'द केरला स्टोरी' प्रोपेगेंडा है, तो 'दहाड़' कौन सी ईमानदार है?
दरअसल व्यूअर्स के ब्रेनवाश के उद्देश्य से ही क्लासिकल साइकोपैथ सीरियल किलर की सच्ची कहानी में तयशुदा एजेंडा के अनुसार लव जिहाद के साथ जातिवाद, राजनीति, दहेज, अपराध, पुलिस जांच के इवेंट्स को पिरोकर परोसा गया है.
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द करेला स्टोरी कैसे प्रोपेगेंडा है, कई विश्लेषण हो चुके हैं, सुप्रीम कोर्ट तक में. हालांकि शीर्ष अदालत ने बंगाल सरकार द्वारा लगाए गए बैन को हटा दिया है और साथ साथ ही तमिलनाडु में चल रहे अघोषित बैन के लिए भी समुचित राहत के निर्देश दे दिए हैं परंतु मेकर्स से कहा है कि डिस्क्लेमर में फिल्म के फिक्शनलाइज़्ड अकाउंट ऑफ़ इवेंट्स होने का भी उल्लेख करे. कहने का मतलब कहे कि फिल्म घटनाओं का काल्पनिक विवरण है. सो घटनाएं घटी, इंकार नहीं हैं. लेकिन घटनाओं की संख्याओं से इंकार है. जहां तक कतिपय लोग घटनाक्रमों को बढ़ा चढ़ाकर दिखाए जाने का आरोप लगा रहे हैं तो रचनात्मकता की स्वतंत्रता का लाभ मिल ही जाता है फिल्म को. हर बार यही तो होता आया है, बशर्ते 'शर्तें लागू' सरीखा डिस्क्लेमर भर दिखा दे जिसे शायद ही कोई व्यूअर देखने की जहमत लेता है.
हालिया रिलीज वेबसीरीज दहाड़ में सोनाक्षी सिन्हा
सही मायने में फिल्म तो जो है सो है, एक मायने में इसे प्रोपेगेंडा बताने से लेकर शीर्ष न्यायालय के निर्णय तक के इवेंट्स इस कदर प्रोपगैंडिस्टिक हो गए हैं कि फिल्म सुपरहिट हो गई है.महज 35 करोड़ की लागत पर द केरला स्टोरी 175 करोड़ प्लस कमा चुकी है. अब बात करें 'खामोश' पुत्री सोनाक्षी सिन्हा की 'दहाड़' वेब सीरीज की. बराबर कसौटी पर कसें तो 'द केरला स्टोरी' सिर्फ 2 घंटे 18 मिनट तक प्रोपेगेंडा फैलाती है जबकि आठ एपिसोडों वाली दहाड़ में प्रोपेगंडा की दहाड़ तक़रीबन आठ घंटे तक गूंजती है.
एक ख़ास बात और 'द केरला स्टोरी' की तरह 'दहाड़' भी सच्ची घटनाओं पर आधारित है, यानी 'घटनाओं का काल्पनिक विवरण' वाला फैक्टर कॉमन है. हां, क्रिएटिव फ्रीडम के मामले में 'दहाड़' काफी आगे है. चूंकि 'दहाड़' भी काफी दिनों से अमेज़न प्राइम पर स्ट्रीम हो ही रही है, रिव्यू विव्यू का चक्कर छोड़ते हैं और एक्सपोज़ करते हैं उन्हें जो किसी फिल्म या कंटेंट को निहित स्वार्थ से सुविधानुसार प्रोपेगंडा बता देते हैं.
दरअसल लॉबी है उनकी. वे किसी का ‘एजेंडा’ चला रहे हैं जिसके लिए 'दहाड़' के अतिरंजित घटनाक्रमों पर जानते समझते हुए भी उन्होंने चुप्पी साधे रखी है. मेकर्स भी उसी लॉबी से है इसीलिए एजेंडा के तहत कंटेंट क्रिएट कर रहे हैं. और लॉबी इतनी सशक्त है कि फिल्म या कंटेंट फ्लॉप भी हो गया तो फर्क नहीं पड़ता. दरअसल व्यूअर्स के ब्रेनवाश के उद्देश्य से ही क्लासिकल साइकोपैथ सीरियल किलर की सच्ची कहानी में तयशुदा एजेंडा के अनुसार लव जिहाद के साथ जातिवाद, राजनीति, दहेज, अपराध, पुलिस जांच के इवेंट्स को पिरोकर परोसा गया है.
यदि 'दहाड़' पर विश्वास करें तो हर हिंदू जातिवादी है. यदि कुछ जाति से ऊपर है भी तो एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर के लिए हैं. 'दहाड़' की मानें तो लवजिहाद का वजूद ही नहीं है, बल्कि हिंदू मुस्लिम की राजनीति करने के लिए नेताओं ने हाइप खड़ा किया है. क्या खूब लॉजिक देती है 'दहाड़' कि हिंदू लड़कियां दहेज़ प्रथा की वजह से एक उम्र के बाद किसी के भी साथ भागने को तैयार है जिसका फायदा उठाकर एक हिंदू साइकोपैथ सबकी हत्या कर देता है.
चूंकि लड़कियां बालिग़ हैं, अपनी मर्जी से गई हैं तो पुलिस गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करने से आनाकानी करती है और इसी तारतम्य में घटनाक्रम यूँ सजाया जाता है कि हिंदू समुदाय झूठे ही मुस्लिम लड़के का नाम ले लेता है, अंदेशा प्रकट कर देता है ताकि लवजिहाद के एंगल की वजह से पुलिस सुनवाई करे. और इस प्रकार प्रोपेगेंडा खड़ा कर दिया कि लवजिहाद काल्पनिक है. सारी समस्या हिंदू की है. वैवाहिक जीवन खुश नहीं है , किसी को बच्चे नहीं करने , किसी की बीवी बहुत बैकवर्ड सोच की है , किसी की बीवी का बाहर चक्कर है, कोई अपनी बीवी को मारे डाल रहा है.
दूसरे समुदाय के एक दो पात्र हैं, बेचारे भोले भाले हैं या फिर बुद्धिमान है. पता नहीं क्यों हर हिंदू पात्र यौन कुंठा क्यों पाले है ? खासकर कामकाजी हिंदू लड़की के संबंध किसी न किसी से होते हैं, फिर भले ही वह शादीशुदा ही क्यों न हो ! हिंदू लड़का आत्मनिर्भर लड़की से शादी नहीं करना चाहता. क्या खूब है पंडित जी 1000 रुपये लेकर ही नीची जाति की लड़की की शादी की बात चलाते हैं.
ऊंचे पद पर बैठा अधिकारी हिंदू है तो कर्रप्ट है, जूनियर है तो चापलूस है और यदि चापलूस नहीं है तो सीनियर अधिकारी गरियाता रहता है. जूनियर लड़की है तो उच्च पद पर बैठे अधिकारी की, चूंकि हिन्दू है, लार टपकती ही रहती है. महिला पुलिस अधिकारी नीची जाति की है तो उसकी हर एंट्री पर तिलकधारी अधेड़ जूनियर अगरबत्ती खेने लगता है, जातिसूचक मेटाफ़र है . कहने का मतलब सारे के सारे संजोग एक ही कहानी में हो जाते हैं. यदि कोई एजेंडा नहीं हो तो क्या ऐसा क्रिएट होगा ?
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