मुल्क फिल्म ‘हम’ और ‘वो’ के बीच की दीवार को गिराती है
फिल्म मुल्क बताने पर मजबूर करती है कि आतंकवाद का ठीकरा मुसलमानों के सिर फोड़कर हम अन्य सामाजिक बुराइयों से मुंह नहीं मोड़ सकते.
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फिल्म मुल्क सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, एक बहस है. जो आज के हिंदुस्तान में जारी है. फिल्म में अली मोहम्मद बने हैं ऋषि कपूर, तापसी पन्नू बनी हैं उनकी बहू और उनकी वक़ील जबकि सरकारी वक़ील के रूप में आपको दिखेंगे आशुतोष राणा. इस फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है :
बनारस के अली मोहम्मद का घर एक घर नहीं था वो एक छोटा सा मुल्क था. घर का माहौल एकदम लोकतांत्रिक. घर की बहू हिंदू थी. उनके घर जलसा होता तो पूरा मोहल्ला इकट्ठा होता. पड़ोस के चौबे जी वहाँ मन भर के कबाब खाते. हर तरफ़ ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ थीं, लेकिन अचानक एक दिन इलाहाबाद में धमाका हुआ और उसने अली मोहम्मद के बनारस के इस छोटे से मुल्क में भी धमाका कर दिया. घर का एक बेटा धमाके में आतंकियों के साथ शामिल निकला. पूरा मोहल्ला अली मोहम्मद के ख़िलाफ़ हो गया. मोहल्ले में अली मोहम्मद के घर को अब आतंकियों का अड्डा और अली मोहम्मद को पाकिस्तानी कहा जाने लगा. देशद्रोह का केस फ़ाइल हुआ. अब अली मोहम्मद को साबित करना था कि वो अपने मुल्क से प्यार करते हैं.
फिल्म बहुत बारीकी से तरह-तरह के आतंकवाद पर बात करती है
निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म मुल्क ने कई सवालों को साहस के साथ उठाया है. वकीलों की बहस में जब सरकारी वक़ील पूरे परिवार को आतंकी साबित करने की कोशिश में थे तब तापसी साहस से पूछती हैं कि आख़िर टेररिज्म की डेफिनिशन क्या है और फिर सवाल निकलता है कि क्या अनटचेबिलिटी आतंकवाद नहीं है? क्या ऊंची जाति के लोगों का नीची जाति के लोगों पर जुल्म टेररिज्म नहीं है? या इस्लामी टेररिज्म के अलावा आप लोगों को कुछ और टेररिज्म लगता ही नहीं है. और सच्चाई यही है कि सब इस्लामी टेररिज़्म को ही टेररिज़्म मानते हैं बाकि जो भी कुछ क्राइम सामाजिक और राजनैतिक उद्देश्य से होता है उसे कोई आतंकवाद के रूप में परिभाषित ही नहीं करना चाहता क्योंकि यहां दूसरों पर उँगली उठाना सबसे आसान है.
फिल्म में पूछे गए सवाल हम सब के लिए हैं आख़िर वो कौन हैं जो अपने ही मुल्क के बाशिंदों के देश प्रेम को तौल रहे हैं टटोल रहे हैं. आख़िर क्यों हम मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं और हमने अपने ही समाज को हम और वो में बांट दिया है. जब हम कहते हैं मुल्क हमारा है यानी फिर सबका है फिर हमें मुसलमानों से यह पूछने का हक़ किसने दिया कि अपना देशप्रेम उन्हें साबित करना पड़ा.
आज देश में क्या चल रहा है. क्यों मुसलमानों को डराने की कोशिशें की जा रही हैं? क्यों मुसलमानों को शक की नज़र से देखा जा रहा है? अगर मुसलमान शिक्षित नहीं हैं तो दोष किसका है? आख़िर उन्हे वोटबैंक बना देने वाले लोग क्या कर रहे हैं? आतंकवाद एक क्रिमिनल एक्ट है उसे धर्म से क्यों जोड़ा जाता है. गुंडे बदमाश हर जगह मौजूद हैं जो क्राइम करते हैं. क्या गौ हत्या के नाम पर हो रही हत्याएँ आतंकवाद नहीं है? क्या आदिवासियों पर अत्याचार आतंकवाद नहीं हैं? फिल्म ये सारे आज के सवाल उठाने में कामयाब रही है.
फिल्म जाति के मामले में सवाल नहीं उठा पाई हालाँकि यह इतना आसान भी नहीं है, लेकिन फिर भी फिल्म कसी हुई है सबका अभिनय ज़बरदस्त रहा. खासतौर से ऋषि कपूर के अभिनय ने दिल जीत लिया. स्क्रिप्ट और निर्देशन लाजवाब है. यह फिल्म एक नई क़िस्म की फिल्म के रूप में पहचान बना पाएगी. यह फिल्म कितनी बड़ी हिट होगी, इसका अंदाजा लगाने से ज्यादा जरूरी है यह समझना कि इससे लोगों को कई सवालों से जूझने और समझने का मौका मिलेगा.
मौजूदा राजनीतिक माहौल में जब सारी बहस अंत में जाकर हिंदू-मुसलमान पर आकर टिक जाती हों, वहां फिल्म मुल्क समाज की अन्य बुराइयों को आतंकवाद के समान गंभीर लाकर खड़ा करने की कोशिश है.
फिल्म मुल्क की एक झलक :
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