होली के त्योहार में 'गुलमोहर' मानवीय एहसासों का खूबसूरत दस्तावेज है
आज हर कोई, बच्चा या जवान या बुजुर्ग, अपनी अपनी जद्दोजहद से बाहर निकलने की कोशिश में लगा हुआ है लेकिन संकोच इस कदर हावी है कि एक दूसरे से शेयर नहीं करता. इसी अनकहे रहने की स्थिति से उपजी कहानी है एक छत के तले रह रहे तीन पीढ़ियों के बत्रा परिवार की.
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किसी शायर ने खूब कहा था, 'रस्म-ए-दुनियां भी है, मौका भी है दस्तूर भी है.' मौसिकी में अक्सर गुलमोहर का जिक्र होता है. गुलमोहर एक खास तरह के फूलदार वृक्ष होते हैं जिन्हें सौंदर्य तथा शांति का प्रतीक माना जाता है. कहते हैं गुलमोहर के वृक्ष के तले स्वर्ग का एहसास होता है, मनुष्य को आज़ादी का अनुभव भी करवाता है. फिल्म की कहानी 'संकोच' की कहानी है, ना कह पाने की कहानी है. मुकम्मल काफी भी हो ये जरूरी तो नहीं है कि पूरा है. यदि प्रेम हो तो संकोच न करना, कह देना निःशंक 'मैं प्रेम में हूं', क्योंकि कहना जरूरी होता है होने से एक रत्ती अधिक एक सूत ज्यादा! अपने को पूरे से ज़्यादा बनाने के लिए अपने होने को कहना जरूरी है.
डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज हुई गुलमोहर में शर्मिला टैगोर और मनोज बाजपेयी
आज हर कोई, क्या बच्चा क्या जवान और क्या ही बुजुर्ग, अपनी अपनी जद्दोजहद से बाहर निकलने की कोशिश में लगा हुआ है लेकिन संकोच इस कदर हावी है कि एक दूसरे से शेयर नहीं करता. इसी अनकहे रहने की स्थिति से उपजी परिस्थितियों से राब्ता कराती एक छत के तले रह रहे तीन पीढ़ियों वाले परिवार की कहानी है फिल्म 'गुलमोहर' जिसे देखना एक खूबसूरत एक्सपीरियंस सरीखा है.
आखिर तक बांधे रखने में सफल इस परफेक्ट फैमिली ड्रामा के लिए पूरी मेकर्स टीम बधाई की पात्र है, लेकिन फिल्म कमर्शियल नहीं है और भविष्य में इसे न चलने की वजह से आर्टिस्टिक कहना पड़ा तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. मौजूदा समय में टूटते संयुक्त परिवारों की उलझनों से लेकर उनकी चुनौतियों तक का बेमिसाल चित्रण फिल्म में इसलिए है चूंकि ऑटो मोड में है.
ज्ञान बघारने की कोई कोशिश नहीं है, ना ही किसी किरदार को अच्छा या बुरा बताया गया है, सबकी अपनी अपनी कशमकश है, अपनी अपनी ही जद्दोजहद भी है बाहर निकलने की. कुल मिलाकर हर किरदार खुद को बदलता है और स्वीकार्य भी होता है. सोने पे सुहागा सरीखा ही है फैमिली के नौकरों के बीच चल रही प्रेम कहानी के दिलचस्प प्लॉट का क्रिएशन भी.
जब फिल्म शुरू होती हैं, 10-15 मिनटों के लिए इतने सारे किरदारों के एक साथ फ्रेम में लिए जाने की वजह से बोझिल सी प्रतीत होती है परंतु फिर जब फिल्म लय पकड़ती है, एक तरह से बहा ले जाती हैं. बड़े ही सलीके से बिना किसी अतिरंजना के हर किरदार की असुरक्षा की भावना को यूं उकेरा गया है कि तुरंत कनेक्ट हो ही जाता है.
एक और बात, बहुत चालू तरीके से कहे जाने वाले 'जब जब जो होना है तब तब सो सो होता है' को बदलकर'...was meant to be" कहना लुभाता है. कहने का मतलब पूरी फिल्म के सारे संवाद, इस बात पर बिना ध्यान दिए हुए कि किसने बोला है, अच्छे बन पड़े हैं और सटीक भी हैं.
मसलन एक संवाद ' ये अच्छा है समझ नहीं आया तो उर्दू बना दिया' का प्रसंग लाजवाब है. हां, परिवार रईस है, जहां रिश्तों का वही हश्र है जो गुलमोहर के फूलों का होता है, गाढे चटख रंग के मानिंद वे खूब खिलते हैं, सजते हैं लेकिन नसीब खिलने के बाद, सजने के बाद, रास्तों पर बिखर जाना होता है.
परंतु यहीं राइडर है कि नसीब ही तो है, अपने हाथ में हैं यदि संकोच छोड़ कशमकश से निकल आये तो मुकम्मल होने में कसर कहां बाकी रहती है? बात करें कलाकारों की तो वन लाइनर बनता है परफेक्ट कहानी पर बनी परफेक्ट फिल्म में वन टू आल सभी एक्टर्स परफेक्ट हैं.
मनोज बाजपेयी ने मिडिल एज बिजनेसमैन, एक जिम्मेदार परंतु बेचैन बाप और चुनौतियों से मुंह नहीं मोड़ने वाले बेटे के रोल में जान डाल दी है. शर्मिला टैगोर को सालों बाद स्क्रीन पर देखना एक बेहद सुखद अहसास है. उनका अपना आभामंडल है. वह परदे पर जब भी आती हैं अपनी तरफ आकर्षित करती हैं. जिस आसानी से शर्मिला ने कुसुम के किरदार को निभाया है उसे देखकर लगता है कि बस वही इस किरदार निभा सकती थीं.
एक और किरदार है फिल्म में कुसुम जी की पोती जिसके साथ दादी की स्टोरी लाइन पूरी कहानी का एक महत्वपूर्ण पक्ष है. हां, मां बेटे यानी कुसुम और अरुण (मनोज वाजपेयी) का रिश्ता भी रोचक है. अरुण का आज्ञाकारी होना कुछ वैसा ही जैसा आज कल हर तक़रीबन 50-55 साल के बेटे का होना है.
विडंबना ही है इस उम्र का पड़ाव जहां एक तरफ तो बेटा अपने पेरेंट्स से सवाल नहीं करता और दूसरी तरफ बेचारगी ही है अपने बच्चों की आज्ञाओं के समक्ष. मतलब अपनी मर्जी कभी न चली और न ही चलाई. अन्य कलाकारों में अमोल पालेकर ने एक तरह से बत्रा अंकल के विलेन नुमा किरदार में बेहतरीन अभिनय किया है, दो एक्टर वर्थ मेंशन है.
एक तो सूरज शर्मा जिसने अरुण बत्रा के बेटे का किरदार निभाया है. अपने जूझते स्टार्टअप को लेकर उसकी पिता के साथ की और अपनी वर्किंग पत्नी के साथ की कशमकश से भरे किरदार को बखूबी निभाया है उसने. दूसरी है सिमरन जिसने अरुण (मनोज वाजपेयी) की पत्नी के किरदार में एक बहू और एक मां को भी जिया है. फिल्म डिज्नी हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही हैं, समयावधि तक़रीबन 2 घंटे 12 मिनट की है. मिस किया तो बहुत कुछ मिस करना ही होगा.
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