दास को देव बनाती है 'दासदेव'
सुधीर मिश्रा के इस पॉलिटिकल ड्रामा में हर किरदार साजिशों और राजनीति का जाल बुनता है. यहां कोई किरदार अच्छा नहीं है सब फायदे की रोटी सेंकते दिखते हैं. यहां आखिर में बचता है तो इश्क इश्क और सिर्फ इश्क.
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डायरेक्टर सुधीर मिश्रा की ये कहानी दास देव प्यार के ट्रांयगल के साथ राजनीति और साजिश का जाल बनाती एक मौलिक कहानी है जो पर्सनल लाइफ को प्रभावित करती है. राजनीति का पर्सनल लाइफ को प्रभावित करना सचमुच दिलचस्प होता है इसीलिए ये फिल्म दिलचस्पी बढ़ाती है. लेकिन इस कहानी में शरत के देवदास का इटरनल लव नहीं है. इसमें शरत के देवदास और शेक्सपियर के हैमलेट के मिश्रण के साथ मौलिकता का अहसास है. यूपी के जहाना की पृष्ठभूमि से जुड़ी सुधीर मिश्रा की इस कहानी में देव है राहुल भट्ट, पारो ऋचा चड्ढा और चंद्रमुखी जिसे चांदनी नाम दिया गया है वो बनी हैं अदिति राव हैदरी जो इस फिल्म में नरेशन करती नजर आई हैं.
फिल्म शरत के देवदास और शेक्सपियर के हैमलेट की कहानी है
यहां भी देव और पारो बचपन के साथी हैं. पिता विश्वंभर प्रताप यानि मेहमान कलाकार अनुराग कश्यप के हैलीकॉप्टर हादसे के बाद देव को पालता है उसका चाचा अवधेश प्रताप यानि सौरभ शुक्ला. देव जहाना से भाग जाता है नशे का आदी हो जाता है और वहां उसे पालता है अवधेश का दोस्त सहाय यानि दिलीप ताहिल. नशा छुड़ाने के लिए और उसे संभालने के लिए सहाय उसे सौंप देता है कहानी की चंद्रमुखी को यानि चांदनी बनी अदिति राव हैदरी को. शरत के देवदास की पारो की तरह सुधीर के दास देव की पारो भी अपने देव को जिम्मेदार शख्स की तरह देखना चाहती है जो परिस्थितियों से लड़े उनसे भागे नहीं. सहाय और चांदनी मिलकर देव को राजनीति में लाने के लिए खड़ा करते हैं.
हम पूरी तरह इस फिल्म की शरतचंद के उपन्यास से तुलना नहीं कर सकते. दरअसल दास देव मुझे शेक्सपियर के हैमलेट की तरह भी लगी. ट्रेजिक, ग्रे और धोखे के रंग में घुलीमिली. शेक्सपियर का हैमलेट स्वभाव से विषादग्रस्त तथा दीर्घसूत्री है और वो प्रतिहिंसा का कार्य टालता जाता है. और अपनी प्रतिहिंसा की भावना छिपाने के लिए वो एक विक्षिप्त व्यक्ति के जैसा व्यवहार करता है जिससे लोगों को लगता है कि वो लार्ड चेंबरलेन पोलोनियस की बेटी ओफीलिया के प्रेम में पागल हो गया है. ओफीलिया को उसने प्यार तो किया था लेकिन बाद में उसके प्रति हैमलेट का व्यवहार अनिश्चित और व्यंगपूर्ण हो गया.
शरतचंद के उपन्यास से फिल्म की तुलना नहीं कर सकते
ठीक इसी तरह विषादों से घिरा सुधीर का देव भी प्रतिहिंसा टालता है और छिपाने के लिए नशा करता है. हैमलेट की तरह यहां भी लगता है कि वो चांदनी को प्यार करता है लेकिन नहीं वो तो बस पारो के इश्क में पागल है. यही नहीं उसके अंदर एक जिम्मेदार देव भी होता है जो जहाना आने से पहले नशा छुड़ाने के लिए खुद को अपने ही कमरे में चांदनी की मदद से हथकड़ियों से बांध लेता है क्योंकि उसे अपने गांव जाना होता है और वो वहां जाने के लायक बनना चाहता है पारो के लायक बनना चाहता है. जिम्मेदारियां वहन करने के लायक बनना चाहता है. शरत का देव गैरजिम्मेदार और पलायनवादी ज्यादा है इस देव की तुलना में.
कहानी आगे बढती है देव जब वापस आता है तो चाहत और लत के साथ अब उसके जीवन में पॉवर भी आ जाता है. लेकिन दिलचस्प मोड़ लेते हुए पारो और देव के प्रेम के बीच भी आ जाती है राजनीति. और देव के सामने ऐसे ऐसे राजनीति की परतें खुलती हैं कि वो खुद को इस दलदल में फंसा पाता है. वो फिर भागना चाहता है लेकिन पारो कहती है फाइट करो तो वो फाइट करता है.
फिल्म में हर किरदार साजिशों और राजनीति का जाल बुनता है
सुधीर के इस पॉलिटिकल ड्रामा में हर किरदार साजिशों और राजनीति का जाल बुनता है. यहां कोई किरदार अच्छा नहीं है सब फायदे की रोटी सेंकते दिखते हैं. यहां आखिर में बचता है तो इश्क इश्क और सिर्फ इश्क.
सुधीर का देव चाहत के नशे और पॉवर का आदी होकर प्यार को जिताकर देव बन जाता है. शरतचंद्र का देव जब जेहन में आता है तो लगता है एक सभ्य परिवार का सभ्य लड़का नशे का दास बन गया है. लेकिन सुधीर मिश्रा के देव में एक अच्छी बात रही कि वो दास नहीं बना. शरत का देव, देव से दास बनता है और सुधीर का देव दास से देव बनने की यात्रा करता है. फिल्म में हर किरदार की दमदार एक्टिंग है. गौरव सोलंकी के लिखे गानों और स्वानंद किरकिरे के सुरों ने महफिल लूट ली है मेरी तरफ से फिल्म को चार स्टार.
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