Lafzon Mein Pyaar Review: उम्मीदों को दिल में सजाने का नाम 'लफ्जों में प्यार'
एक फिल्म और तीन-तीन कहानियां. जी हां लेकिन आप इसे देखने बैठते हैं तो आपको अंत तक जाते-जाते उम्मीदों को दिल में सजाने की बातें करने वाली इस फिल्म की कहानी समझ आने लगती है. समझ आता है कि लड़के के बाप ने उसे क्यों नाकारा कहा? समझ आता है कि उसे अपनी ही स्टूडेंट से प्यार क्यों हुआ?
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प्यार काफी उलझी हुई चीज है. इतना आसान होता तो मतलब ही क्या था प्यार करने का. और जब मतलब ही नहीं रह जाता हो आदमी बेमन हो जाता है उसके बाद किसी चीज में मन नहीं लगता. फिल्म 'लफ्ज़ों में प्यार' के इस संवाद को आप सही तर्क ना मान कर चुनौती भी दे सकते हैं. पहले फिल्म की कहानी जान लीजिए. एक लड़का नाजुक सा दिखने वाला बाप ने उसे नाकारा कहा तो घर से निकल गया. पहाड़ों में अपने रिश्तेदार के यहां रहने लगा. वहीं स्कूल में म्यूजिक और गिटार बजाना सिखाना शुरू कर दिया. फिर एक लड़की से उसे प्यार हो गया.
फिल्म की दूसरी कहानी देखिए स्कूल में वह टीचर बच्चों से कहता है उसे उसका नाम लेकर बुलाया जाए क्योंकि वो उन बच्चों के हम उम्र के लगभग ही है. तो उन्हीं बच्चों ने उसके सामने शराब भी पी और उस टीचर ने अपने स्कूल की लड़की से ही प्यार किया था. तीसरी कहानी देखिए लड़की नाजायज है. लड़के का रिश्ता पक्का हो गया है. लड़का अपने जिस रिश्तेदार के यहां रह रहा था उसी रिश्तेदार ने उस नाजायज लड़की को अपना लिया.
एक फिल्म और तीन-तीन कहानियां. जी हां लेकिन आप इसे देखने बैठते हैं तो आपको अंत तक जाते-जाते उम्मीदों को दिल में सजाने की बातें करने वाली इस फिल्म की कहानी समझ आने लगती है. समझ आता है कि लड़के के बाप ने उसे क्यों नाकारा कहा? समझ आता है कि उसे अपनी ही स्टूडेंट से प्यार क्यों हुआ? समझ आता है कि उस स्टूडेंट को उस लड़के के रिश्तेदारों ने क्यों अपनाया?
इस सबके साथ समझ आता है कि फिल्म आपको अपनी कहानी कहने के अंदाज से नब्बे के दशक की प्रेम मोहब्बत वाली फिल्मों की गलियों में ले जाती है. समझ आता है कि फिल्म की कास्टिंग ऐसी क्यों है? समझ आता है कि इस फिल्म में दिखने वाली प्यारी सी लोकेशन और कहानी के पीछे की प्रोडक्शन वैल्यू क्या रही होगी? समझ आता है की फिल्म का मुख्य नायक अभिनेता इतना नाजुक क्यों दिखता है.
यह फिल्म कई सारे राज खोलेगी अपने लफ्ज़ों से 4 अगस्त को सिनेमाघरों में क्योंकि इसमें शायरियां है. इसमें गजलों का सुंदर मिश्रण है. इसमें उन गजलों को गाने के अंदाज से आप इस फिल्म की हर गलतियों को भूलते हुए भी इसे देखते रहना चाहते हैं.
जरीना वहाब, अनिता राज, विवेक आनंद मिश्रा, कंचन राजपुत, प्रशांत राय, ललित परिमू, वाणी डोगरा, मेघा जोशी, महिमा गुप्ता, सचिन भंडारी, इस्माइल चौधरी जैसे अभिनय के कुछ पके हुए तो कुछ अभी सीख रहे लोग इस फिल्म में दिखाई देते हैं. इन सबके साथ मीर सरवर भी आपको कुछ समय के लिए नजर आते हैं. और वे फिल्म के दूसरे भाग में आते ही फिल्म के हर एक पहलू में प्राण फूंकने का काम करते हैं. क्योंकि दूसरे भाग में ही इस फिल्म की कहानियों के राज से पर्दा उठता है.
धीरज मिश्रा और राजा रणदीप गिरी का निर्देशन मिलकर इस फिल्म को संतुष्टि के स्तर पर तो नहीं ले जा पाता. दर असल दोष उनका नहीं है. फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू ही इसे देखते हुए इतना कम नजर आती है की ऐसी फ़िल्में बनाने वालों पर थोड़ा आप दर्शकों को तरस और दया खानी चाहिए. लेकिन वहीं कुछ लोग तरस और दया का गलत फायदा उठा जाएं तो उन्हें असल आइना भी आप दर्शकों को दिखाना भरपूर आना चाहिए.
यशोमती देवी और निर्देशक धीरज मिश्रा ने मिलकर इस फिल्म को लिखा है और अशोक साहनी ने इसके निर्माता हैं. बिरचंदन सिंह की सिनेमाइटोग्राफी निराशा के स्तर को छूती है वहीं प्रकाश झा की एडिटिंग भी कमजोर नजर आती है. डी आई और लिरिक्स के मामले में दिल को छू जाने वाली इस फिल्म को देखकर आप यही कहते हुए बाहर निकलेंगे की काश कास्टिंग करते हुए थोड़ा और अच्छी कैंची इस्तेमाल की जाती. काश ऐसी फिल्मों की प्रोडक्शन वैल्यू बढ़ पाती. काश इन्हें और अच्छे निर्माता, निर्देशक वाली टीम मिली होती तो यह फिल्म वाकई बेहतर हो सकती थी.
फिलहाल के लिए लफ्ज़ों में प्यार आपको एक फीकी फिल्म का अहसास करवाती है जिसके गाने और शायरी आपको छूकर निकल जाती है ठंडी छुअन के जैसे. गजलों और शायरियों के शौकीनों को यह फिल्म अच्छी लग सकती है.
अपनी रेटिंग- 2.5 स्टार
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