'इश्क ए नादान' और 'ट्रायल पीरियड' सरीखी फिल्मों के लिए युग युग जियो 'जियो सिनेमा'
इन फिल्मों की फ्रेशनेस और कॉन्सेप्ट ने ऋषिकेश मुखर्जी की यादें ताजा कर दी हैं. यह सिलसिला जारी रहा तो सिर चढ़कर बोल रहीं साउथ की फिल्मों का ट्रेंड खत्म होना तय है. जियो सिनेमा जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म इसके लिए बधाई के पात्र हैं.
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पहले बात करें ट्रायल पीरियड की. एक फ्रेश और यूनिक कॉन्सेप्ट पर फिल्म बनाना कभी रिस्की हुआ करता था, लेकिन आज टाइप्ड फिल्मों से व्यूअर्स इस कदर उकता गया है कि वह अब डिवोटेड एक्स्प्लोरर है. यही बात क्रिएटर के लिए, मेकर्स के लिए बूस्टर है. इसी बूस्ट को जियो का ओटीटी प्लेटफार्म बखूबी एक्सप्लॉइट कर रहा है. हल्की फुल्की कॉमेडी, कुछ इमोशनल सीन्स और किरदारों के बीच अच्छी बन पड़ी केमिस्ट्री सरीखे फैक्टर्स की वजह से एक न हजम होने वाला सा यूनिक कॉन्सेप्ट भी खूब कनेक्ट कर रहा है ऑडियंस को. हां, स्क्रीनप्ले को थोड़ा अनप्रेडिक्टेबल रखा जाता तो निःसंदेह मास्टरपीस कहलाती फिल्म. आखिर है क्या अनूठापन? वो है किराए का पापा! सिंगल मदर एना (जेनेलिया देशमुख) अपने बेटे रोमी (जिदान) के साथ जिंदगी को बैलेंस करने में बिजी है. इसी बीच बेटा अपने पिता के बारे में पूछना शुरू कर देता है, क्योंकि स्कूल में दूसरे बच्चे इसके लिए उसका मजाक बना रहे हैं.
टीवीएस की ऑनलाइन शॉपिंग में हर समान 30 दिन के ट्रायल पीरियड पर मिलता देख रोमी को लगता है कि पापा भी ट्रायल पीरियड पर मिलते हैं. वह जिद पकड़ लेता है. एना क्या करे? तो उसे मिलता है किराए के पति के रूप में प्रजापति द्विवेदी (मानव कौल) जिसे महानगर में एक अदद नौकरी तलाशने के लिए रहने खाने का कुछ दिनों के लिए ठिया चाहिए. ऐना की शर्त है कि प्रजापति को रोमी के साथ अच्छे से पेश नहीं आना है ताकि एक महीने का ट्रायल पीरियड खत्म होते होते पापा का भूत उसके सिर से उतर जाए. वह समझ जाए कि पापा लोग होते ही ख़राब हैं. लेकिन तीस दिनों में कहानी अलग ही मोड़ ले लेती है, यही देखने के लिए फिल्म 'ट्रायल पीरियड' का देखा जाना जरूरी है.
फिल्म 'ट्रायल पीरियड' की सबसे खास कड़ी जेनेलिया देशमुख हैं, लेकिन एक सिंगल मदर की बजाय वह प्रजापति द्विवेदी की भूमिका निभा रहे मानव कौल की प्रेमिका ज्यादा लगी है. इस भूमिका में वह काफी आकर्षक लगी. लेकिन मां-बेटे के बीच जिस तरह से भावनात्मक दृश्य उभर कर आने चाहिए वह नहीं दिखे. मानव कौल ने अपनी भूमिका के साथ पूरी तरह से न्याय किया है. बाकी कलाकारों गजराज राव, शक्ति कपूर, शीबा चड्ढा, स्वरूपा घोष, बरुण चंदा, और जिदान ब्राज का परफॉर्मेंस भी ठीक है.
हां, गजराज राव और शीबा चड्ढा के लिए ज्यादा स्पेस की गुंजाइश निकाली जानी चाहिए थी. राइटर डायरेक्टर अलेया सेन तमाम कमियों के बावजूद बधाई की पात्र है नए कांसेप्ट के लिए और साथ ही हिंदी,पंजाबी और बंगला कल्चर को जिस खूबसूरती से फिल्म में पेश किया है उसके लिए. अब बात करें इश्क ए नादाँ की तो वाकई मास्टरपीस बन पड़ी है. 'लोग क्या कहेंगे' का शिकार हुए हर घुटे दिल की कहानी है ये. हर इंसान को जिंदगी दूसरा मौका जरूर देती है, लेकिन अक्सर हम यह सोचकर पीछे हट जाते हैं कि लोग क्या कहेंगे?
इसी सोच के तहत हम अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छाओं को दबाकर रखते हैं. और, अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं. फिल्म 'इश्क ए नादान' की पूरी कहानी का सार इसी में छिपा हुआ है. इश्क उम्र के किसी भी पड़ाव पर किसी से भी हो सकता है, लेकिन अपनी उम्र और सामाजिक मर्यादा को ध्यान में रखते हुए हम उसे अपने मन में दबाकर रखते है. कई बार ऐसा भी होता है कि अपने दिल की बात किसी से कह भी नहीं पाते हैं. यह फिल्म तीन जोड़ों के जीवन की भावनात्मक यात्रा है जिसमें वे दोस्ती और प्यार के एकदम ही अलग नजरिये से जटिल रूप से परस्पर जुड़ते हैं. फिल्म 'इश्क ए नादान' के हर रिश्ते में एक दूसरे के प्रति विश्वास और सम्मान है क्योंकि उम्रदराज लोगों की प्रेम कहानी की खासियत ही यही है.
जब सुभाष कपूर(कंवलजीत) को पता चलता है कि चारुलता(नीना गुप्ता) का एक अतीत है तो चारुलता के प्रति उसके दिल में उपजी प्रेम की भावना दोस्ती में बदल जाती है. वहीं रमोना सिंह(लारा दत्ता) के लेस्बियन होने का पता चलने पर आशुतोष (मोहित रैना) का उसके प्रति आकर्षण नफ़रत में नहीं बदलता. वह रमोना सिंह को समझाता है कि लोगों के डर से अपने रिश्ते को क्यों छिपाकर रखा जाए? रमोना सिंह कामयाब बिजनेस लेडी है और वह अपनी दोस्त भैरवी से छुप छुप कर मिलती है.
आशुतोष के समझाने पर रमोना सिंह, भैरवी के साथ अपने रिश्ते को खुलकर स्वीकार करती है. पीयूष (सुहैल नय्यर) भले ही सिया (श्रिया पिलगांवकर) से प्यार करता है, लेकिन वह सिया और राघव को एक साथ जोड़ने की कोशिश करता है. उसके प्रेम में समर्पण का भाव नजर आता है. प्यार, दोस्ती और समर्पण की खोज की सुदीप निगम की इस हृदयस्पर्शी कहानी को डायरेक्टर अविषेक घोष ने बहुत ही स्वाभाविक तरीके के साथ पेश किया है. सिर्फ एक ही कमी है कि कुछेक जगहों पर दृश्य प्रेडिक्टेबल से हैं जिस वजह से इमोशनल मोमेंट्स कमतर हो जाते हैं. फिर भी यह फिल्म प्यार, दोस्ती की शक्ति और हमारे जीवन में सार्थक संबंधों को संजोने की महत्ता बताती है.
अभिनय की बात करें तो हर किसी ने अपना बेस्ट दिया है, और कह सकते हैं कलाकारों की टीम के लिए कि 'हम किसी से कम नहीं' क्योंकि कोई किसी से कम नहीं ! एक बात और, इन फिल्मों की फ्रेशनेस ने, कॉन्सेप्ट्स ने ऋषिकेश मुखर्जी की यादें ताजा कर दी है और सिलसिला जारी रहा तो सर चढ़कर बोल रहीं साउथ की फिल्मों का ट्रेंड खत्म होना तय है.
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