जावेद साहब, RSS से तुलना कर आप 'तालिबान' को मान्यता दे रहे हैं!
कम से कम जावेद साहब से इस तरह उम्मीद नहीं की थी. तमाम अराजक मुस्लिम बुद्धिजीवियों की तरह आरएसएस की आलोचना के बहाने जावेद अख्तर भी तालिबान का सपोर्ट कर रहे हैं और उसे जायज बता रहे हैं.
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अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी के बाद देश में भी एक वर्ग जश्न मनाता दिखा. नसीरुद्दीन शाह ने जश्न मनाने वालों की जमकर मुखालफत की. हालांकि इसके लिए उन्हें एक जिम्मेदार और संवेदनशील मुस्लिम तबके की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. हकीकत में आलोचक नसीरुद्दीन शाह की निंदा भर नहीं कर रहे थे, बल्कि उनके तर्क तालिबान का बचाव करते नजर आ रहे थे. सत्ता में वापसी के बाद तालिबान का भारत में प्रभाव और उसकी चिंताओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. उस पर लगातार बहस हो रही है. जावेद अख्तर का भी बयान आया जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की तुलना तालिबान से की है.
जावेद अख्तर ने एक इंटरव्यू में कहा था- "आरएसएस का सपोर्ट करने वाले लोगों की मानसिकता तालिबान से अलग नहीं है. जिस संगठन (आरएसएस) का आप समर्थन कर रहे हैं उसमें और तालिबान में कोई फर्क नहीं है." कुल मिलाकर जावेद अख्तर की नजर में तालिबान और आरएसएस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जावेद साहब फ़िल्मी दुनिया के जाने माने गीतकार हैं और लंबे समय से आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठनों की राजनीति का विरोध करते रहे हैं. फिलहाल आरएसएस से तालिबान की तुलना करना उनके गले की फांस बनता दिख रहा है. बयान के बाद वे निशाने पर हैं. मुंबई में उनके आवास के सामने बीजेपी कार्यकर्ताओं ने जमकर विरोध प्रदर्शन किया है. बीजेपी विधायक राम कदम ने तो यहां तक धमकी दी कि जब तक जावेद अख्तर अपने बयान के लिए हाथ जोड़कर माफी नहीं मांगते तब तक समूचे देश में उनकी फ़िल्में नहीं चलने दी जाएंगी. जावेद साहब के घर के बाहर प्रदर्शन करना, भीड़ को उकसाना है. विरोध के तरीके को सही नहीं ठहराया जा सकता.
क्या आरएसएस और तालिबान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? दोनों की राजनीति में धर्म एक अहम पहलू माना जा सकता है. मगर दोनों के सिद्धांत अलग-अलग हैं. दोनों की स्थापना के मकसद और आधार भी अलग-अलग हैं. यहां तक कि दोनों का राष्ट्रवाद भी अलग-अलग है. मोटे तौर पर समझें तो आरएसएस का सिद्धांत एक दायरे में भारत से बाहर जन्म लेने वाले धर्मों को सांस्कृतिक वजहों से प्रश्रय देने को राजी है मगर तालिबान की अवधारणा में गैरमुस्लिम अफगानियों के लिए रत्तीभर भी गुंजाइश नहीं. वे कभी भी एक सिक्के के पहलू नहीं थे. भविष्य का तो नहीं पता, मगर फिलहाल तक स्थिति कमोबेश यही है. दोनों का बैकग्राउंड, प्रैक्टिस टूल, मकसद और तरीके अलग-अलग हैं. पता नहीं जावेद अख्तर किन समानताओं के आधार पर दोनों को एक बता रहे हैं.
आरएसएस पर धार्मिक विद्वेष फैलाने के आरोप हैं, लेकिन कोई सशस्त्र सेना बनाने विद्रोह का मामला नहीं दिखा. आरएसएस ने कई संगठन जरूर बनाए हैं. लेकिन क्या उन्हें तालिबान जैसा सशस्त्र संगठन कहा जा सकता है. आरोप कई लगे मगर सिद्ध नहीं हुआ है अभी तक. आरएसएस किसी सरकार, सत्ता के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में भी नहीं उतरा. और तालिबान का इतिहास? तालिबान की स्थापना ही धर्म के नाम पर खून बहाने के लिए की गई. यहां तक कि अगर रास्ते में इस्लाम के लोग ही आ जाए तो उनके क़त्ल को भी जायज करार दिया है. अपनी स्थापना के साथ ही तालिबान अब तक लाखों लोगों को मौत के घाट उतार चुका है. जावेद साहब को शायद नहीं पता कि स्थापना के बाद से तालिबान अबतक लाखों लोगों की जान ले चुका है. जिनमें बच्चे, महिलाएं और बूढ़े तक शामिल थे. आरएसएस से तुलना कर असल में जावेद अख्तर ने तालिबान के गुनाहों पर पर्दा डालने और भारतीय समाज में उसकी राजनीति को स्वीकृति दिलाने की ही कोशिश की है.
जावेद अख्तर की राय उन लोगों की राय से अलग कहां ठहरती है जो तालिबानियों को आजादी की जंग का सिपाही मनवाने की जिद पर अड़े बैठे हैं. भई आजादी किससे? उस अमेरिका से जिसने रूस को भगाने के लिए तालिबान को बनाया. आजादी किसके लिए? उस रूस के लिए कभी जिसे हराने के लिए तालिबान बना था. और अब चीन के लिए भी, जहां लाखों उइगर मुसलमान अमानवीय तानाशाही झेलने को अभिशप्त हैं. तालिबान की ठीक-ठीक तुलना जावेद अख्तर के वश का नहीं. एक साधारण उइगर मुसलमान, तालिबान से तुलना के लिए अच्छा नाम सुझा सकता है.
जहां तक बात देश की राजनीति में धर्मांधता की है वो कब नहीं थी. इस्लाम के भी आने से पहले की है. आजादी से पहले भी थी और आजादी के बाद भी है. फिलहाल तो यह भी गारंटी नहीं दी जा सकती कि आगे जाकर धर्मांधता ख़त्म ही हो जाएगी. 1947 के बंटवारा को तो इसी धर्मांधता ने जन्म दिया था. उस वक्त दोनों तरफ कैसे हालात थे? जहां भी अलग-अलग धर्मों के लोग हैं वहां धार्मिक विवाद लगातार बने रहते हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स की ही बात को सच मानने वाले बताएं कि क्या अमेरिका ने अश्वेतों के खिलाफ विद्वेष को काबू कर लिया है? नहीं. विवाद बना हुआ है. रह-रहकर सामने आ ही जाता है. मानवीय गुण भी कोई चीज होती है. मनुष्य के रहने तक असहमति और विवाद तो बना रहेगा. इन्हीं से बचने के लिए सामजस्य बनाना होता है. राजनीति है तो है. कम से कम फिलहाल की. उससे इनकार कहां.
कम से कम जावेद साहब से इस तरह उम्मीद नहीं थी. तमाम अराजक मुस्लिम बुद्धिजीवियों की तरह आरएसएस की आलोचना के बहाने जावेद अख्तर तालिबान का सपोर्ट कर रहे हैं और उसे जायज बता रहे हैं.
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