काबिल भी रईस और रईस भी काबिल
रईस और काबिल दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई कर रही हैं. फिल्में भले ही अलग अलग हैं लेकिन दोनों ही फिल्मों में काफी समानताएं भी हैं.
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एक ही दिन रिलीज हुई रईस और काबिल, दोनों बढ़िया बिजनेस कर रही हैं, जो प्रचलित धारणा के खिलाफ है. कारण क्या है? दोनों फिल्मों में काफी समानताएं हैं: दोनों स्टार प्रधान हैं और हिरोइन एक सजावट के रोल में है, दोनों एक साधारण आदमी की सिस्टम के सामने असहायता और उससे संघर्ष को बड़े ही मार्मिक रूप में दर्शाती हैं.
रईस में शाहरुख खान का किरदार बचपन से सिस्टम से लड़ता है, जबकि काबिल में ऋतिक का संघर्ष शादी के बाद कुछ ही समय का है, दोनों में पुलिस सिस्टम की राजनीति और राजनेताओं के साथ सांठगांठ को बखूबी दर्शाया गया है. शायद यही दर्शकों की वास्ताविक अनुभूति से जुड़कर अपील करता है. यह बात और है कि फिल्मों में राजनेताओं, पुलिस और अधिकारी व्यवस्था के खोखलेपन को बार-बार दर्शाना समाज के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि यह एक विरोध को असली समाज में ज्वालामुखी की तरह सतह के नीचे सुलगाए रख सकता है. दोनों फिल्मों में राजनीति को शोषक व्यवस्था का प्रमुख कारण बताया गया है.
समानताओं के बावजूद दोनों फिल्मों में काफी विभिन्नताएं भी हैं- रईस एक छोटे कस्बे से एक राज्य तक में समाज, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को दिखाया है पर काबिल की कहानी एक नवविवाहित नेत्रहीन दंपती की एक मेट्रोपोलिटन शहर में प्यार की कोमलता और उसके पथभ्रमित भाई से कुचलने और बदला लेने की कहानी है. रईस का कैनवास बड़ा है और इसलिए उसमें गुजरात की शराबबंदी मुक्त सामाजिक, राजनीतिक, नौकरशाही, खासकर पुलिस (एनकाउंटर सहित) के खोखले और भ्रष्ट सिस्टम को बखूबी दिखाया गया है. काबिल में पुलिस और राजनीतिक करप्शन को दिखाया तो जरूर है पर सिर्फ एक लीगल सिस्टम के खोखलेपन पर और कैसे एक आम आम आदमी जस्टिस हासिल करने के लिए कानून को हाथ में लेने पर मजबूर हो जाता है. रईस के डायलॉग काफी बढ़िया हैं, खासकर शाहरुख और नवाजुद्दीन के परस्पर संवाद. इसके उलट काबिल के डायलॉग कैची नहीं हैं. रईस में एक सोशल रियलिज्म का फील है पर काबिल एक संभावित प्लॉट है, जिसमें सरप्राइज और सस्पेंस एक पहेली तैयार करते हैं, जिससे दर्शकों में कौतूहल और उत्सुकता पैदा होती है.
रईस में निर्देशक ने एक रियल या यथार्थपूर्ण फील दिया है, खासकर अगर सेट, कॉस्ट्यूम्स, भाषा और पूरे कला डेकोर को देखें. वह गुजरात के रियल कलेवर को उतार देता है खासकर अगर मोहल्ला, पुलिस, घर की सजावट और वास्तु को देखें. काबिल के सेट सिर्फ एक घर, एक बिलडिंग और एक पुलिस स्टेशन प्रधान है और ये सब कोई खास इंप्रेशन नहीं छोड़ते.
फिल्मी अभिनय देखें तो दोनों फिल्मों में सुपरस्टार और स्टार अच्छी एक्टिंग के बावजूद अपनी इमेज दूर नहीं कर पाते. उनकी तुलना दंगल में आमिर खान से कीजिए. हालांकि नवाजुद्दीन ने रईस में पुलिस ऑफिसर के रोल में जान डाल दी है. दोनों फिल्मों में हिरोइन सपोर्टिंग रोल में नजर आती हैं. काबिल में रॉनित रॉय ने खलनायक की भूमिका में नाना पाटेकर की डायलॉग डिलिवरी से काफी प्रेरणा ली है.
दोनों फिल्मों के गाने साधारण हैं और समझ नहीं आता कि क्यों दोनों फिल्मों ने एक पुराने गाने को सिंथेसाइजर में सभी आवाजों को सिंथेसाइज करके एक शोर बना दिया—हां बलखाती अर्धनग्न लडकी को दूसरी फिल्मों की तरह पेश किया है, शायद ऐसा मनोरंजन की मांग के मद्देनजर किया गया है.
दोनों फिल्में ही दर्शकों को भा रही हैं. वजह प्राय: हर दर्शक के पास राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक व्यवस्था से जूझने का असली तजुर्बा है और वह जब उसे पर्दे पर देखता है तो नायक के चरित्र से खुद को जोड़ लेता है. फ्रायडियन साइकोलॉजी के मुताबिक, इससे दर्शकों की भड़ास निकलती है और उसके दिल को सुकून मिलता है.
एक तरह से रईस पूरी तरह से फॉर्मूला फिल्म है, जिसमें मनोरंजन के सारे अंश हैं. जैसे कि एक औरत के छोटे बच्चे को समाज में पालना, आर्थिक बेबसी, संघर्ष, निराशा, गैरकानूनी काम करके अमीर हो जाना, रॉबिनहुड की भूमिका, नेताओं के लिए काम करना और फिर उन्हें भी इस्तेमाल करना, राजनीति में घुसना, और फिर उस सीमा तक पहुंच जाना जहां से वापसी मुमकिन नहीं. ऊंचाई छूने की इस ललक में इंसान सिर्फ ऊपर (यमलोक में) ही जा सकता है. इस तरह की अल्टीमेट फिल्म कोपोला की गॉडफादर थी. बॉलीवुड ने इसकी कॉपी फौरन की थी. फिरोज खान की धर्मात्मा और फिर दयावान और आतंक ही आतंक उसी से प्रेरित थी.
रईस जैसी स्टोरीलाइन की कई फिल्में हैं- जैसे गंगा जमुना, मुझे जीने दो, दीवार, वास्तव, सरकार, कंपनी, वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई (उसी का सीन्न्वल भी), शूटआउट ऐट लोखंडवाला, शूटआउट ऐट वडाला, परिंदा, अग्निपथ, गैंग्स ऑफ वासेपुर, इत्यादि. इन फिल्मों के मुख्य पात्र कानून अपने हाथ में लेते हैं और अन्याय से लड़ते हैं. यह दर्शक की छिपी हुई भावना से उन्हें जोड़ देता है और यह सार्वभौमिक मानसिक प्रवृत्ति और अनुभव है. इसलिए हॉलीवुड भी हर साल ऐसी फिल्में बनाता है. याद कीजिए डर्टी हैरी, डेथविश और रैंबो सिरीज. और भी बहुत हैं. पिछले साल आई रजनी कांत की कबाली. मर्टिन स्कोर्सेस ने तो ज्यादातर फिल्में इसी जॉनर की बनाई हैं. काबिल में ऋतिक की जद्दोजहद भी इसी जॉनर की है और इस तरह की फिल्में बनती ही रहेंगी. आखिरकार, इंतकाम या प्रतिशोध या न्याय या अन्याय एक सार्वभौमिक थीम है और इस पर तोड़-मरोड़ कर फिल्में बनती रहेंगी. लेकिन फिल्म इतिहास या फिल्म स्कूलों के मुख्य मानकों पर ये खरी नहीं उतरेंगी.
इसलिए यह कहा जा सकता है कि काबिल भी बॉक्स ऑफिस पर रईस ही रहेगी. इसे यूं भी कह सकते हैं कि रईस भी काबिल और काबिल भी रईस ही रहेगी.
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