पूजा दीदी के विज्ञापन में छुपा है विश्वगुरु बनने का नुस्खा...
विज्ञापन का उद्देश्य अपने ‘प्रोडक्ट’ -को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की नज़रों तक पहुंचाना बेचना होता है. फिर भी, कई बार कुछ ऐसी फिल्में आ जाती हैं जो पैसा कमाएं या न कमाएं पर मनोरंजन के अलावा एक इमोशनल टच भी दे जाती हैं.
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फिल्में अमूमन पैसा कमाने के लिए बनती हैं और विज्ञापन का उद्देश्य अपने ‘प्रोडक्ट’ को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की नज़रों तक पहुंचाना बेचना होता है. फिर भी, कई बार कुछ ऐसी फिल्में आ जाती हैं जो पैसा कमाएं या न कमाएं पर मनोरंजन के अलावा एक इमोशनल टच भी दे जाती हैं. ये उनका स्ट्रेटेजी प्लान होता है. लेकिन विज्ञापन, उनका ऐसा कोई उद्देश्य नहीं होता. वो क्लोज़अप शॉट में कलाकार का चेहरा नहीं बल्कि प्रोडक्ट का लोगो दिखाते हैं. आज के दौर में जिनके पास यूट्यूब का प्रीमियम प्लान नहीं है, उन्हें मनपसन्द वीडियो देखने के लिए कई बार लम्बे-लम्बे ad. झेलने पड़ते हैं. वो ज़बरदस्ती प्रमोशन किसी टार्चर से कम नहीं लगता. फिर भी, जज सुन्दर लाल त्रिपाठी (जॉली एलएलबी) की भाषा में सालो में, दशकों में कोई एक ऐसा विज्ञापन आ जाता है कि जिसपर 5-7 मिनट खपाने का अफ़सोस नहीं होता बल्कि दुनिया के साथ शेयर करता है.
कुछ विज्ञापन ऐसे होते हैं जो इमोशनल कर देते हैं
एक डेढ़ दशक पहले जब मैं अमृतसर में रहता था तब शाम के वक़्त दूध लाने की ज़िम्मेदारी मेरी होती थी. जिस डेरी से दूध लाना होता था वो कोई दस मिनट के वाकिंग डिस्टेंस पर थी. वो सरदार जी अपने आप में अनोखे शॉपकीपर थे. सवा छः फिट से निकलता कद, अफगानियों सा रंग, कुर्ते सलवार और मैचिंग पग में सजे सदा मुस्कुराते मिलते थे. जब पूछो तब सब बढ़िया जी.
अमृतसर में दुकानदार हर हफ्ते छुट्टी नहीं करते, वहां आख़िरी इतवार को छुट्टी रखने का रिवाज़ है. लेकिन हमारे सरदार जी का जब मन होता कहीं घूमने घामने का, तब बुलेट उठाते और तरन-तारन, व्यास या आनंदपुर साहेब निकल जाते और एक नोटिस चिपका जाते, ‘दुकान अगले वीरवार तक बंद रहेगी’
उनसे मेरी ट्यूनिंग अच्छी थी. हाई-हेलो सत श्रीअकाल का रिश्ता था. एक रोज़ मैं दो किलो दूध लेकर उनकी दुकान से दस कदम आगे बढ़ा ही था कि किन्हीं नामुरादों की वजह से दूध की डोल हाथ से निकल गयी और सारा दूध सड़क पर फैल गया. कुछ को कुत्ते चाट गए, कुछ नाली में मिल गया. रोज़ नगद दूध ही लिया जाता था, कार्ड एंट्री टाइप चोंचले हमने नहीं पाले थे. अब मैं गिने हुए पैसे लाया था सो फिर घर गया, बताया ऐसे-ऐसे दूध लुढ़क गया.
डांट खाई, फिर लौटकर दुकान पर पहुंचा और रोती सूरत लिए फिर दूध मांगा. सरदारजी ने तड़ लिया. पूछ बैठे 'की होया? हुने त तू ले के तुरेया सी?' मैं धीरे से बोला ;सारा रोड च डुल गया भाजी, कुछ एक कंजरे रास्ते च लड़दे...'
ओहो कोई नई, फ़िक्र न कर यारा, हो जांदा है कदी-कदी” इतना कहते दूध तोलने लगे. अब जब पैसे देने की बारी आई तो डांट दिया. कहते 'तेरी कीवें गलती? तू जानबूझकर थोड़ी सुट्या! चल ले जा, फ़िक्र न कर' और हंस दिए. कई बार मिन्नतें की फिर भी पैसे न लिए और मुस्कुराते गाना गाने लगे. अनायास ही मेरी आंखों से आंसू छलक आए.
ठीक वैसा ही महसूस हुआ जब फेसबुक का हालिया विज्ञापन पूजा दीदी देखा. इसमें अमृतसर की एक लड़की को जब ये पता चलता है कि कोरोना के कारण लाखों लोगों की नौकरी-धंधे ठप्प हो गए हैं तो बिना कुछ सोचे-समझे फेसबुक पर एक पोस्ट डाल देती है कि पूजा डेरी में कुछ वर्कर्स की ज़रुरत है, जबकि उसके अपने काम करते तीन बंदे भी जैसे-तैसे गुज़ारा कर रहे होते हैं.
उसका भाई मना भी करता है, ख़र्चों की दिक्कत भी आती है तो वो बस एक ही बात कहती है 'पापा कहते थे कि कुछ ऐसा काम करो जिससे दुकान छोटी लगने लग जाए'
इस विज्ञापन का अंत देखकर भी मेरी आंखें भीग गयी थीं. दो बार ही देख सका, तीसरी बार देखने की हिम्मत ही न हुई. ये विज्ञापन हमें, हमारे समाज को एक बहुत बड़ा सबक देता है कि हम (भारतीय) मास प्रोडक्शन में भी सक्षम हैं और पर्चेज़िंग पॉवर भी हमारी किसी से पीछे नहीं है. हम बेचना भी जानते हैं और खरीददारी में भी सक्षम हैं. हमें रोज़गार देना भी आता है और आउटपुट निकालना भी. बस दो बातें हमें सीखनी/समझनी होगीं, पहली ये कि हम अपनी संस्कृति पहचानें, वो संस्कृति जो दुनिया भर की मदद करना सिखाती है.
अपने साथ-साथ सबका भला हो, ये समझाती है और दूसरी है हमारी एक जुटता, हम अगर बिना किसी भेदभाव के एक हो जाएं तो क्या नदिया क्या पार, क्या अमेरिका क्या यूएसएसआर, सारे विश्व की मार्किट हमारे क़दमों में होगी और तब हम वाकई में विश्वगुरु बनने की पहली सीढ़ी चढ़ेंगे. इस डिप्रेसिंग साल में, फेसबुक का ये विज्ञापन एक सुकून की ठंडी हवा जैसा है. ये हमारे भारत को सही रिप्रेजेंट करता है.
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