New

होम -> सिनेमा

 |  6-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 25 अक्टूबर, 2021 12:18 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
  • Total Shares

एक गैर मुस्लिम नायक की ओर से किसी आतंकी को कुरान की आयतों का हवाला देते या कुछ इसी तरह से इस्लाम की व्याख्या करने वाले दृश्य हिंदी सिनेमा और उसके शोज में ना जाने कितनी बार दिखाए जा चुके हैं. संवेदनशील खासकर आतंकवाद या अपराध के विषयों पर बनी फिल्मों या शोज में ऐसे दृश्यों का दोहराव इतना हो चुका है कि अब बेहद मामूली, घटिया और औचित्यहीन लगने लगे हैं. लेकिन यह रुक नहीं रहा है. बल्कि मौजूदा दौर में एक अच्छे मुसलमान की छवि गढ़ने के लिए बार-बार लगातार कोशिशें जारी हैं. हमारे सेलिब्रिटी समीक्षक इस ओर ध्यान ही नहीं देते और नजर बचाकर से गुजर जाते हैं. उन्हें ठहरकर दो शब्द आलोचना में लिखने चाहिए. शायद उनके लिखे से सिलसिला भले ना रुके पर थोड़ा कमजोर पड़े या फिर वो परदे पर दिखे भी तो तार्किक रूप से. जबकि मुसलमानों के फिल्मांकन की भेड़चाल को समझना अब कोई मुश्किल काम भी नहीं है.

हिंदी कंटेट में रूचि रखने वाले किसी भी गैर मुस्लिम दर्शक से अगर पूछा जाए कि मुसलमान संविधान-क़ानून, पढ़ाई-लिखाई, आधुनिकता, विज्ञान में भरोसा करता है? लोगों का जवाब ज्यादातर नकारात्मक ही मिले. पहनावे, खान-पान और दूसरे कल्चरल सवाल पूछे जाएं तो शायद और भी नकारात्मक जवाब आए. कहीं ना कहीं इन जवाबों की वजह तमाम माध्यमों पर मुसलमानों का प्रस्तुतीकरण ही है. बॉलीवुड के लिए भारतीय मुसलमानों को अच्छे और बुरे रूप में दिखाने का अपना निजी पैमाना है, जहां एक पूरी कौम की धार्मिक स्वतंत्रता, खान-पान, पहनावा और देशभक्ति हमेशा कसौटी पर टंगा हुआ है.

समझ में नहीं आता कि अगर किसी कहानी में हिंदू, मुस्लिम और सिख को देशभक्ति का सबूत देने या धर्म बताने की जरूरत महसूस नहीं पड़ती तो फिर मुस्लिम किरदारों के लिए यह अनिवार्यता क्यों बना दी है सिनेमा वालों ने? हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रहा शो मुंबई डायरीज, 26/11 अटैक के इर्द-गिर्द रची गई मेडिकल ड्रामा है. एक खैराती अस्पताल की कहानी जहां दवाएं, उपकरण और पर्याप्त संसाधन तक नहीं है. अस्पताल खैराती है तो भला किसी का ध्यान जाए भी तो कैसे? कौशिक ओबेरॉय (मोहित रैना) नाम का एक जिद्दी डॉक्टर है जो पेशे को इतना ईमानदारी से जीता है कि कहने ही क्या. हालांकि इसके लिए कदम-कदम पर उसे निजी तौर पर कीमत भी चुकानी पड़ती है. अटैक के ही दिन ओबेरॉय के पास तीन युवा डॉक्टर ट्रेनिंग के लिए आते हैं. तीनों की पृष्ठभूमि अलग है. इनमें दो हिंदू लड़कियां हैं. एक अमीर परिवार से है. उसके पिता मशहूर डॉक्टर हैं. एक साधारण परिवार से है. तीसरा लड़का है और मुसलमान है. उसका नाम अहान मिर्जा (सत्यजीत दुबे) है. मुंबई पर हमले के बाद घायल इसी संसाधनहीन अस्पताल में लाए जाते हैं जहां पूरा स्टाफ उनकी देखभाल में जुट जाता है. ट्रेनिंग के लिए आए डॉक्टरों को भी काम में लगना पड़ता है.

mumbai diaries 26/11 Reviewअहान मिर्जा के किरदार में सत्यजीत दुबे साथ में कोंकना सेन शर्मा. मुंबई डायरीज का स्क्रीन ग्रैब, अमेजन प्राइम वीडियो से साभार.

अहान मिर्जा का किरदार एक शांत लड़के का है. जो गैर जरूरी सवालों से जबरदस्ती दबा हुआ दिखता है. उसमें आत्मविश्वास नजर नहीं आता. ऐसा सिर्फ मेकर्स की निजी जरूरत के मुताबिक़ है. हो सकता है कि निखिल आडवाणी ने आतंकवाद की कहानी पर टिकी सीरीज को धार्मिक रूप से संतुलित दिखाने की वजह से अहान का ऐसा किरदार गढ़ा हो, ताकि एक ही कहानी में "अच्छे और बुरे मुसलमान" का फर्क समझाया जा सके. मगर दुर्भाग्य से अच्छे मुसलमान को लेकर निर्माताओं की निजी स्थापनाएं कुछ ज्यादा ही साम्प्रदायिक, द्वेषपूर्ण और हद दर्जे तक घटिया नजर आती हैं. एक दृश्य में अहान से पूरा नाम (सरनेम) पूछा जाता है तो वो 'आत्मग्लानि' के बोध से ग्रस्त होकर बोलता है- "मुसलमान हूं." जबकि यहां पूरा नाम पूछने का कोई तुक ही नहीं था. वैसे भी किसी का सरनेम क्यों ही पूछना चाहिए? वो भी तब, जब आप कहानी में उसी किरदार के मुंह से पहले ही उसका पूरा नाम बता रहे हैं. चलिए, वो मिर्जा ही बता देता तो क्या इससे समझ नहीं आता कि वो एक मुसलमान ही है!

निर्माताओं ने अहान के डॉक्टर बनने की कहानी के पीछे की एक बहुत ही घटिया प्रेरणा को गंदे तरीके से फ्लैशबैक में दिखाया है. अहान मुंबई जैसे शहर का नागरिक है. पहनावे, रहन-सहन से उसका परिवार ठीक-ठाक नजर आता है. उसकी बहन बीमार है. उसे मिर्गी का दौरा पड़ा है और माता-पिता बेटी को अस्पताल ना ले जाकर एक फ़कीर से झाड़फूंक कराए दिखते हैं. वह, वैसा ही फ़कीर और ओझा है जैसे रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में ओझा-फ़कीर दिखते रहे हैं. एक रुढ़िवादी मुस्लिम परिवार को दिखाने के लिए यह दृश्य इतना हास्यास्पद है कि अब क्या ही कहें. सीन को लिखने वाले और फिल्माने वालों की बुद्धि पर तरस आता है कि उनका दिमागी दायरा कितना संकुचित और हवा हवाई प्रतीकों से गस्त होगा. अहान, बार-बार इलाज की बात दोहराता रहता है मगर उसके माता-पिता खारिज कर देते हैं.

ठीक है. रूढ़ीवाद हर धर्म में है और हो सकता है कि मुसलमानों में दूसरों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही हो. लेकिन भला शहरों में ऐसे कितने माता-पिता मिलेंगे जिनके बच्चे जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं, बच्चे की हालत देखकर वे बेजार रो भी रहे हैं, लेकिन उसे अस्पताल नहीं ले जाना चाहते. क्योंकि उन्हें भरोसा है कि फ़कीर की झाड़फूक से सबकुछ ठीक हो जाएगा. एक हद तक साधारण बीमारियों में माना जा सकता है कि धार्मिक रूप से रूढ़ परिवारों में यह सब होता है. लेकिन आपातकालीन स्थिति में भला दुनिया का कौन मां-बाप ऐसा करने की हिम्मत दिखाता है. यह दृश्य मुस्लिमों का द्वेषपूर्ण चित्रांकन है. इन दृश्यों का निष्कर्ष (जो द्वेषपूर्ण प्रोपगेंडा की तरह है) बहुत ही खतरनाक बनकर दर्शकों तक पहुंचता है. ऐसे दृश्यों के लिए निजी समझ और उनकी मूर्खता जिम्मेदार है. मुंबई डायरीज के निर्माताओं ने भी आम मुसलमान को जाहिल, अवैज्ञानिक और धार्मिक रूप से रूढ़ स्थापित कर दिया. यह सिनेमाजगत के उसी निजी निष्कर्ष पर आगे बढ़ता है जो मुसलमानों को या तो दयनीय मानता है या उसे साजिशकर्ता के रूप में देखता है. और इसा वजह से मुसलमान को बार-बार अपनी मानवीयता साबित करनी पड़ती है और देशभक्ति का सबूत देना पड़ता है.

बॉलीवुड के लिए मुसलमान सामान्य नागरिक है ही नहीं. कभी लगता ही नहीं. मुल्क जैसी फिल्मों में भी जिसे दावे के साथ एक आम मुसलमान की पीड़ा समझने वाली फिल्म बताया जाता है. इससे बुरा, घटिया और गंदा भला और क्या हो सकता है कि मुसलमानों को विलेन दिखाकर बेचने वाले और नायक दिखाकर बेचने वाले- एक जगह एक बिंदु पर सामान नजर आते हैं. एक ही मां की कोंख से जन्मे सगे भाई जो एक जिस्म दो जान हैं.

#मुंबई डायरीज 26/11, #मोहित रैना, #मुसलमान, Mumbai Diaries 26/11, Mumbai Diaries 26/11 Review, Muslims In Mumbai Diaries 26/11

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय