजरात दंगों को कवर किया. टीवी, प्रिंट हर जगह प्रमुखता से चीजों को लिखा गया. सेना देर से पहुंची, पर सेना ने ही दंगों को नियंत्रित किया. तमाम दलों, गांधीवादी कार्यकर्ताओं और सिविल सोसायटी के लोग भी गुजरात पहुंचे. दर्जनों मार्च हुए और लगभग सभी जिम्मेदार संस्थाओं ने वाजिब प्रतिक्रिया दी. देश ने गुजरात के पीड़ित मुसलमानों को अकेला नहीं छोड़ा था.

the-kashmir-files-bu_032022084449.jpgअनुपम खेर. 

गुजरात की तरह जो दूसरे उदाहरण दिए जा रहे उनमें भी अकेला छोड़ने का तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता. द कश्मीर फाइल्स से असहमत होना चाहिए. किसी मुद्दा आधारित फिल्म का मकसद संवाद और समाधान है. ईमानदारी से कहें तो विवेक अग्निहोत्री के फिल्म की कमी भी यही है कि इसमें सिर्फ संवाद भर है. लेकिन ऐसा कहना कि देश के दूसरे कत्लेआम पर सिनेमा, राजनीति और मीडिया का रवैया कश्मीरी पंडित और द कश्मीर फाइल्स की तुलना में ज्यादा खराब रहा- पचाने लायक नहीं. जो गुजरात दंगों पर फिल्म नहीं बनने की पीड़ा जाहिर कर रहे, उन्हें पता होना चाहिए कि घटना के दो-तीन साल बाद ही फ़िल्में और वृत्तचित्र बनने शुरू हो गए थे. अनगिनत फ़िल्में, रिपोर्ट और किताबें हैं.

शाहरुख के हिस्से के गुजरात में एक खूंखार अपराधी महामानव दिखता है

शाहरुख खान से लेकर हंसल मेहता तक ने सिनेमा के मास और क्लास दोनों धाराओं में एक फिल्म मेकर के तौर पर अपनी जिम्मेदारी निभाई. चांद बुझ गया, रईस, परजानिया, फिराक और काई पो चे इसी कड़ी में बनी चर्चित फ़िल्में हैं. जाइए बैठिए और इन फिल्मों को देखिए. सभी फ़िल्में 2005 से 2017 के बीच बनाई गई हैं. फिल्मों में मेकर्स ने अपनी जरूरत के हिसाब से गुजरात दंगों का संदर्भ लिया है. कुछ तो पूरी तरह से केंद्रित हैं. ऐसी फ़िल्में आगे भी बनेंगी और अगर कोई कहानी कही जाने लायक है तो उसे बनाया ही जाना चाहिए. लोगों ने अपने हिस्से का गुजरात बनाया है. शाहरुख की रईस तो पॉपुलर धारा में एक केस स्टडी ही है.

यह फिल्म अब्दुल लतीफ़ नाम के एक अपराधी की बायोपिक है. कहते हैं कि ऐसा कोई अपराध नहीं था जो अब्दुल लतीफ़ के नाम ना दर्ज हुआ हो. वह समूचे गुजरात में अवैध शराब के कारोबार का बेताज बादशाह था. 1993 के मुंबई बम धमाकों में भी अब्दुल लतीफ़ का नाम आरडीएक्स सप्लाई करने वाले प्रमुख साजिशकर्ताओं में था. हालांकि अब्दुल लतीफ़ की मौत गुजरात दंगों से बहुत पहले साल 1997 में एक पुलिस एनकाउंटर में हो गई थी, बावजूद फिल्म में गुजरात के उसी हिंदू-मुस्लिम टकराव का प्रतीकात्मक इस्तेमाल किया गया जो साल 2002 के बाद और उससे कुछ महीने पहले नजर आने लगा था. एक नैरेटिव जो मैंने फिल्म बनने से काफी पहले सुना था कि गुजरात में हिंदू-मुस्लिम के बहाने से अल्पसंख्यक सिर्फ इसलिए निशाना बनाए गए क्योंकि तमाम कारोबारों पर उनका कब्जा था. रईस में आपको यह संदर्भ उसी रंग में मिलेगा. ज्यादा गाढ़ा और ज्यादा चटक.

हत्याएं करने वाला आतंकी किसी समाज का हीरो कैसे बन सकता है?

ताज्जुब होता है कि गुजरात दंगों से पांच साल पहले मार दिए गए अपराधी की कहानी को भी मानवीय दिखाने के लिए ऐसे संदर्भों का इस्तेमाल किया गया जिसका संबंध ही नहीं था. मजेदार यह है कि शाहरुख की रईस बॉलीवुड की शुद्ध मसाला फिल्म थी जो 2017 में रिलीज हुई. शाहरुख का किरदार अब्दुल लतीफ़ से ही प्रेरित बताया जाता है. समझ में नहीं आता कि एनकाउंटर में मारे गए एक दुर्दांत अपराधी को 'जननायक' बनाने के लिए गुजरात के राजनीतिक हालात का संदर्भ क्यों ही लेना पड़ा? अब्दुल लतीफ़ या विकास दुबे जैसा खतरनाक अपराधी किसी समाज का हीरो कैसे हो सकता है?

यह कहना कि देश के तमाम नरसंहारों पर देश ने प्रतिक्रिया नहीं दी, बिल्कुल गलत है. राजनीतिक दलों के साथ मीडिया भी कभी पीछे हटता नहीं दिखा है. ऐसी कोई घटना नहीं है जिसे व्यापक रूप से राष्ट्रीय मीडिया ने कवर ना किया हो. लेकिन अगर इसी बिना पर कश्मीर के हालात को देखें तो भारी शून्य नजर आता है. दिक्कत यही है कि बस इतनी सच्चाई स्वीकार करने की क्षमता नहीं है आपमें. 1990 में क्या हुआ था, इस बारे में ठीक-ठीक बात करने को अभी भी कोई तैयार नहीं है. लोगों की किस तरह हत्याएं हुईं, स्थानीय प्रशासन क्या कर रहा था, कश्मीर को रीप्रजेंट करने वाले नेता क्या कर रहे थे, और सबसे अहम घाटी से बाहर शेष भारत वहां के हालात से क्यों नहीं परिचित हुआ- इन सवालों का जवाब कोई नहीं खोजना चाहता. उल्टे तमाम घोषित विद्वानों के तर्क नरसंहारों को जस्टिफाई करते नजर आ रहे हैं. जी हां, जस्टिफाई.

anupam-the-kashmir-f_032022084535.jpgअनुपम खेर और मिथुन चक्रवर्ती.

सवाल तत्कालीन प्रधानमंत्री, गृहमंत्री से पूछने की बजाय सरकार को बाहर से समर्थन देने वाले दल से पूछा जा रहा है. करीब करीब वैसे ही कि महंगाई के मुद्दे पर सीधे वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री से सवाल पूछने की बजाय सरकार को समर्थन देने वाले किसी दल पर सारी जवाबदारी तय कर दें. विद्वतों की फ़ौज बिल्कुल इसी तरह जगमोहन और भाजपा को ब्लेम कर रही है. कुछ तो इतने दिवालिया नजर आ रहे कि सीधे फारुख अब्दुल्ला, मुफ्ती मोहम्मद सईद से सवाल पूछने की बजाय जम्मू कश्मीर के चुनाव में गड़बड़ी का तर्क दे रहे हैं. वह यह नहीं कह पा रहे कि कश्मीर पर नियंत्रण के लिए तीन परिवारों ने मिलकर क्यों उसे कब्रगाह बना दिया? लेकिन उन्हें यह कहते सुना जा सकता है कि सैयद सलाऊद्दीन को बेईमानी से ना हराया गया होता तो 19 जनवरी 90 को जो कुछ हुआ वह कभी नहीं होता. चुनाव हारने के बाद सलाऊद्दीन और उसके समर्थकों में लोकतंत्र को लेकर अचानक से अविश्वास जगा. बाद में नतीजा अनगिनत नरसंहारों के रूप में सामने आता है. असल में यह दंगाई विश्लेषण है.

दंगाई विश्लेषकों को हैरान होना चाहिए कि यूपी में चुनाव बाद नरसंहार क्यों नहीं हुए?

'दंगाई विश्लेषकों' की विवेचना के आधार पर तो उत्तर प्रदेश में भी दंगे हो जाने चाहिए. अखिलेश यादव और उनके साथी नेताओं ने सरेआम चुनाव में धांधली के आरोप लगाए हैं. मगर सपा का काडर राइफल उठाकर नरसंहार नहीं कर रहा.आगे भी नहीं करेंगे. फिर सोचने वाली बात है कि कश्मीर में ऐसा क्यों हुआ? 'गोदी मीडिया' के नाम पर चौबीस घंटे रोना रोने वालों को गिरेबान में झाकना चाहिए और पूछना चाहिए कि 90 के दौर में वहां के स्थानीय अखबारों में गैर-मुस्लिमों के भाग जाने की धमकियों के विज्ञापन अज्ञात स्रोतों से कैसे छाप दिए गए? उस वक्त तो चौथा खम्भा स्वर्णकाल जी रहा था. किन किन संपादकों ने ऐसा होने दिया. कश्मीर में चौथे पाए क्यों हिले हुए थे अपने स्वर्णिम दौर में. क्या कल्पना की जा सकती है कि जातीय और धार्मिक आधार पर किसी समुदाय को धमकाने वाला कोई विज्ञापन आज भी अखबारों में छपवाया जा सकता है? कोई प्रेस विज्ञप्ति किसी भी मुख्यधारा के अखबार में छाप दी जाएगी जिसमें गैर मुस्लिमों या किसी भी धार्मिक समूह को सीधे-सीधे कश्मीर छोड़ने वर्ना सजा भुगतने की धमकी दी गई हो.

सहमत होना या ना होना अलग बात है. लेकिन द कश्मीर फाइल्स में विवेक अग्निहोत्री ने कई चीजें संवादों के जरिए कही हैं जिनके मायने निकलते हैं. फिल्म के आख़िरी हिस्से में यासीन मलिक और बिट्टा के किरदारों से प्रेरित आतंकी का संवाद है- "नेहरू और वाजपेयी तो मोहब्बत की भाषा बोलते थे. आपका ये पीएम तो डर की भाषा बोलता है." भला उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी से बड़ा जिम्मेदार कौन भाजपाई हो सकता था. असल में सवाल भाजपा की उसी पीढ़ी से भी है कि तब आप क्या कर रहे थे. आप तो सरकार के साथ थे न. यह सवाल उन सामजिक न्याय के अगुआ नेताओं से भी है कि मानवीय मूल्यों की दुहाई देने वाले आप लोग सरकार के ताकतवर नेता/हिस्सा थे, लेकिन क्या कर रहे थे? अपना देश या अपनी जाति या अपनी कुर्सी. आत्म मंथन का वक्त है. देखिए मौजूदा स्थिति के कहीं आप भी तो जिम्मेदार नहीं?

बॉलीवुड ने सामजिक राजनीतिक विषयों को प्रोपगेंडा से अलग कब बनाया है, लिस्ट दीजिए

द कश्मीर फाइल्स को प्रोपगेंडा भी मान लिया जाए, भारतीय सिनेमा में कितनी सामजिक-राजनीतिक फिल्मों को आप प्रोपगेंडा से बाहर रखने का दावा कर सकते हैं. एक भी फिल्म नहीं मिलेगी, क्योंकि हमने प्रोपगेंडा ही बनाया है. जहां गुंजाइश भी नहीं थी उन सच्ची कहानियों को भी हमने प्रोपगेंडा बना दिया. यहां तक कि दुनियाभर में तारीफ़ बटोरने वाली 'जय भीम' जैसी उम्दा फिल्म भी इससे बच नहीं पाई. क्या आपने कभी सवाल किया कि जयभीम में जो कहानी दिखाई गई है उस वक्त तमिलनाडु में कौन नकारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा था और विपक्ष में कौन था? सवाल पूछने को लेकर ईमानदार नहीं थे. किसी ख़ास संदर्भ में संवाद भर करना चाहते थे. वो किया. और इसके लिए विक्टिम का उत्पीड़न करने वालों की जाति सुविधा के अनुसार बदल दिया.

सामाजिक अमानवीयता से उपजे विनाश के बाद का संवाद और समाधान ही किसी समाज को आगे लेकर जाता है. दुनिया का हर समाज ईमानदारी से बात करके आगे बढ़ता है. दलितों पर हुए अत्याचार और उनके खिलाफ ज्योतिबा फुले से लेकर डॉ. भीमराव अंबेडकर के संघर्ष और उससे उपजे संवाद की वजह से आज हालात थोड़े सामान्य स्तर पर दिखते हैं बावजूद कि दलितों की पीड़ा अभी ख़त्म नहीं हुई. कहीं ऐसा तो नहीं कि आप के 'कुतर्क' अंधेरी सुरंग में झोकने का कारण बन रहे हैं.

सालों पहले राष्ट्रीय पत्रिका में कश्मीर पर पढ़ी गई उस रिपोर्ट पर मुझे आज हंसी आ रही है जिसमें सरेंडर करने वाले तीन चार भारत विरोधी कश्मीरी हिंदू मिलिटेंट की कहानी पढ़ कश्मीर को लेकर मेरी अलग धारणा बनी थी. कश्मीर की यही रिपोर्ट मुझे याद है. इस रिपोर्ट से पहले तक मैं घाटी में हुए नरसंहारों की कोई कहानी नहीं पढ़ पाया था. शायद वो मुझतक पहुंची ही नहीं. शायद वो याद रह जाने लायक कहानियां ही नहीं थी. गलती मान लेने से कोई छोटा नहीं होता. दिल बड़ा करिए. गलत पर परदा डालकर भविष्य में नरसंहारों का आधार तैयार करना चाहते हैं या फिर सच में समाधान खोजना चाहते हैं. फैसला लेने वक्त है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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