हॉलीवुड, हॉरर और साइंस फिक्शन फिल्मों के शौकीन हैं तो 'लाइफ' में सब मिलेगा
बॉलीवुड में 'लाइफ' जैसी फिल्में बनाने का प्रचलन नहीं है. शायद 'कृश' इस जॉनर की सफल फिल्म रही है. यदि कारणों को देखें तो इसमें हॉलीवुड के अब तक के सर्वश्रेष्ठ स्पेशल इफेक्ट्स और सामाजिक दृष्टिकोण हैं.
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डेनियल एस्पिनोसा की 'लाइफ', साइंस फिक्शन हॉरर फिल्म है, और हॉलीवुड में इस जॉनर की फिल्में कई दशकों से बनती आ रही हैं. बॉलीवुड में इस तरह की फिल्में बनाने का प्रचलन नहीं है. शायद कृश इस जॉनर की सफल फिल्म रही है. यदि कारणों को देखें तो इसमें हॉलीवुड के अब तक के सर्वश्रेष्ठ स्पेशल इफेक्ट्स और सामाजिक दृष्टिकोण हैं. पाश्चात्य सभ्यता ने पृथ्वी के कोने-कोने की खोज करने के बाद पिछली सदी के छठे दशक में चंद्रमा पर मनुष्य को पहुंचा दिया. इसी कारण स्टार ट्रैक और स्पेस ओडिसी जैसी फिल्में बनीं. भारत में कुछ वर्षों पहले तक सोच और चेतना प्यार, रोटी, कपड़ा और मकान जैसे विषयों पर पूरी तरह केंद्रित थी और इसका प्रभाव हमारी फिल्मों पर दिखता है. हां, अब हम चंद्रयान और एक साथ कई उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने का विश्व रिकॉर्ड बनाने के बाद स्पेस केंद्रित विषयों पर लिखेंगे और फिल्म बनाएंगे. आखिर, स्पेस पर विश्वसनीय साइंस फिक्शन या साइ-फाइ फिल्म बनाने के लिए वीएफएक्स टेक्नोलॉजी (जिसका इस्तेमाल रा-वन में हुआ) को अपनाना होगा और अभी यह भारत में मुश्किल है. आखिरकार, जितने पैसों में ग्रैविटी जैसी फिल्म बनी उतने में तो भारत ने चंद्रयान को चंद्रमा की सतह पर उतार दिया.
वैसे हॉलीवुड और बॉलीवुड में एक जैसे दिग्गज कारोबारी हैं और इसीलिए वे एक ही तरह से ऑपरेट करते हैं. हम अगर रईस देखें तो कहेंगे कि कुछ नहीं है क्योंकि इस फिल्म ने दीवार, दयावान और सरकार जैसी फिल्मों की कथा-पटकथा का सम्मिश्रण किया और वही कहानी दर्शकों को परोस दी. अगर हम लाइफ को गौर से देखें तो यह फिल्म भी रिड्ले स्कॉट की 1978 में आई एलियन और इसकी कई सीक्वल्स और कुछ और फिल्में जैसे ग्रैविटी, स्पीसीज, द मार्टियंस की कथाओं-पटकथाओं को नए रूप में सम्मिश्रित करके दर्शकों को रिझाने की कोशिश है. इससे पता चतला है कि हॉलीवुड और बॉलीवुड, दोनों बॉक्स ऑफिस पर हिट फिल्मों के फॉर्मूलों को बार-बार भुनाते हैं.
'लाइफ' फिल्म में भी कुछ नया नहीं है- एलियन फिल्म की तरह एक नया जीव नरभक्षक होकर अंतरिक्ष यात्रियों को ही बारी-बारी से खाने लगता है. लाइफ में भी इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के वैज्ञानिक मंगल ग्रह के एककोशकीय जीव को ठीक टेंपरेचर पर जीवित करके खुश होते हैं. बाद में वही जीव जिंदा रहने के लिए एक-एक करके चार अंतरिक्ष यात्रियों को बड़ी बेरहमी से खत्म कर देता है. यह संदर्भ सभी को अपील करता है. कभी-कभी भलाई कितनी उलटी पड़ जाती है, यह उसकी मिसाल है.
पूरी फिल्म उस मांगलिक जीव से अंतरिक्षयात्रियों के जूझने की कहानी है और अंतर में छह में से सिर्फ एक जीवित पृथ्वी पर पहुंचता है. साथ में वह जीव भी है. अगर फिल्म सफल रही तो आप एक या कई सीक्वल देखेंगे पर मुझे लगता नहीं कि ऐसा होगा. क्यों? वजह यह कि फिल्म पुरानी कहानी और फिल्मक्राक्रट का मिश्रण है-
- जुरैसिक पार्क की तरह एक फॉसिलाइज्ड जीव का आदमी द्वारा जीवित करना.
- एलियन फिल्मों के संकलन से ज्यादातर प्लॉटलाइन लेना.
- ग्रैविटी फिल्म की तरह अंतरिक्ष को उसी खूबसूरती से दर्शाया है, खासकर आइएसएस का अंतरिक्ष के मलबे से टकराना और पूरे साउंड इफेक्ट के साथ चूर-चूर हो जाना (जबकि स्पेस में कोई आवाज नहीं होती जैसे कि एलियन का मशहूर डायलॉग था कि स्पेस में कोई आपकी चीख नहीं सुन सकता) या फिर रोबोटिक आर्म से स्पेसशिप के बाहर जाकर उसे ठीक करना.
- अंतरिक्ष के जीव प्यारे अतिथि ही नहीं भक्षक भी हो सकते हैं, जैसा कि एलियन फिल्मों में हैं.
- फिल्म की टेक्नोलॉजिकल कार्यकुशलता भी ग्रैविटी, द मार्टियंस और इंटरस्टेलर में कुछ वर्ष पहले दिखी है.
- ज्यादातर भारतीयों को इस तरह की साइ-फाइ हॉरर फिल्म पसंद नहीं आती, उन्हें तो ईटी, एनकाउंटर्स ऑफ थर्ड काइंड पसंद आती है और इस तरह की कहानी को उन्होंने कृश और पीके जैसी फिल्मों में इस्तेमाल किया है.
- फिल्म में मनुष्यता, विश्वास, आशा, जीवन संरक्षण और पृथ्वी के प्रति लगाव पहले जैसी ही है.
- फिल्म को भयानक ‘ऑन्न्टोपस’ की शन्न्ल में दिखाना कुछ नया नहीं है.
अगर भारतीय नजरों से देखें तो फिल्म में अग्नि के दोनों रूपों का प्रयोग किया गया है- टेंपरेचर को घटाकर जीव को उसके सुप्तावास्था से जीवित करने का और फिर उसे मारने का. और ऑक्टोपस जैसा वह नया जीव भारतीय पौराणिक कथाओं में मिलता है, जैसे रावण का एक सिर काटने पर दूसरा अपने आप स्थापित हो जाता है, जैसे कि इस फिल्म के भयानक जीव ‘काल्विन’ के साथ दिखता है.
इस फिल्म में काफी मशहूर ऐक्टर्स हैं, जैसे जेक गिलनहाल और रियान रेनॉल्ड्स पर लगता नहीं कि फिल्म के शुरुआती आकर्षण के अलावा यह फिल्म को इतना प्रभावशाली बना पाएंगे कि पश्चिम का दर्शक इसका सीक्वल देखना चाहें जबकि फिल्म के लेखकों रेट रीज और पॉल वर्निक (डेडपूल के भी लेखक यही हैं) ने फिल्म के क्लाइमेक्स को उस जगह पर खत्म किया है जहां से फिल्म के सीक्वल संभव हैं. फिल्म के निर्देशक डेनियल एस्पिनोसा ने कोशिश तो अच्छी की मगर फिल्म में ऐसा कुछ नहीं कि दर्शक इसके सीक्वल को देखने की कोशिश करें. इसका साउंड इफेक्ट ग्रैविटी जैसा ही है. ऐक्टरों का जीरो ग्रैविटी में सहज रूप से तैरना अच्छा फिल्माया है लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है. फिल्म में अंतरराष्ट्रीय स्टार कास्ट- एक रूसी, एक जापानी, एक यूरोपियन जो अफ्रीकी भी है और अमेरिकी हैं-अंतरराष्ट्रीय अपील की खातिर है.
आखिर ऐसी फिल्में अब क्यों ज्यादा बनती हैं?
पश्चिमी दुनिया में अंतरिक्ष के जीवों की खोज वर्षों से जारी है. अमेरिका में एक बड़ा प्रोग्राम सर्च फॉर एक्ट्रा टेरेस्ट्रियल लाइफ (सेटी) कई दशकों से चल रहा है. इस खोज से प्रभावित कई फिल्में बनी हैं जैसे स्पेस ओडिसी, कॉन्टैक्ट, सोलैरिस, इंटरस्टेलर और पिछले साल द मार्टियंस. यह प्रयास जारी रहेगा. और यह भी है कि पहले टेक्नोलॉजी इतनी अच्छी नहीं थी कि स्पेस के विस्तार, शून्यता और सन्नाटे को विश्वसनीय ढंग से फिल्माया जा सके. एक वजह यह भी है कि इंसान हमेशा किसी ऐसी जगह पर अकेले फंसने से डरता है, जहां कोई मदद न मिल सके, न ही किसी मदद की उम्मीद हो, यह इंसान की अंतरचेतना का अभिन्न अंग है. भारत में अंतरिक्ष की खोज अभी गंभीर रूप से शुरू हुई है जबकि पश्चिम में यह आधी सदी से जारी है. इंसान पृथ्वी पर खुद को सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता है और उसने पृथ्वी समेत खुद को और दूसरे जीवों को हर कीमत पर बचाने का जिम्मा ओढ़ रखा है. हालांकि यह बात न तो सही है न ही जरूरी क्योंकि जीवन विराट है और मनुष्य उसमें एक करोड़ योनियों का सिर्फ साधारण रूप है. लेकिन क्या कीजिएगा, फिल्म इंसान बनाते हैं और उसमें खुद को सर्वश्रेष्ठ दिखाने का अधिकार उसी का है.
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