पद्मावत: करणी सेना, भंसाली और जवाब का इंतजार करते ये 5 सवाल
संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत पर चल रहा बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा. मगर फिल्म देखने पर मिलता है कि इस बवाल का उद्देश्य राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है.
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''सारा मसला ख्वाहिशों का है''- पद्मावत का पहला डायलॉग. एक ओर भंसाली की सिनेमाई तो दूसरी ओर करणी सेना की राजनीतिक ख्वाहिशें हैं. इस पूरे मसले को 5 सवालों के जरिये समझने की कोशिश करते हैं.
भंसाली क्यों रानी पद्मावती पर फ़िल्म बनाना चाहते थे? क्या राजपूतों के गौरवशाली इतिहास को मनोरंजक बनाकर पैसा कमाना चाहते हैं?
भंसाली के लिये इतिहास पर फ़िल्म बनाना कोई नई बात नहीं है. वे ऐसे विषय को अपनी कहानी का आधार बनाते हैं जिसमें उन्हें भव्यता का एक पूरा संसार रचने का मौका मिले. पद्मावत में उन्हें प्रेम, रूप, शौर्य, युद्ध, वहशीपन और इतिहास सब कुछ मिला. भंसाली जैसे कलासाधक बिरले ही होते हैं, जो अंगारों पर चलकर उस यश तक पहुंचते हैं, जिसकी कामना हम सब में है. ये यश उनकी फिल्मों की तरह ही ऐतिहासिक होता है. कला की पूंजी से धन संपदा बटोरने की सस्ती चालें उन्हें नहीं आती. उनका अपना इतिहास इतना खंडित और वेदना से भरा रहा है कि वे इतनी भव्य फिल्मों के सागर में नहीं डूबेंगे तो खुद में डूबकर मर जायेंगे.
भंसाली की फिल्म पर चल रहा बवाल खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है
करणी सेना और अन्य राजपूत संगठनों के विरोध की मंशा क्या है?
राजस्थान और मध्यप्रदेश में इसी साल दिसंबर में चुनाव हैं. राजपूतों के तमाम नेता पद्मावत को मोहरा बनाकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं. फ़िल्म से इन्हें कोई लेना देना नहीं. विरोध कर मीडिया डिबेट्स में जगह बनाना और फ्रीफण्ड की पब्लिसिटी पाना इनका मकसद है. यही कारण है कि राजपूत करनी सेना के संस्थापक लोकेंद्र सिंह कलवी 4 महीने में फ़िल्म नहीं देख पाए, जबकि भंसाली उन्हें कई बार आमंत्रित कर चुके हैं. वे फ़िल्म देखना ही नहीं चाहते थे. अभिषेक सोम, सूरजपाल सिंह जैसे नेताओं में टीवी पर आने की होड़ मची थी. हिंसा को हथियार बनाकर ये इस विरोध को जिंदा रखना चाहते थे.
क्या फ़िल्म में ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ हुई है? इसे मसाला बनाने की कोशिश की गई है?
भंसाली ने पद्मावत की सिर्फ मूल कहानी ली है, जिसमें 3 ही किरदार हैं. पद्मावती, राजा रतन सिंह और खिलजी. फ़िल्म की अपनी सीमाएं हैं. इसे हर दर्शक वर्ग के लिये आवेगपूर्ण बनाए रखने के उद्देश्य से थोड़ी बहुत बदलाव की स्वतंत्रता कलाकार का अधिकार है. यह तर्क भी निर्देशक के पक्ष में दिया जा सकता है कि कहीं भी रानी पद्मावती का सर्वमान्य् इतिहास नहीं मिलता. अभी तक रानी पद्मावती पर जितनी भी फिल्में बनीं, सभी में अलग-अलग घटनाक्रमों के साथ कहानी पेश की गई. जहां तक राजपूतों के शौर्य और स्वाभिमान की बात है तो जितना इसका ख्याल भंसाली ने रखा शायद ही अन्य निर्देशक रख पाए. ये फ़िल्म राजपूतों का सीना चौड़ा कर देती है.
भाजपा शासित राज्य क्यों इस विरोध को संरक्षण दे रहे हैं?
उनके सामने और कोई चारा भी नहीं है. राजपूतों को हिंदुत्व का चोला पहनाकर और खुद को उनके इतिहास का संरक्षक बताकर भाजपा अच्छा खासा वोट बैंक तैयार करना चाहती है. लेकिन ये सिर्फ एक भरम ही है.ये खोखला गठबन्धन बहुत जल्दी टूटता दिख रहा है. राजपूत समझ चुके हैं कि एक ओर उन्हें तुष्ट किया जा रहा है, तो दूसरी ओर मुकेश अंबानी को ( जिनकी कम्पनी बायकॉम 18 पद्मावत की निर्माता है). इसलिये भाजपा फसाद की छूट देकर करणी के कार्यकर्ताओं का मन भरने में लगी है. राजपूतों के विरोध को संघ से भी परोक्ष सर्मथन प्राप्त हुआ, जो एक मुस्लिम शासक का सिर्फ चर्चा बटोरना भी स्वीकार नहीं कर पाया.
फ़िल्म कैसी है?
मास्टर पीस. जितनी खूबसूरती से मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावत लिखा, उतनी ही खूबसूरती से उसे भंसाली ने फिल्माया. हालांकि, लेखनी का खुला संसार है और कैमरे की अपनी सीमाएं. फिर भी पद्मावत में मोटे तौर पर हर बात शामिल है. हर किरदार में एक अपना गुरूर दिखता है. संवाद तीखे और अर्थपूर्ण हैं. जगमगाते महल और रण में उड़ती धूल ऐसी दिखती है जैसे आप उस दौर में पहुंच गए हो और सब आंखों के आगे देख रहे हों. रणवीर अपने किरदार में इस तरह डूबे हैं जैसे ताउम्र के लिये खिलजी ही बन गए हों.संगीत, सेट और श्रृंगार भी उम्दा.
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