मौलाना भी संस्कृति की दुहाई देने लगे तो चौकन्ने हो जाइए, राहुल से बेशरम रंग तक सिलसिला गंभीर है!
अलगाववादी विचारधारा को सांस्थानिक और संवैधानिक रूप देने की कोशिश हो रही है. डंके की चोट पर हो रही है. वोट पॉलिटिक्स के दायरे में हो रही है. तो यह ज्यादा घातक, ज्यादा खतरनाक और बहुत ज्यादा पाखंडी है. राजनीति, सिनेमा, तमाम वित्तपोषित संस्थान इसमें सक्रिय हैं.
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जिंस टॉप पहनकर घूमने वाली एक बालिग़ लड़की को कर्नाटक में एक दिन अचानक याद आता है- वह तो मुसलमान है. तालिबानी स्टाइल में बुरका पहनना उसका अधिकार है. वह जिद करने लगती है. उसकी जिद तब शुरू होती है जब उसके पिता ओवैसी की पार्टी में पदाधिकारी बन जाते हैं. लड़की का नाम मुस्कान है. वह कॉलेज में बुरका पहनने के हक़ की पोस्टर गर्ल है. भारत विरोध के एकसूत्री बुनियाद पर टिके प्रगतिशील भक्तों के धड़े ने मानसिक रूप से बीमार एक लड़की को महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग की श्रेणी का एक्टिविस्ट घोषित कर किया. उसे 'हिजाब गर्ल' का तमगा मिला. ड्रामे में बुरके को एक जायज निजी प्रश्न ठहराया गया. और फिर अलकायदा चीफ जवाहिरी 'तकबीर' की आवाज उठाने वाली मुस्कान की जमकर प्रशंसा करते हुए एंट्री मारता है.
जवाहिरी सनक में भारत को एक हिंदू लोकतंत्र करार देता है. ऐसा लोकतंत्र जहां मुस्लिमों पर गंभीर किस्म के अत्याचार हो रहे हैं. क्या भारत को हिंदू लोकतंत्र कहा जा सकता है? आप जाइए और देखिए, भारत के कौन-कौन नेता जवाहिरी की भाषा में देश को हिंदू लोकतंत्र कह रहे हैं. क्या वह वैसा ही है जैसा कहा जा रहा है? खैर. ब्रिटिश इंडिया में जिस तरह धार्मिक आधार पर पृथक निर्वाचन की मांग हुई और नतीजे में भारत विभाजन की नींव पड़ी थी- अब लगता है कि ना तो वह मांग आख़िरी थी और ना ही भारत का विभाजन. जिन मुद्दों पर विभाजन हुआ, आजादी के बाद संविधान लागू होने के बावजूद वैसे ही मुद्दे फिर खड़े किए जा चुके हैं. दो चीजों से जबरदस्त खाद-पानी मिला. और मनोबल को आसमान में पहुंचा दिया. पहला- इंदिरा कांग्रेस ने लोहिया जेपी की राजनीति को ख़त्म करने के लिए चुनावी बहुमत का बेजा इस्तेमाल कर संविधान की प्रस्तावना बदल दी और उसमें पंथनिरपेक्ष की जगह धर्मनिरपेक्ष कर दिया जो आगे चलकर भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा कोढ़ साबित हो चुका है.
रही-सही कसर मौलानाओं के आगे डर वश प्रचंड बहुमत से चुनी गई राजीव गांधी सरकार ने पूरी कर दी थी- शाहबानो मामले में. लोकतांत्रिक मुस्लिम समाज दिल्ली के इंडिया गेट पर खड़े होकर सुप्रीम कोर्ट की ईट से ईट बजाने, संसद को उखाड़ फेंकने और सांसदों के हाथपैर तोड़ देने की सरेआम धमकियां देता रहा- और पूरी सरकार चंद गुंडों के आगे झुक गई. शाहबानो का असर यह रहा कि इसने भारतीय राजनीति में मुस्लिमों को हमेशा के लिए एक जिद्दी-दबंग वोटबैंक की शक्ल में तब्दील कर दिया.संविधान के होने के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था में वोट पॉलिटिक्स की मजबूरी में उन्हें फिर वही ताकत मिल गई जो ब्रिटिश इंडिया में पृथक निर्वाचन के जरिए हासिल हुई थी. खिलाफत गांधी का सहारा पाकर इतना प्रभावी हुआ कि गंगा जमुनी तहजीब तार-तार हो गया. देश के दो टुकड़े हो गए. और उन तमाम लोगों को अपनी गर्दने गंवानी पड़ी जिनके गले में गंगा जमुनी तहजीब की ताबीज लटकी नजर आ रही थी.
भारत जोड़ो यात्रा में राहुल की यह तस्वीर और बेशरम रंग असल में एक ही चीज से जुड़ी चीजें हैं.
47 का बंटवारा समाधान नहीं, अंतहीन सिलसिले की एक शुरुआत
आखिर क्यों ना माना जाए कि 47 का बंटवारा भारत के टूटने की एक शुरुआत भर थी. वह कोई समाधान नहीं था. कोई अंत नहीं था. क्या यह छिपी बात है कि ना जाने कितने मौलाना इस्लामिक स्टेट को अब तक लगातार चिट्ठियां लिख रहे हैं. दिल्ली पर अंग्रेजों के काबिज हो जाने के बाद से लगातार. वह कभी अफगानी अब्दालियों को चिट्ठी लिखते हैं कभी आइसिस को भारत बुलाते हैं ताकि लाल किला पर 'इस्लाम' का 'हरा परचम' फिर लहराया जा सके.आइसिस के लिए लड़ने को ना जाने कितने लड़ाके जा भी चुके हैं देश से. लड़ाके अकेले नहीं जा रहे बल्कि जेहाद में शामिल लड़ाकों की जिस्मानी भूख मिटाने के लिए अपने साथ सेक्स स्लेव भी लेकर जा रहे हैं.
दुर्भाग्य से वे गैरमुस्लिम ही निकलती हैं. केरल सबसे बड़ा भुक्तभोगी राज्य है. यह वही केरल है जहां अभी बिल्कुल हाल ही में आधुनिक और पढ़े-लिखे मुसलमान भी को-एजुकेशन को भारतीय संस्कृति के खिलाफ हमला बता रहे हैं. आशंका जाता रहे कि लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ेंगे तो 'हस्तमैथुन' जैसी बुराइयों का शिकार बनेंगे और समाज में अराजकता छा जाएगी. जबकि केरल की कोशिश सबके लिए एक समान शिक्षा थी, लेकिन मौलाना एक सामान शिक्षा को मदरसा व्यवस्था पर हमला मान रहे तो इसे भी संस्कृति का हवाला देकर रोकना चाहते हैं. वैसे ही जैसे कुछ कट्टरपंथी मौलाना संस्कृति का हवाला देकर बेशरम रंग का छद्म विरोध करते नजर आ रहे हैं. केंद्र सरकार की भी कोशिश सभी के लिए एक जैसी शिक्षा देने का लक्ष्य है.
मगर वोट पॉलिटिक्स का दबाव कुछ ऐसा है कि प्रगतिशील मूल्यों की दुहाई देने वाली वाम सरकार भी घुटने टेक देती है. ठीक वैसे ही जैसे शाहबानो केस में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने टेक दिए थे. और आरोप यह लगेगा कि भगवा पार्टियां देश को बंटवारे की अंधी सुरंग में धकेल रही हैं. जबकि उनके लिए संस्कृति असल में मसला नहीं है. मौलानाओं के घर की लड़कियां बिकिनी पहनकर पूल में नहीं उतरती हैं. पर दूसरों की बच्चियां पूल में वैसे ही उतरती हैं, बिकिनी में और यह कोई शर्म की बात नहीं है. यह बस चयन का मसाला है. मौलानाओं को नहीं पता कि भारतीय संस्कृति में लचीलापन किन बिंदुओं पर किस स्तर का है. बावजूद कि उन्हें संस्कृति से लेना देना नहीं. उनका मसला असल में वह 'तकबीर' ही है जिसे लेकर जवाहिरी ने मुस्कान की तारीफ़ में दुनियाभर के मुसलमानों को एकजुट हो जाने का दीनी संदेश दिया था.
अलगाववादी राजनीति को संवैधानिक बनाने की खतरनाक साजिश
मुस्लिमों की अलगाववादी विचारधारा को सांस्थानिक और संवैधानिक रूप देने की कोशिश हो रही है. डंके की चोट पर हो रही है. भारत का दुर्भाग्य यह कि वोट पॉलिटिक्स के दायरे में हो रही है. यह ज्यादा घातक, ज्यादा खतरनाक और बहुत ज्यादा पाखंडी है. राजनीति, सिनेमा, तमाम वित्तपोषित संस्थान इसमें सक्रिय हैं. तमाम नामचीन मुस्लिम चेहरे अपनी सुविधा के तहत अपने-अपने तर्कों को सामने रख रहे हैं. निखत जरीन जैसी बॉक्सिंग चैम्प भी खुलकर हिजाब का सपोर्ट करती है और कहती है कि रिंग में ऐसा कोई नियम नहीं कि आप हिजाब पहनकर खेल नहीं सकते. मगर निखत को नजीर पेश करते हुए हिजाब में खेलते अबतक नहीं देखा गया. मुस्लिमों के तमाम संगठन भगवा रंग पर अपना दावा भी कर रहे हैं. कुछ मुस्लिम संगठन संस्कृति का हवाला देते हुए बेशरम रंग को बैन करने की मांग भी कर रहे हैं. यह उनका ढकोसला है.
लोकसभा में बसपा के एक सांसद दानिश अली भी कहते नजर आए कि अगर फिल्म सेंसर से पास हो गई तो उसे (शाहरुख) कोई धमकी नहीं दे यह सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए. दानिश यूं विचारों की जलेबी बनाते हैं और स्थापित करते हैं कि मुस्लिम कट्टरपंथी भी इसका विरोध कर रहे हैं. ना तो सनातन इतना कमजोर है और ना ही इस्लाम कि एक रंग से वह खतरे में आ जाएगा. दानिश अपने फ्रंट पर काम कर रहे हैं. उससे पहले जब समूचे देश में अलगाववादी ड्रेस कोड थोपने के खिलाफ एक बहस खड़ी होती है- समूचा देश अलकायदा आतंकी के बयानों से हैरान रह जाता है, ठीक इसी वक्त राहुल गांधी भारत जोड़ने की यात्रा में सिर से पांव तक बुरके में ढंकी तुपी एक लड़की का हाथ थामे चलते दिखते हैं. यह फोटो कांग्रेस ने आधिकारिक सोशल पेज पर क्या लिख कर साझा किया-
चलो प्यारे साथी...बढ़ाएं कदम. वतन के सपनों को मंजिल तक पहुंचाएं हम
क्या समझा जाए, इस फोटो और कैप्शन को लेकर? किस सपने की मंजिल पर बुरका गर्ल को लेकर निकले हैं राहुल गांधी- यह लोगों को पूछना चाहिए. कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल देश में अपने वोटबैंक को आश्वस्त करना चाहते हैं कि घबराओ नहीं. मैं उन्हीं इंदिरा गांधी का पोता और राजीव गांधी का बेटा हूं जिन्होंने संविधान की प्रस्तावना बदली और शाहबानो केस के जरिए मुसलमानों को एक तरह से पृथक निर्वाचन का अघोषित अधिकार दे दिया. लोकतंत्र पर कब्जे की जमीन तैयार कर दी है. हमने लोकतांत्रिक दायरे में एक दूसरा पाकिस्तान बनाने का रास्ता मुहैया कराया है तो उसे अंजाम तक भी पहुंचाएंगे.
अगर देश की पसंद बेशरम रंग ही है तो शाहरुख को अब पोर्नस्टार कहें
बेशरम रंग पर बवाल मचता है तो शाहरुख खान लोगों की पसंद का हवाला देने लगता है और एक इंटरव्यू में कहता है कि जीरो तक वह अपने मन की फ़िल्में करता था. लेकिन अब उसने तय कर लिया है कि वही काम करेगा जो लोग पसंद करते हैं. जो लोग चाहते हैं. तो क्या लोग बेशरम रंग चाहते हैं. अगर लोग बेशरम रंग चाहते हैं तो भारतीय सिनेमा उद्योग को पोर्न फ़िल्में बनाना चाहिए और शाहरुखों को एक्टर की बजाए पोर्नस्टार ही कहा जाना चाहिए. पिछले दस साल से भारतीय सिनेमा को खंगाल लीजिए. यही दस साल शाहरुख की बर्बादी के साल भी हैं. इस अवधि में आई फ़िल्में दर्शकों की पसंद नापसंद की जानकारी दे देती हैं. बहुत पीछे क्यों जाना? शाहरुख जितनी फीस एक फिल्म के लिए लेता है उसके सिर्फ पांचवें हिस्से से भी कम कीमत में ऋषभ शेट्टी कांतारा बना देते हैं और वह 450 करोड़ कमा भी लेती है. पोर्न स्टार शाहरुख के करियर में अब तक किसी भी फिल्म ने 400 करोड़ का आंकड़ा नहीं छुआ बावजूद कि उसने बॉलीवुड की सबसे महंगी फ़िल्में और सबसे बड़े बैनर्स के साथ काम किया है.
असल में चीजों को देखें तो बिकिनी पहनने ना पहनने को लेकर कोई मसला नहीं है. स्वीमिंग पूल में उतरने वाली भारतीय महिलाएं बिकिनी ही पहन रही हैं. वे साड़ी नहीं पहन रही हैं. लेकिन हरिद्वार में या किसी नदी के घाट पर बिकिनी पहनकर तैराकी नहीं कर रही हैं. हो सकता है कि कल करें भी. पर वह उनकी चाइस का मसला है. बावजूद जहां बिकिनी पहनकर पूल में नहा रही हैं- उन्हें रोका नहीं जा रहा. उनके खिलाफ हिंसक प्रदर्शन नहीं हो रहे. बल्कि बिकिनी तमाम पूलों के ड्रेस कोड में ही है और उसे फॉलो किया जाता है. यह दूसरी बात है कि महिलाएं बिकिनी पहनकर दीपिका की तरह बेशरम रंग जैसा घटिया डांस करते नहीं दिखती. बिकिनी कोई चीज है कि उसे पहनकर सड़क पर नाचा जाए.
बेशरम रंग का विरोध कर रहे मौलानाओं के लिए शाहरुख कितना जरूरी?
असल में बेशरम रंग पर जो राजनीतिक विवाद खड़ा किया गया है उसके कई मकसद हैं. एक ही तीर से कई निशाने साधने की कोशिश है. एक तो यही कि भारतीय सिनेमा में अब ऐसा कोई मुस्लिम चेहरा नजर नहीं आता जो एक व्यापक दर्शक वर्ग के विचार को बदल सकने का माद्दा रखता हो. मुस्लिम चेहरों का स्टारडम ध्वस्त हो चुका है. आमिर खान, सैफ, फरहान अख्तर जैसे निपट चुके हैं. तो बेशरम रंग के पक्ष में नजर आ रहे लोगों की कोशिश है कि शाहरुख के रूप में एक चेहरा जिंदा रखा जाए जिसके जरिए 'तकबीर' के जरूरी काम सिनेमा में होते रहें. जो जरूरत पड़ने पर असहिष्णुता जैसे मुद्दे उठाता रहे और अपने नाम का रोना रोता रहे कि कैसे मजहबी वजहों से उसका उत्पीडन किया जा रहा है. दूसरा मकसद मौजूदा समय के बहस से निकल रहे विचारों को जलेबी की तरह घुमा देना है ताकि समाज की आंखों पर पर्दा पड़ जाए और वह उस अलगाववादी भावना को देख ही ना पाए जो आजादी और बंटवारे के बावजूद ख़त्म नहीं हुआ था. बल्कि अब सुरसा की तरह निर्णायक प्रहार करने की ताक में है. वोट पॉलिटिक्स में सत्ता पाने की बुनियाद पर टिकी राजनीति उसे अब खतरनाक तरीके से प्रश्रय भी दे रही है.
मौलानाओं से बेशरम रंग के विरोध में बयान इसीलिए दिलवाए जा रहे कि हर तरह कट्टरपंथी संस्कृति की आड़ में मनमानी कर रहे हैं. और यह भी कि मुसलमानों के बुरके आदि के सवाल को खड़ा किया जा रहा है. महिलाओं के लिए सार्वजनिक ड्रेस कोड होना चाहिए. हर इसी को बिल्कुल स्पष्ट हो जाना चाहिए. बेशरम रंग में बिकिनी पहनने ना पहनने का सवाल है ही नहीं. सवाल तो उस भारत विरोधी पाखंडी राजनीति को लेकर है जो हमारे ही शरीर से जोक की तरह खून चूस कर जिंदा है.
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