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Updated: 29 नवम्बर, 2022 03:55 PM
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'आरा जिला घर बा त कवन बात के डर बा' से नीरज पांडे ही जुर्रत कर सकते थे अपने ही प्रदेश के राज नेताओं की अपराधियों और पुलिस दोनों से सांठगांठ और जातिगत की फांस की भी सच्ची कहानी धाराप्रवाह कह डालने की. और उन्होंने की और क्या खूब की है. आखिर पुलिसिया ड्रामा उनका फेवरेट जॉनर( A Wednesday, स्पेशल 26 , बेबी , स्पेशल ops, ऐयारी , विक्रम वेधा आदि) भी तो है. यूं तो बिहार में खादी और अपराध के समीकरण की कई काल्पनिक कहानियां रुपहले परदे पर आयी हैं मसलन गंगाजल, शूल, गैंग ऑफ़ बासोपुर आदि, लेकिन सब की सब अच्छी होते हुए भी अतिरंजित थीं. क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर वो कहते हैं ना तिल का ताड़ बनते देर नहीं लगी. लेकिन बिहार कैडर के रियल कॉप सामान्य कद काठी के राजस्थानी आईपीएस अमित लोढ़ा ने अपने अनुभवों पर बेबाक पुस्तक 'खाकी - द बिहार चैप्टर' लिखी और पांडे जी ने पूरे वृतांत को एडॉप्ट करते हुए एक उत्कृष्ट वेब सीरीज़ रच डाली. यक़ीनन व्यूअर्स अवाक रह जाते हैं सूझता जो नहीं कि कैसे 'खाकी' के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करें. सिर्फ़ कुछ ही शब्द निकलते हैं मुख से - वाह अमित ! पुलिस हो तो अमित जैसी.

Khakee The Bihar Chapter, Khaki, Review, Netflix, Police, Crime, Law, Leaderबिहार वहां के अपराध और सियासत को समझने के लिए खाकी द बिहार चैप्टर से बेहतर कुछ है ही नहीं

सीरीज के सात एपिसोड्स हैं, हर एपिसोड के खत्म होते ही लोढ़ा की किताब का लंबा-सा नाम लिखकर आता है, 'Bihar Diaries: The True Story of How Bihar's Most Dangerous Criminal Was Caught' और वे लेखक के साथ साथ अपनी ही किताब के सबसे प्रमुख किरदार भी हैं. स्क्रीनप्ले लिखा है 'महारानी' फेम उमाशंकर सिंह ने और उन्होंने इत्मीनान के साथ अमित लोढ़ा के बिहार के सफरनामे को धीरे धीरे इस कदर अनफोल्ड किया है कि कहीं बोरियत होती ही नहीं.

हालांकि असली खेल शुरू होता है पांचवें एपिसोड से, तब तक क्रिमिनल और पुलिस दोनों के ही किरदारों को दर्शाने और उनके NOBODY से SOMEBODY और फिर SPECIAL ONE बन जाना स्क्रीन पर चलता रहता है, जो इस कहानी को एंगेजिंग बनाए रखता है. हां, पूरी सीरीज 'उनका' ही सच है जो आज बिहार की सत्ता पर आसीन हैं, सो शर्मसार होना है 'उन्हें' यदि शर्म आती है तो और ज्यादा शर्मसार करती है जनता को चूंकि वही उन्हें ही चुनाव दर चुनाव जिताकर सत्ता पर बैठा रही है.

अब जरा सीरीज की जर्नी ट्रेवल कर लें कुछेक झलकियों के मार्फ़त! और व्यूअर्स बड़ी ही सरलता से किरदारों को एसोसिएट करते चले जाएंगे. एक तो कहानी उस पीरियड की है जब कहा जाता था कि कानून-व्यवस्था एक दम खत्म और जंगलराज चरम पर था, सो जो सुना था या सुनते आ रहे हैं वही हूबहू चलायमान हुआ है परदे पर. एक आईआईटियन आईपीएस हो तो उसे टोका टोकी बर्दाश्त कैसे हो लेकिन फिर भी बिहार का सच निकलता है सहयात्री बुजुर्ग दंपत्ति के मुख से कि बिहार में जो अफसर आता है वो दो ही चीज कमाके जाता है; या तो खूब सारा पैसा या फिर खूब सारी इज्जत.

बिहार है तो वीआईपी के लिए कितना खास अरेंजमेंट हो सकता है, उसका भी अहसास अमित को ज्वाइनिंग के पहले ही हो जाता है लेकिन असल इम्तिहान होता है फील्ड में. जहां खाकी और खादी की मिलीभगत से एक बड़ा खतरा है और एक ईमानदार पुलिस अफसर के लिए काम करना बहुत बड़ी चुनौती. एक स्पष्ट संदेश है सीरीज का कि अगर पुलिस अफसर को ट्रांसफर की परवाह नहीं होगी तो उस पर कोई सरकार दबाव नहीं बना सकती.

बिहार में दादागिरी परवान चढ़ती है नेतागिरी से ही तभी तो हर अपराधी का कनेक्शन किसी न किसी नेता से होता ही है. इशारों इशारों में सत्ताधारी पार्टी के नेता उजियार बाबू में लालू प्रसाद यादव की झलक निलती है, उनका पंगा है विपक्षी नेता सर्वेश बाबू से जो अप्रत्याशित ही सही चुनाव जीत जाते हैं, चन्दन महतो(असल नाम अशोक महतो) पर उनका वरद हस्त है लेकिन जब उनके सुशासन पर धब्बा लगता है महतो की वजह से तब बाबू साहब अपने ईमानदार अफसर को उसके पीछे छोड़ देते हैं वरना तो वही अपराइट अफसर सेंटिंग लाइन में हताशा का शिकार हो रहा था क्योंकि ईमानदार अफसर तभी तक नेता को प्रिय होता है जब तक वह विपक्ष में है.

अब सर्वेश बाबू में अक्स किनके हैं, बताने की जरूरत नहीं है. पांच एपिसोडों की अपेक्षाकृत लंबी अनफोल्डिंग के बाद का पूरा ड्रामा और थ्रिलर ऑपरेशन चंदन महतो के इर्द गिर्द है. इसमें पुलिस की अपनी कमजोरी मसलन चंदन के आदमी का पुलिस में और समाज में मिलाजुला होना और फिर उस चुनौती को एक आईआईटियन आईएएस अफसर अपनी समझ से कैसे जीतता है ... इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए "खाकी" देखना बनता है.

हालांकि कहानी सच्ची है लेकिन ऐसा कुछ भी अलहदा नहीं है, जो पर्दे पर व्यूअर्स ने पहले नहीं देखा है. उस लिहाज से मामला अगर यादगार नहीं बना है, तो बोझिल भी नहीं हुआ है चूंकि कलाकारों ने खूब कंट्रीब्यूट किया है एक रीयलिस्टिक ट्रीटमेंट को. संवाद अच्छे बने हैं, जो बिहार के समाज को बखूबी सामने ले आते हैं. बिहारी लहजे का बेधड़क इस्तेमाल हुआ है सिवाय एसपी अमित लोढ़ा द्वारा जो एक मारवाड़ी हैं.

किसी ने यूं ही उनकी जाति क्षत्रिय बताकर विक्टिम कार्ड नहीं खेला था ( वे हैं भी जो मौजूदा जैन धर्म को फॉलो करते हैं ) लेकिन उन्होंने स्वयं नकार दिया कि वे क्षत्रिय हैं. हां. ‘मैं’ से उनका ‘हम’ बोलने को पता नहीं क्यों खूब बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया है. अमित का 'बहुचर्चित कहावत 'सब धान बाईस पसेरी' का 'सब राइस बाइस पसेरी' नहीं होता कहना' उन्हें आउटसाइडर सिद्ध करने के लिए ही है शायद.

फिर खासकर फिल्म की शुरुआत में एक सीन है जिसमें दंभी एसएसपी के किरदार में आशुतोष राणा कहते हैं. 'तुम्हारा कंधा थोड़ा कम है... और वर्दी ढीली लग रही है ..जिम्मेदारी संभाल पाओगे... 'यह एक प्वाइंट ऑफ व्यू था कि एक पुलिस वाला जो ये वर्दी पहनता है ..वो क्या यह जानता भी है कि उसकी वर्दी उसके लिए फिट है भी या नहीं ... वैसे इस पर्सपेक्टिव की धज्जियां उड़ी है अमित लोढ़ा के किरदार के माध्यम से!

दिल को छू जाती है बात जब एक आम आदमी कहता है कि 'हम कभी एप्लीकेशन देते हैं, कभी ट्रेन रोकते हैं, शायद किसी दिन भारत भाग्य विधाता की नज़र हम पर भी पड़ जाए.' एक और मार्मिक कथ्य है कि 'बहुत बार पुलिस और चंदन महतो में बस वर्दी का फ़र्क रह जाता है.' साथ ही अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि कहें कि 'खाकी द बिहार चैप्टर..'

खाकी और खादी की गुत्थी को बहुत हद तक खोल पाती है. कहने को कोई कह भी सकता है कि कहानी पुलिस पर्स्पेक्टिव में हैं तो स्पष्ट और सीधा सवाल है क्या किसी ने 'सच' को नकारा? बात करें अभिनय की तो निःसंदेह लोकप्रिय नाम नहीं है लेकिन सारे के सारे एक्टिंग के सिरमौर जरूर हैं. चन्दन महतो के किरदार में अविनाश तिवारी ने बढ़िया एक्टिंग की है.

अपने लुक से लेकर बॉडी लैंग्वेज तक वह खूब जमा है.SSP मुक्तेश्वर चौबे के तौर पर आशुतोष राणा भी जमते हैं, थोड़ा ओवर हैं लेकिन करैक्टर ही ओवर है. विनय पाठक हैं मुख्यमंत्री उजियार बाबू लेकिन करने को ख़ास था ही नहीं रोल ही छोटा जो है.

अभ्युदय सिंह बने रवि किशन ने उत्कृष्ट अभिनय किया है और खासकर उनके बैडमिंटन खेलने के दौरान किसी चमचे का टेनिस प्लेयर मार्टिना हिंगिस की बात करना ग्रेट ह्यूमर क्रिएट कर जाता है. करण टेकर के लिए एसपी अमित लोढ़ा का रोल एक जबरदस्त मौका साबित हुआ है, जिसे उन्होने बखूबी निभाया है. जतिन सरना (च्यवनप्राश), अभिमन्यु सिंह(रंजन कुमार) और अनूप सोनी( डीआईजी पासवान) भी अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं.

ऐश्वर्या सुष्मिता सीमित भूमिका में भी याद रह जाती है. खासकर अभिमन्यु सिंह तो पूरी वेब सीरीज के सूत्रधार भी हैं और उनकी आवाज के लिए इतना ही कहें कि ग्लैमरस तो नही है लेकिन आर्टिस्टिक है और इसी वजह से सीरीज के लिए माकूल है.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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