Jai Bhim movie review: सूर्या की फिल्म जयभीम को एजेंडा क्यों न कहा जाए?
अमेजन प्राइम वीडियो (Amazon Prime Video) पर स्ट्रीम हो रही फिल्म जयभीम (Jai Bhim movie) तमिलनाडु में आदिवासी समुदाय पर हुई बर्बरता के अतीत से पर्दा उठाती है. अभिनेता सूर्या (Actor Suriya) ने एक वकील चंद्रू की भूमिका में हैं, जो पीडि़तों को इंसाफ दिलाते हैं. फिल्म सच्ची घटना से प्रेरित है, मगर कई सवाल इसकी वस्तुनिष्ठता को संदेह में लाते हैं.
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देश के न्यायिक इतिहास में साल 1995 में मद्रास हाईकोर्ट में दाखिल एक याचिका ने ना सिर्फ तमिलनाडु बल्कि समूचे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. इसकी जड़ में जो मामला था उसे दुनिया की किसी भी मानवीय व्यवस्था में सर्वोच्च अमानवीयता के रूप में ही देखा जाएगा. उस अमानवीयता के अनुभव से गुजरने के लिए सुरिया की फिल्म जय भीम (Jai Bhim movie) देख सकते हैं या गूगल कर सकते हैं. मुझे भी सुरिया की फिल्म के जरिए पहली बार ईरुला समुदाय और सदियों तक उन लोगों द्वारा झेले गए संत्रास की जानकारी हुई. संत्रास भी ऐसा वैसा नहीं. इसे देख तो कठोर से कठोर हृदय का व्यक्ति तक अमानवीयता के खिलाफ घृणा और निजी पश्चाताप से भर जाएगा. निजी इसलिए कि अब जिम्मेदारियां और जवाबदारी सामूहिक नहीं रह गई हैं.
जयभीम देखने के बाद पहली बार देश की राजनीति खासकर तमिलनाडु में पेरियार की उपलब्धियों को लेकर बुरी तरह से निराशा होती है. उस सिद्धांत को मानना पड़ता है कि हमारी राजनीति और व्यवस्था बस प्रतीक गढ़ती है और देवता बनाती है. हम बुद्ध को भगवान मानकर पूजने तो लगते हैं मगर उनकी बातों का अनुसरण करना भूल जाते हैं. हम दूसरों की गलतियों और अपराध के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं मगर इतना साहस नहीं कि खुद पर सवाल उठाए. और यही वजह है कि बदलाव के नाम पर सत्ताएं सालों-साल हमें प्रतीकों के जरिए बरगलाती रहती हैं. अगर ऐसा नहीं है तो ईरुला समुदाय के साथ हुई ज्यादती कम से कम तमिलनाडु में तो नहीं दिखनी चाहिए थी.
यह वो राज्य है जिसने जातिवाद के खिलाफ सबसे पहले और सबसे सशक्त वैचारिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया दी. लेकिन 1993 में उसका हासिल क्या निकला था? जयभीम का एक दृश्यपेरियार और डाक्टर भीमराव अम्बेडकर के विचारों पर तमिलनाडु की राजनीति का कायाकल्प हो जाता है. सत्ता के शीर्ष पर पेरियार के अनुयायी काबिज होते हैं. द्रविण राजनीति के दो धड़े लगातार सत्ता में बने रहते हैं और उसी राज्य में ईरुला जैसा सबसे हाशिए का समुदाय- इंसान होने तक की हैसियत नहीं रखता. जयभीम फिल्म की कहानी जिस दौर की है, उस वक्त तमिलनाडु की सत्ता में द्रविण पैरोकार जे. जयललिता मुख्यमंत्री थीं. और विपक्ष में द्रविण क्रांतिकारी एम करुनानिधि बैठे थे. क्षमा चाहूंगा. दोनों नेता दिवंगत हो चुके हैं पर वे तब क्या कर रहे थे?
निर्देशक टीजे गणनवेल ने जयभीम जिस एजेंडा को लेकर बनाई है उसके आधार पर एक तर्क यह भी हो सकता है कि मुख्यमंत्री ब्राह्मण थीं. पर सवाल है कि फिर विपक्ष में कौन था? चेन्नई में ईरुला समुदाय के लिए लड़ाई चंदरू (सुरिया, सूर्या) नाम का एक वकील लड़ रहा है जिसके साथ मुट्ठीभर झोलाछाप वामपंथी खड़े हैं. करूणानिधि समेत द्रविण बुनियाद पर टिके विपक्षी धड़े कहां थे? अगर थे तो गणनवेल ने दिखाया क्यों नहीं और नहीं थे तो उनसे अपेक्षा थी कि वो उसकी वजह जयभीम में कहीं बताते चलते.
सोचने वाली बात है कि जिस राज्य में पक्ष-विपक्ष दोनों सिरों पर द्राविण पॉलिटिक्स हावी है वहां का सरपंच कौन और किस जाति का है- जिसकी हनक राजनीति और बड़े-बड़े अफसरों तक है. वह किसी भी लिहाज से मामूली नहीं दिखता. लेकिन गणनवेल ने इन चीजों पर बात नहीं की. जयभीम जिस घटना को लेकर बुनी गई उसमें तत्कालीन द्रविण राजनीति की भूमिका का गायब रहना सीधे-सीधे पुष्ट करता है कि जयभीम दरअसल, एक एजेंडाग्रस्त और प्रोपगेंडा फिल्म है. कुतर्क किए जा सकते हैं पर कोई सवालों से पीछा नहीं छुड़ा सकता. क्योंकि सिर्फ मामूली जाति की वजह से एक समुदाय जिस दौरान हद दर्जे की अमानवीयता का शिकार हो रहा था उससे कई-कई साल पहले तमिलनाडु की राजनीति पूरी तरह से द्रविण विचारधार के अधीन आ चुकी थी. फिर वहां बदला क्या?
जयभीम
क्या यह नहीं माना जाए कि जातिवाद के खिलाफ तमाम सामजिक आंदोलनों की वजह से सत्ता की भागीदारी में फेरबदल तो हुआ मगर वह असल मकसद में नाकाम रहा. पेरियार द्रविण राजनीति के लिए बस प्रतीक बनकर रह गए. और इसका खामियाजा यह हुआ कि वैचारिक बदलाव की बयार में कुछ अगड़ी जातियों की जगह निचले क्रम की जातियों ने ले ली या अगड़ी जाति भी छद्म रूप से निचले पायदान की कुछ जातियों के साथ शक्ति का बंटवारा करते हुए उसी बयार में शामिल हो गया और सबने मिलकर उस बदलाव को एक निश्चित दायरे में अपने से नीचे तक जाने ही नहीं दिया. असलियत में उनका चरित्र भी उसी बुनियाद पर टिका रहा, जिसके आधार पर उनकी राजनीति खड़ी हुई थी. ये जायज सवाल है जिस पर ठोस बहस की बजाय कुतर्क किए जाते हैं जैसे जय भीम में है. जयभीम देखने के बाद मेरे दिमाग में इन चीजों के बनने की वजह नीचे के सात सवाल हैं.
1) ईरुला समुदाय की बदहाली पर तत्कालीन राजनीति की नजर क्यों नहीं पड़ी या पड़ रही थी?
2) जाति क्रम में सबसे हाशिए का समाज मतदाता सूची तक में क्यों दर्ज नहीं हो पाया था?
3) यहां तक कि सरकार की योजनाओं में भी सबसे हाशिए के समाज की कोई भागीदारी नहीं थी?
4) सरकार अगर ईरुला समुदाय के लिए संवेदनशील रही होती तो उसे अपनी गलती मानने से कौन सी बात और किस जाति की ताकत रोक रही थी?
5) कौन सी जाति के नाराज होने का खतरा था जिसे विपक्ष में बैठे ताकतवर दलों ने उठाना मुनासिब नहीं समझा. वह भी तब जब कोर्ट की सुनवाई राष्ट्रीय सुर्ख़ियों का विषय थी ?
6) सरकार की वह कौन सी मजबूरी थी कि मामले का न्यायपूर्ण हल करने की बजाय हैबियस कॉर्पस करने वाले वकील को खरीदने की कोशिश हो रही थी?
7) मुख्यमंत्री की ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि पुलिस के आला अफसर गलती सुधारने की बजाय हर तरह से असमर्थ पीड़ित की पैरवी कर रहे लोगों उनके परिजनों को डरा-धमका रहे थे, उसे खरीदने की कोशिश कर रहे थे?
ये सवाल उस लिहाज से भी अहम हो जाते हैं कि देश में मंडल कमीशन लागू हो चुका था. तमिलनाडु के सभी दल उसके पैरोकारों में थे. तमिल अस्मिता के नाम पर अलगाववाद तक की राह पकड़ने वाले दलों को भी नहीं लगा कि ईरुला समुदाय भी उसी अस्मिता का हिस्सा है जिसकी वे राजनीति करते हैं. एक संवेदनशील विषय पर फिल्म के रूप में जयभीम की बुनावट वैचारिकता को लेकर इससे पहले हाल-फिलहाल तक आई दूसरी तमिल फिल्मों के आगे बेहद मामूली नजर आती है. जातीय वर्चस्व पर तमिल की अन्य फिल्मों में ऐसी परदेदारी नहीं है.
जाति की कड़वी सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता. मगर तत्कालीन राजनीति और उसका सिंडिकेट जो उस घटना के पीछे सबसे बड़ी वजह के रूप में सामने आता है उसे गोलमोल नहीं बल्कि गायब ही कर दिया. गणनवेल ने क्या सोचकर ऐसा किया? 1993 की पूरी घटना सामूहिक निष्क्रियता थी. गणनवेल ने उसे एक पॉइंट पर अटकाकर सीधे आंखों में धूल झोंक दिया. और अब उसी के लिए अपनी पीठ पर शाबासी भी चाहते हैं.
आखिर कब तक हम सामूहिक जिम्मेदारियों से बचते रहेंगे और गैरजरूरी चीजों और प्रतीकों को गढ़कर लोगों को उल्लू बनाने और उन्हें भड़काने का काम करेंगे. ये इलाज तो नहीं है. गणनवेल ने असल में 28 साल पहले हुई घटना के पीछे की चीजों को साफ़ करने की कोशिश ही नहीं की. करना ही नहीं चाहते थे. इसीलिए 28 साल पहले हुई गलती पर कोर्ट का न्यायपूर्ण फैसला आने के बावजूद कोई सामूहिक जवाबदारी तय करने को तैयार नहीं है. जाति के खिलाफ जयभीम के जरिए गणनवेल की कोशिश वैसे ही है कि जैसे आज कोई कहे कि अंग्रेज 100 साल और भारत में रह गए होते तो देश का आधुनिक विकास मौजूदा स्तर के मुकाबले बहुत बेहतर रहता. या फिर ये कि पेट्रोल की बढ़ी कीमतों के लिए जवाहरलाल नेहरू का प्रधानमंत्री बनना जिम्मेदार है.
जिन्हें लगता है कि गणनवेल ने जयभीम के जरिए मानवीय आधार पर समाज के जातीय ढांचे और सत्ता सिस्टम के जातिवादी सिंडिकेट पर तीखा प्रहार किया है असल में वे जातिवाद पर ही टिके घृणा के कारोबार में शामिल लोग हैं. वे किसी जाति के वर्चस्व को ख़त्म करने की वकालत नहीं करते बल्कि समानांतर एक अन्य जाति के वर्चस्व में निजी अवसर तलाश रहे लोग हैं. गणनवेल भूल गए कि जातिवादी व्यवस्था में हर जाति की पीड़ा का अनुभव दूसरों से बिल्कुल अलग है. पीड़ाओं को एक लकीर में रखा ही नहीं जा सकता.
और इसी वजह से वजह से ऑस्ट्रेलिया से नस्ली टिप्पणी का सामना कर चुके हमारे ही क्रिकेटर आईपीएल में अपने कैरेबियाई साथी को "कालू" बुलाते हैं.
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