QALA Review : Netflix पर आई टॉक्सिक कहानी अगर अनकही ही रहती तो ज्यादा अच्छा था!
अन्विता दत्त की 'कला' म्यूजिकल ड्रामा है. जिसका म्यूजिक शानदार है, कलाकारों की अदाकारी जानदार है. बात यदि एक फिल्म के रूप में कला की हो तो फिल्म मानवीय भावों और जटिलताओं की विषाक्त और वर्जित कहानी कह रही है.
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ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और ढृढ़ता को केंद्रित कर बनाई गई बॉलीवूडी म्यूजिकल ड्रामों की एक लंबी श्रृंखला है. ऐसे में जिक्र सत्तर के दशक की ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित 'अभिमान' और 2011 में आई इम्तियाज अली की 'रॉकस्टार' का अवश्य ही बनता है. अन्विता दत्त की 'कला' भी म्यूजिकल ड्रामा है जिसका म्यूजिक शानदार है, कलाकारों की अदाकारी जानदार है लेकिन वे मानवीय भावों और जटिलताओं की विषाक्त और वर्जित कहानी कह रही हैं. आलम ऐसा क्रिएट होता है कि सुने बिना रहा भी नहीं जाता जबकि एक पल तो म्यूजिक के लिए वितृष्णा सी हो जाती है. क्या संगीत कला में परवान चढ़े कलाकारों की, ख़ासकर फीमेल की कहानी इस कदर ‘काली’ है ? क्या हर सफल गायिका की, अदाकारा की कोई MeToo टाइप कहानी है ? क्या लड़कियां ईर्ष्यावश इस प्रकार की पहल तब किया करती थीं या कर सकती थीं वाइट कालर प्रतिस्पर्धा के नाम पर ? चूंकि म्यूजिकल फिक्शन है तो सारे सवाल बैमानी है, अपवाद हो ही सकते हैं पवित्रता के! सो एक कहानी विषाक्त पवित्रता लिए हो सकती है. लेकिन संगीत अपने आप में एक पवित्र विधा है और यही शाश्वत है. एक निर्देशक के रूप में अन्विता दत्त की दूसरी फिल्म है, पहली सुपरनैचुरल थ्रिलर 'बुलबुल' थी और नेटफ्लिक्स पर ही स्ट्रीम हुई थी और अनुष्का शर्मा ही प्रोड्यूसर भी थी.
जिन्हें वाक़ई अलग तरह का सिनेमा देखना है वो बाबिल और तृप्ति की फिल्म कला का रुख जरूर करें
'बुलबुल' के नारीवादी स्वर, जिन्होंने भी देखी थी, बिसर ही नहीं पाए थे कि अब 1940 के दशक की कहानी 'कला' के नारीवादी स्वरों की गूंज लंबे समय तक रहेगी. हां, जो अक्षम्य कृत्य सुश्री कला मंजुश्री ने किया, जो रास्ता अख्तियार किया, घृणित होते हुए भी उससे सहानुभूति पैदा करते हैं इस सवाल के साथ कि आखिर किसे फॉलो करती? पूरी फिल्म कला के द्वंद्व, उसकी कुंठा और अंततः उसकी मानसिक अवस्था का कलात्मक सिनेमा है जिस वजह से उसकी वैंपर छवि भी देर तक नहीं टिकती और मन नहीं मानता कि उसने जान दे दी.
एक और कॉमन बात है दत्त की दोनों फिल्मों की - बुलबुल भी तृप्ति डिमरी थी और कला भी तृप्ति ही है. और एक बार फिर वह तृप्त करती है अपने अभिनय से. कला की मां है उर्मिला जिसे निभाया है स्वास्तिका मुखर्जी ने. एक अबूझ पहेली से किरदार को स्वास्तिका खूब निभा ले जाती है और ऐसा करने में उसकी अबूझ आंखों का बड़ा योगदान है. क्रिटिकली प्रशंसित मुखर्जी की जीत ही है कि व्यूअर ना चाहते हुए भी उससे घृणा करता है.
जिस बच्ची को वह सीख देती है कि दिवंगत पिता की विरासत के अनुरूप उसके नाम के आगे पंडित लगना चाहिए उसके पीछे बाई नहीं, कालांतर में जगन को उस पर इस कदर तरजीह देती है कि वह नहीं चाहती 'कला' भी गाए और जगन को फिल्मों में मौक़ा दिलाने के लिए वह उस समय के नामचीन गायक सान्याल के बिस्तर पर बिछ जाती है. व्यूअर समझ नहीं पाता कैसे माता 'कुमाता' हो सकती है या फिर कोई कनेक्शन है जिसे जानबूझकर अन्विता ने छिपा लिया है.
बाबिल खान का डेब्यू रोल है जगन. शायद पहचाना नहीं बाबिल खान को. इरफ़ान खान की यादें ताजा कारा देता है बाबिल और यकीन मानिये दिवंगत इरफ़ान को भी गर्व हो रहा होगा बेटे के परफॉरमेंस पर. बाबिल का रोल अपेक्षाकृत छोटा है लेकिन असरदार है. गुरुद्वारे का यतीम गवैया जगन ऐसे बदलाव से गुजर रहा है जिसकी उसे उम्मीद नहीं थी. कह सकते हैं एक प्रगतिशील ड्रामा है, उद्देश्य है चीजों को रेखांकित करना इस मायने में कि समय बदल जाता है लेकिन वास्तविकता वही रहती है क्योंकि पावर की पसंद अपरिवर्तित है मसलन सेक्सुअल हरासमेंट है.
मेल फीमेल के लिए नियम अलग अलग हैं; किसी भी पद पर, पोजीशन पर महिला है तो 'महिला है' कहकर कमतर बताना है. हां, परिस्थितियां, जिनमें महिला स्वयं वैम्प बन जाती है, अनुत्तरित रह जाती हैं. निःसंदेह 'कला' की परिस्थितियां स्पष्ट होती है जिसके लिए फिल्म एक पल वर्तमान में चलती है दूसरे ही पल अतीत को खंगालती है। कहने में कोई उज्र नहीं है कि अन्विता सक्षम है, दक्ष है इस प्रकार अपनी बात रखने में, कहानी कहने में. हां, ऐतराज हो सकता है जिस प्रकार यौन विकृति परिलक्षित होती है एक दो जगह पर.
शायद ओटीटी प्लेटफार्म की बाध्यता एक वजह हो. या फिर ऐसा चिरकाल से चला आ रहा है जिसे इंगित करने की हिम्मत अन्विता ने जुटाई है. कुल मिलाकर कहानी अच्छी है और कलात्मक तरीके से कही गई है. जब पता चलता है कला मंजुश्री को क्या कचोट रहा है कि वह रोते हुए कहती है,'मां, मेरे साथ कुछ गड़बड़ है ', बिखरी बिखरी सी लगती कहानी बांधती है व्यूअर्स को. फिर हर एक्टर लाजवाब है ही.
अन्य कलाकार, वो चाहे वरुण ग्रोवर हों, अमित सियाल हों या फिर अभिषेक बनर्जी, परफेक्ट हैं, जब जो निभाने को मिला, खूब निभाया है. वरुण ने तो एक गाने के बोल भी लिखे हैं और उसका किरदार तो अच्छा और गंभीर हास्य भी बिखेरता सा प्रतीत होता है. और अंत में अमित त्रिवेदी के म्यूजिक का क्या कहना ? उनकी काबिलियत पर संदेह हो ही नहीं सकता, वे सिर्फ अपने गानों के बूते व्यूअर्स को रोक सकते हैं.
क्या खूब शर्मा बांधते हैं वे तक़रीबन सत्तर अस्सी साल पहले, जब सिनेमा कलकत्ता में चमकता था, के म्यूजिक का. यक़ीनन बढ़िया स्मार्ट टीवी पर बढ़िया म्यूजिक सिस्टम के साथ 'कला' देखी तो जाता हुआ साल सिनेमाई होता नजर आएगा. फिर मोशन पिक्चर फोटोग्राफी भी उम्दा है. हिमाचल एंगल भी लुभाता है. एक बार फिर जीवन के फलसफा को समेटती कबीर की दो लाइनें, जिन्हें फिल्म ने भी सटीक अडॉप्ट किया है, गुनगुना दें -
ऐसी मरनी जो मरे बहुर ना मरना होय
कबीरा मरता मरता जग मुआ, मर भी ना जाने कोय !!
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