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Updated: 17 अक्टूबर, 2021 03:46 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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हाल ही में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आई सिद्धार्थ मल्होत्रा की फिल्म शेरशाह ने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जबरदस्त कामयाबी हासिल की थी. फिल्म की कहानी कारगिल वॉर हीरो और अमर शहीद कैप्टन विक्रम मल्होत्रा के जीवन से प्रेरित थी. शेरशाह की कामयाबी के बाद अब राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके निर्देशक संजय पूरन सिंह चौहान एक आर्मी वेटरन और वॉर हीरो मेजर जनरल (रिटायर्ड) इयान कारडोजो की कहानी, गोरखा परदे पर ला रहे हैं. इयान कारडोजो की भूमिका अक्षय कुमार निभाएंगे. इससे पहले अक्षय ने धर्मा प्रोडक्शन की केसरी में ब्रिटिश इंडिया आर्मी के एक वॉर हीरो की भूमिका निभाई थी. फिल्म ने जबरदस्त सफलता हासिल की थी.

विजयादशमी के दिन गोरखा की अनाउंसमेंट की गई. फिल्म से अक्षय कुमार का पहला लुक पोस्टर भी जारी हो चुका है. सेना की वर्दी में मेजर इयान के रूप में अक्षय का आक्रामक अंदाज दिखा. उनके हाथ में खुकरी थी जो गोरखा सिपाहियों की ख़ास पहचान से जुड़ी है. गोरखा को आजादी के 75वें अमृत महोत्सव के मद्देनजर बनाया जा रहा है. निर्माण अक्षय के साथ अतरंगी रे और रक्षाबंधन बनाने वाले आनंद एल रॉय के साथ हिमांशु शर्मा कर रहे हैं. गोरखा जिस आर्मी वेटरन की कहानी है आइए उनके बारे में कुछ बातें जानते हैं.

भारतीय सेना की जांबाजी का क्यों दूसरा नाम हैं कारडोजो

मेजर जनरन इयान कारडोजो की कहानी भारतीय सेना की जांबाजी का जीता जागता उदाहरण है. भारतीय सेना के वॉर वेटरन कारडोजो ने पाकिस्तान के साथ हुई 1965 और 1971 की जंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कारडोजो का जन्म मुंबई में हुआ था. उनकी पढ़ाई-लिखाई यहीं के प्रतिष्ठित सेंट जेवियर्स में हुई. यहां से निकलने के बाद उन्होंने नेशनल डिफेन्स अकेडमी से ग्रैजुएशन किया और फिर इंडियन मिलिट्री अकेडमी जा पहुंचे, जहां से उन्होंने फ्रंटियर फ़ोर्स गोरखा राइफल्स जॉइन किया. कारडोजो  भारतीय सेना के सर्वाधिक प्रतिभाशाली अफसरों में से एक माने जाते हैं. वे देश के पहले एनडीए कैडेट थे जिन्होंने गोल्ड और सिल्वर हासिल किया. बेस्ट ऑल राउंड पर फोर्मेंस के लिए उन्हें कैडेट ऑफ़ द पासिंग आउट कोर्स में गोल्ड मिला.

gorkha-akshay-kumar-_101621062448.jpgमेजर जनरल रिटायर्ड इयान कारडोजो (फोटो-विकिपीडिया) और गोरखा में अक्षय कुमार.

पाकिस्तान के साथ 71 की जंग और कारडोजो की बहादुरी

1971 में जब देश पाकिस्तान के जंग में था कारडोजो वेलिंगटन के डिफेन्स सर्विस स्टाफ कॉलेज में कोर्स कर रहे थे. उनकी बटालियन 5 गोरखा राइफल्स को पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तान के साथ भीषण युद्ध में लगा हुआ था. हर तरफ अफरा-तफरी का माहौल था. आमने-सामने की एक जंग में बहादुरी से डंटे बटालियन के सेकेंड इन कमांड अफसर शहीद हो गए. बटालियन को लीड करने वाला कोई नहीं था, तब आनन फानन में कारडोजो को शहीद अफसर की जगह लेने का आदेश मिला. कारडोजो बटालियन जॉइन करने के लिए तत्काल पहुंचे और इस तरह सिलहट की जंग में सेना के पहले हेलिबोर्न ऑपरेशन को अंजाम दिया गया. गोरखा बटालियन के सैनिकों के बीच कारडोजो 'कारतूस' के नाम से मशहूर थे.

हालांकि इस जंग में कारडोजो ने निजी स्तर पर भारी कीमत चुकाई. दरअसल, पूर्वी मोर्चे पर जंग के दौरान वे एक लैंड माइन की चपेट में आ गए. बहुत बड़ा धमाका हुआ. कारडोजो बच तो गए मगर उनका एक पैर बहुत बुरी तरह से जख्मी हो गया था. उन्हें तत्काल मेडिकल हेल्प की जरूरत थी. उस वक्त उंके या साथियों के पास ना तो मार्फीन थी और ना ही दूसरी दवाएं जिससे कारडोजो का प्राथमिक इलाज किया जा सकता था. कारडोजो की जान खतरे में थी. घाव के संक्रमण से उनकी मौत तक निश्चित थी. ऐसे में पैर काटना ही कारगर विकल्प था.

सैनिक की हिम्मत नहीं पड़ी पैर काटने की, खुद काटना पड़ा

मेजर कारडोजो ने बटालियन के साथियों लो पैर काटने का आदेश दिया. हालांकि ऐसा करने की हिम्मत कोई सैनिक नहीं जुटा पाया. इसके बाद कारडोजो ने खुद खुकरी मांगी और अपना पैर काट दिया. यहां कहने सुनने में चीजें जितनी आसान लग रही हैं, जंग में इसकी कल्पना करना और उसे भोगना एक रूह कंपा देने वाला अनुभव है. जब कारडोजो ने पैर काट दिया तो कुछ देर बाद उनकी यूनिट ने एक पाकिस्तानी सर्जन मेजर मोहम्मद बशीर को पकड़ लिया. बशीर ने बाद में कारडोजो का जरूरी इलाज किया.

हादसे के बाद कारडोजो का जीवन बदल गया था और उन्हें एक कृतिम लकड़ी के पैर का सहारा लेना पड़ा. हालांकि अपंगता ने उनके सैन्य मनोबल को तनिक भी नुकसान नहीं पहुंचाया बल्कि उनका जज्बा पहले की तरह ही बरकारार था. वो खुद को सेना में ही देख रहे थे. मगर शारीरिक रूप से अक्षम सैनिकों को बटालियन से रिटायर कर दिया जाता था. भला कारडोजो हार मानने वाले अफसरों में कहां थे. देश सेवा का जज्बा ऐसा था कि वो सेना से बाहर जाने को तैयार ही नहीं थे. पैर गंवाने के बावजूद उनकी फिटनेस बरकरार थी. यहां तक कि शारीरिक रूप से सक्षम सैनिकों से भी वो आगे थे. हादसे के बाद उन्होंने बैटल फिटनेस टेस्ट में सक्षम सैनिकों को भी मात दे दी. बावजूद सेना में बने रहने के लिए काफी कोशिश करनी पड़ी.

मामला बनता ना देख कारडोजो अपना केस तत्कालीन चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ के सामने ले गए. उन्होंने कारडोजो को समझाया. मगर जब वो मानते नहीं दिखे तो चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ ने उन्हें अपने साथ लद्दाख चलने को कहा. शायद वे उनकी फिजिकल फिटनेस को परखना चाहते थे. चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ ने लद्दाख के दुर्गम भौगोलिक इलाके में पाया कि पहाड़ों और बर्फ के बावजूद मेजर जनरल को चलने में कोई परेशानी नहीं हो रही है. वे बिल्कुल सामान्य दिख रहे थे. लद्दाख यात्रा के बाद उन्हें बटालियन कमांड करने की अनुमति दे दी गई. बाद में मेजर जनरल कारडोजो की उल्लेखनीय सेवाओं के लिए उन्हें ब्रिगेडियर के रूप में प्रमोट किया गया. इस तरह कारडोजो पहले भारतीय डिसेबल्ड ऑफिसर भी हैं जो अपने आप में अनोखी और बहादुरी से भरी कहानी है.

सेना में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए कारडोजो को कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है. कारडोजो की अगली पीढ़ी भी सेना में सेवाएं दे रही है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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