गब्बर की अदाओं का एक ही जवाब है, खुद गब्बर
बिना विलेन के शायद ही कोई फिल्म पूरी होती है. लेकिन फिल्म शोले में अमजद खान ने गब्बर सिंह के किरदार को एक ऐसा विलेन बना दिया जिसका खौफ मौत भी नहीं दूर कर सकी. इस डर के बीच गब्बर सिंह अमर हो गया.
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बचपन में पर्दे पर जब वो शख्स नज़र आता तो मैं डर जाता. अपनी माँ से कहता गब्बर सिंह आ गया. फिल्म कोई भी हो लेकिन उसका नाम गब्बर सिंह था. 70 के दशक में हिंदी सिनेमा का सबसे बड़ा और खतरनाक खलनायक. ये जादू था अमजद खान की अदायगी का.
गलती सुधारने के लिए लड़की का किरदार निभा गए...
अमजद के भाई इम्तियाज़ खान ने स्टेज पर अमजद की हाज़िर जवाबी का एक क़िस्सा सुनाया. एक बार अमजद कॉलेज के लिये एक नाटक में काम कर रहे थे. कॉमेडी प्ले था. नाटक की शुरूआत में ही अमजद का एक डायलॉग था, जहां उन्हें कहना था, 'मैं जा रहा हूं', और ये कहने के बजाय ग़लती से उनके मुँह से निकल गया 'मैं जा रहीं हूँ'. फिर क्या था लोग ज़ोरों से हँसने लगे और अमजद के साथियों को लगा ग़लती भारी पड़ेगी. मगर अमजद ने उसके बाद पूरे नाटक में लड़की की तरह किरदार को निभाना शुरू कर दिया और दर्शक हंस हंस कर लोटपोट हो गये. किसी को पता नहीं चला कि कब अमजद ने अपनी ग़लती को ही अपनी अदायगी का हिस्सा बना लिया.
गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान |
...और ऐसे किया 14 साल की शहला को प्रपोज
अमजद की पत्नी शहला ने बताया मिज़ाज के वो बहुत हँसमुख और सबकी मदद करनेवाले इंसान थे. फ़िल्मों के अलावा उनके दो ही शौक़ थे. एक कैरम खेलने का और दूसरा चाय पीने का. दिन में 40 से 50 कप चाय वो पी जाते थे. मज़ाक़ में अकसर वो अपनी पत्नी के लिये कहते थे 'मेरी पत्नी ने पैदा होने से दो दिन पहले शादी कर ली'. दरअसल अमजद-शैहला की शादी के दो दिन बाद शहला का जन्मदिन पड़ता था. अमजद ने अपनी पत्नी को प्रपोज़ भी बड़े अलग अंदाज में किया था. शहला का घर अमजद के घर के बहुत नज़दीक था. दोनों के घर एक ही कंपाउन्ड में थे. शहला अक्सर गार्डन में शाम को टहलती थी और अमजद वहीं पास में दोस्तों के साथ कैरम खेलते थे. शैहला महज़ 14 साल की थी और अमजद 21 साल के थे. दोनों की नज़रें अकसर टकराती मगर बात मुस्कुराहट के आगे कभी नहीं बढ़ी. फिर एक दिन पतले दुबले अमजद शैहला के पास पहुँचे और दो टूक उनकी उम्र पूछी ली. शैहला ने बताया वो 14 साल की हैं. ये सुनकर अमजद ने बेबाकी से कहा 'जल्दी से बड़ी हो जाओ, मैं तुम से ही शादी करूँगा'. हालाँकि दोनों की शादी 5-6 साल बाद हुई. मगर शहला के पिता मशहूर डायलॉग राइटर अख़्तर-उल-ईमान इस शादी के ख़िलाफ़ थे. उनका कहना था जो लड़का एक बेरोज़गार स्ट्रगलिंग एक्टर हो वो ख़ुद क्या खायेगा और अपनी पत्नी को क्या खिलायेगा. लेकिन आख़िरकार प्यार करनेवालों की जीत हुई.
'शोले' मिलने की कहानी...
कुछ दिनों के बाद ही अमजद खान एक नाटक में काम कर रहे थे. वहां उनके साथ उस वक्त के युवा निर्देशक रमेश सिप्पी की बहन भी उसी नाटक में थीं और फिर वहीं से रास्ता बना शोले का. वैसे तो सलमान के पिता सलीम खान ने रमेश सिप्पी से अमजद की सिफ़ारिश की थी मगर बाद में रमेश सिप्पीक की बहन ने भी अमजद की बहुत तारीफ़ की और आख़िरकार वो कास्ट किये गये गब्बर सिंह के लिये. वैसे अमजद के पहले ये रोल डैनी निभाने वाले थे. लेकिन उनकी डेट्स नहीं मिल पाई और जो रोल डैनी ने छोड़ा उसने अमजद खान की ज़िंदगी बना दी. फिर शुरू हुई तैयारी शोले की. अमजद ने रमेश सिप्पी के साथ गब्बर सिंह के किरदार को लेकर बहुत विचार किया. अलग अलग चीज़ें जोड़ीं. जैसे अमजद फिल्म शोले में जब सांभा को पुकारते हैं तो उनका एक अंदाज था जिसकी लोग आज भी नक़ल करते हैं- 'अरे हो साँभा, सरकार कितना इनाम रखी है हमपर'. दरअसल अमजद खान के यहाँ काम करने वाला एक धोबी भी कुछ इसी अंदाज में अपनी पत्नी को बुलाता था. और उसी अंदाज को अमजद ने अदायगी के ज़रिये अमर कर दिया. शोले जिस दिन अमजद ने साइन की उसी दिन उनके बेटे शहदाब का जन्म हुआ था. शहदाब कहते हैं ये एक ख़ूबसूरत इत्तिफ़ाक़ था उनके माता पिता के लिये.
शोले के सेट पर अमिताभ, धर्मेंद्र, संजीव और अमजद |
सलीम-जावेद ने माना था अमजद को कमजोर कड़ी
शहदाब ने बताया शोले का सफ़र उतना आसान नहीं रहा जितना फिल्म साइन करने का बाद लग रहा था. शूटिंग के दौरान जिस तरह अमजद किरदार को निभा रहे थे, उनके इर्द गिर्द लोगों को बहुत ज़्यादा अच्छा नहीं लग रहा था. कई बार रीटेक भी होने लगे. एक वक्त ऐसा आया जब फिल्म के राइटर्स सलीम-जावेद ने माना उनसे ग़लती हो गई है. और दोनों ने रमेश सिप्पी से कहा कि अगर वो किसी और एक्टर को कास्ट करना चाहें तो कर सकते हैं. लेकिन रमेश सिप्पी अपने फ़ैसले से हटे नहीं. आख़िरकार फिल्म की शूटिंग ख़त्म हुई और फ़िल्म की यूनिट से जुड़े कई लोगों को लगा कि शोले की सबसे कमज़ोर कड़ी अमजद खान हैं. बात यहाँ थमी नहीं, सलीम जावेद ने यहाँ तक कहा कि उनके खलनायक की आवाज़ में दम नहीं है और डिबिंग किसी और से करवानी चाहिये. अमजद बहुत नर्वस थे. उनके सपोर्ट में अमिताभ और जया बच्चन ज़रूर खड़े रहे. काफ़ी सोच विचार के बाद अमजद की आवाज़ में ही डबिंग हुई. फिल्म रिलीज़ हुई तो प्रीमियर की रात तक अमजद को पता चल गया था कि सलीम जावेद उनके ख़िलाफ़ थे. अमजद अपने ग़ुस्से पर क़ाबू ना रख सके और दोनों से बहुत ज़ोरदार झगड़ा हो गया. आख़िर तक अमजद ख़फ़ा रहे और उनका मानना था अगर रमेश सिप्पी ने अपने लेखकों की बात मान ली होती तो उनका करियर तबाह हो जाता.
शोले के प्रीमियर की रात अमजद ने क़सम खाई थी सलीम-जावेद की लिखी किसी फिल्म में वो काम नहीं करेंगे और अपनी बात पर उन्होंने अमल किया. शोले की रिलीज़ के बाद शुरू में तो फिल्म को फ़्लॉप करार दिया गया मगर धीरे धीरे फिल्म ने ऐसी तेज़ी पकड़ी. जो इतिहास बन गई और शूटिंग के दौरान जो एक्टर सबसे कमज़ोर कड़ी माना जा रहा था, वो बन गया हिंदी सिनेमा का सबसे बड़ा और मशहूर खलनायक. और उसकी आवाज़ की नक़ल आजतक की जाती है. शोले के बाद अमजद खान ने एक से बढ़कर एक किरदार निभाये लेकिन उन्हें अफ़सोस ये रहा कि हर किरदार की तुलना गब्बर सिंह से होती और डेढ़ सौ से ज़्यादा फिल्म करने वाले अमजद खान को इस बात को मलाल रहा कि उनकी पहचान सिर्फ़ गब्बर सिंह के तौर पर ही रही.
अमजद के परिवार वालों की माने तो उनका सबसे पसंदीदा किरदार गब्बर के अलावा है फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में वाजिद अली शाह का था. इस फिल्म का निर्देशन किया था जीनियस "सत्य जीत रे" ने. वैसे तो क़ुरबानी, याराना, चमेली की शादी और ना जाने कितनी फ़िल्मों में उन्होंने कॉमेडी भी की. अमजद के बेटे शहदाब का मानना है इतना काम करने के बावजूद उनके पिता के पूरे टेलेंट का इस्तेमाल नहीं हुआ. शैहला का कहना है 80 के दशक में अमजद एक से रोल निभाते हुए बोर हो गये थे और फिर निर्देशन की तरफ़ भी क़दम बढ़ाया मगर वहाँ उन्हें ख़ास सफलता नहीं मिली. 1978 में शूटिंग के लिये गोवा जाते वक्त कार से उनका ज़बरदस्त एक्सीडेंट हुआ था. बाद में दवाइयों की वजह से उनका वजन बढ़ने लगा जो उनके लिये आख़िर तक परेशानी बना रहा. वज़न से जुड़ा एक किस्सा अमिताभ बच्चन का है जब ये दोनों दोस्त साथ चलते थे तो देखनेवाले कहते थे 'लंबाई और चौड़ाई साथ-साथ आ रही हैं'.
अमजद खान भले ही हमारे बीच नहीं हैं मगर उनकी अदायगी में वो ताक़त थी कि आज भी उनकी बात की जाती है और विज्ञापनों में उनके हमशक्ल उनकी नक़ल से अपनी रोज़ी रोटी भी कमाते हैं. जब भी हिंदी सिनेमा के एक्टर्स की बात होगी तो ये ज़रूर कहा जायेगा कि बहुतों ने अच्छा काम किया, मगर "एक था गब्बर" जिसकी बात कुछ और थी.
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