बिना कैंपेन फिल्में फ्लॉप हो रही हैं तो मामला गंभीर, दर्शकों से बतियाकर बॉलीवुड क्या कर सकता है?
सितारों के खोखले स्टारडम के झांसे में निर्माता करोड़ों लगाकर उनकी मनमानी चीजों को नॉर्मल करके दिखाते रहे. सिनेमा में जीने मरने वाला हिंदी समाज उनसे इतना आजिज आ गया कि बॉलीवुड अब है भी या नहीं- उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा. बिना बायकॉट कैम्पेन के फ़िल्में फ्लॉप हो रही. निर्माताओं को चाहिए कि अपना उद्योग बचाने के लिए दर्शकों का विचार जाने और उसे लागू करें.
-
Total Shares
अगर बिना किसी बायकॉट कैम्पेन के बॉलीवुड फिल्मों के फ्लॉप होने का सिलसिला नहीं रुक रहा है तो समझ लेना चाहिए कि मामला बहुत, बहुत गंभीर है. 'महा ब्लॉकबस्टर' ब्रह्मास्त्र को छोड़ दिया जाए तो फरवरी से अब तक ना जाने कितनी फ़िल्में सिनेमाघरों में आईं और नंबर लगाकर फ्लॉप होती गईं. ऐसे-वैसे एक्टर नहीं. आमिर खान, अक्षय कुमार जैसे बड़े-बड़े सितारों की फ़िल्में जिन्हें अब से कुछ महीने पहले तक सफलता की गारंटी मानकर निर्माता ब्लैंक चेक पकड़ा दिया करते थे. फ्लॉप होने आली कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो तमाम फिल्मों के खिलाफ बायकॉट कैम्पेन या तो बहुत कमजोर था- उदाहरण के लिए रितिक रोशन सैफ अली खान की विक्रम वेधा और बहुतायत फिल्मों के खिलाफ तो कोई निगेटिव कैम्पेन तक नहीं दिखा- उदाहरण के लिए अमिताभ बच्चन की गुडबाय. बावजूद दोनों फ़िल्में बुरी तरह फ्लॉप हो गईं. विक्रम वेधा और गुडबाय के अलावा कड़ी में दर्जनों फिल्मों का नाम गिनाया जा सकता है.
मौजूदा हालत यह है कि हिंदी बेल्ट में चौराहे चट्टी, ड्राइंग रूम की बहसों, तमाम कार्यालयों की बातचीत हंसी मजाक में बॉलीवुड की फ़िल्में, उसके सितारे पूरी तरह से गायब हो चुके हैं. तारीफ़ छोड़ भी दिया दें तो अब हाल ऐसा है कि अब उनकी आलोचना करने वाले भी नजर नहीं आ रहे. मानो भारतीय सिनेमा में बॉलीवुड जैसी कोई चीज कभी थी ही नहीं. जबकि पहले लोगों के रोजमर्रा के जीवन में अनिवार्य तौर पर घुसा दिखता था. सोते, जागते, घूमते, टहलते बॉलीवुड और उसके सितारों की बातें लोगों के साए की तरह नजर आती थीं. मां से भी प्यार जताने के लिए लोग फ़िल्मी संवाद बोलते थे. अब आसपास ऐसा कहीं कुछ भी दिख रहा है क्या?
रणवीर सिंह की सर्कस क्रिसमस पर और दिवाली में अक्षय की राम सेतु रिलीज होगी.
सारे हथकंडे फेल हो गए, पर असल मर्ज का इलाज नहीं करना चाहता बॉलीवुड
ब्रह्मास्त्र के बाद बायकॉट कैम्पेन भी नहीं दिखा. फिल्मों में जीने मरने वाला वाले समाज में अगर यह स्थिति बन गई है तो बिल्कुल सामान्य घटना नहीं है. कह सकते हैं- बॉलीवुड या तो पूरी तरह ख़त्म हो चुका है. या फिर लगभग खात्मे की कगार पर खड़ा है. हैरानी इस बात की है कि अभी तक बॉलीवुड की तरफ से इससे निपटने की ठोस कोशिश नहीं दिखती. पता नहीं कौन सा घमंड है जो बॉलीवुड के बड़े-बड़े बैनर और फिल्ममेकर्स को जनता से संवाद के लिए रोक रहा है. फिल्ममेकर्स को कभी लगता है कि लोगों की जेब में पैसा नहीं है. इस वजह से सिनेमाघर नहीं आ रहे. दूसरी तरफ दक्षिण की ही इंडस्ट्री से तमाम फ़िल्में 'गरीबी भुखमरी बेरोजगारी' से तबाह मुल्क में छप्परफाड़ कमाई कर रही हैं. फिलहाल कन्नड़ की कांतारा और तमिल की पैन इंडिया पोन्नियिन सेलवन 1 के सिर्फ पहले हफ्ते का बॉक्स ऑफिस देखा जा सकता है.
बॉलीवुड के बड़े फिल्म मेकर्स को यह भी लगा कि मल्टीप्लेक्स में टिकटों की कीमत ज्यादा है. इसे कम कर दिया जाए तो शायद दर्शक आ जाएंगे. कुछ फिल्मों के लिए यह हथकंडा भी अपनाया गया, बावजूद हिंदी सिनेमाघरों की टिकट खिड़की गुलजार नहीं दिखी और कार्तिकेय 2 (तेलुगु), पोन्नियिन सेलवन 1 (तमिल) और कांतारा (कन्नड़) जैसी फिल्मों ने हिंदी बेल्ट में मामूली स्क्रीन मिलने के बावजूद अपना दम दिखाया. इनमें सितारे भी ऐसे नहीं थे जिन्हें हिंदी का दर्शक बहुत पहचानता हो. आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा को सिनेमाघर में देखने लोग आते ही नहीं और फिल्म पहले तीन दिन में ही फ्लॉप हो जाती है. मगर जब वही फिल्म ओटीटी पर आती है तो उसे इतना देखा जाता है कि ग्लोबल ट्रेंडिंग में अंग्रेजी से इतर भाषा में बनी दूसरे नंबर की फिल्म बन जाती है. शायद उन्हीं दर्शकों ने इसे देखा जो सिनेमाघर देखने नहीं गए. दर्शक सिनेमाघर ना जाकर आमिर का विरोध कर रहे थे. किस बात पर? आमिर जानते हैं. दर्शकों के व्यवहार से साफ़ पता चलता है कि बॉलीवुड कुछ भी बना दे, दर्शकों ने कुछ सितारों और बैनर्स को लेकर तय कर लिया है कि सिनेमाघरों में उनकी फिल्म देखेंगे ही नहीं.
स्टारडम के नशे में चूर बॉलीवुड का घमंड टूटा नहीं है अभी
बॉलीवुड सितारों से दर्शकों की घृणा का स्तर पता चलता है. लोगों को बॉलीवुड से क्या समस्या है- पता लगाना मुश्किल नहीं. बावजूद स्टारडम के नशे में चूर हिंदी के कुछ सितारे अब भी संवाद करने की इच्छा नहीं रखते. शायद उनकी आख़िरी उम्मीद यह है कि दक्षिण में राजनीतिक गोलबंदी करके पुराना रुतबा हथिया लेंगे. बावजूद अबतक हिंदी सिनेमा के लिए हमेशा महत्वपूर्ण साबित होने वाले कई त्योहारी वीकएंड बर्बाद हो चुके हैं. अभी दीपावली का त्योहार आने वाला है. इसके बाद क्रिसमस और नए साल की छुट्टियों का लंबा वीकएंड आएगा. सिनेमा कारोबार के लिहाज से दिवाली और क्रिसमस को सबसे बड़ा इवेंट माना जाता है. मगर हिंदी निर्माताओं और सितारों का रवैया बता रहा कि वे चीजें अब भी अपने तरीके से करने की तरफ बढ़ रहे हैं. दर्शकों की स्थायी मनोस्थिति और फिल्म इंडस्ट्री की सक्रियता से यही संकेत मिलता है कि अगर दिवाली और क्रिसमस भी तबाह हो जाए तो हैरान नहीं होना चाहिए. इतना सबकुछ होने के बावजूद कोई दर्शकों से सीधे कनेक्ट होने, उनकी तकलीफ, उनके गुस्से को शांत करने या तवज्जो देने के मूड में नहीं है. जबकि साधनसंपन्न पीआर के सारे हथकंडे, सारे राजनीतिक गठबंधन एक एक कर फेल हो चुके हैं.
निर्माता भूल रहे हैं कि लोग बॉलीवुड से घिनाए बैठे हैं और इसका सिर्फ एक ही उपाय है कि सीधे दर्शकों से ही पूछा जाए- आप बताइए, क्या वाजिब परेशानी है. क्या चाहते हैं आप. उनसे माफी मांगे. और उन गलतियों से तौबा करें जिन्हें सालों से बर्दाश्त करते-करते उनका सब्र जवाब दे चुका है और आज ऐसी हालत बन गई है. सिर्फ दो चार लोगों की वजह से. बॉलीवुड के निर्माताओं को एक प्रतिनिधिमंडल बनाना चाहिए. उन्हें पता है क्यों बनाना जरूरी है? उन्हें यह भी पता है कब, कहां और किससे बात करनी है. कुछ सितारों के गुरुर की वजह से निर्माता, उनके खोखले स्टारडम के झांसे में बैठे रहते हैं तो आने वाले तीन महीनों में बॉलीवुड का बोरिया बिस्तर बंधना तय दिख रहा है. बाद में चीजें ऐसी हो जाएंगी कि उसमें सुधार की गुंजाइश ही नहीं बचेगी और एक आबाद इंडस्ट्री शायद तबाह ही हो जाए. बॉलीवुड को चाहिए कि वह अपने दायरे से बाहर निकले और दर्शकों की तकलीफ सुने. स्टारडम और पैसे के ताकत की हवा निकल चुकी है पूरी तरह. दक्षिण की सफलता का राज भी यही है. वे अपने हर प्रोजेक्ट के लिए ईमानदारी से दर्शकों के बीच जाते हैं उन्हें सुनते हैं.
आपकी राय