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Updated: 11 जनवरी, 2023 01:57 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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पठान राजनीतिक मकसद को ध्यान में रखकर बनाई गई फिल्म है. कला के नाम पर नैरेटिव गढ़ने और एजेंडा आगे बढ़ाने वाली फिल्म है. आई चौक ने पहले ही एक विश्लेषण में पठान के पीछे की राजनीतिक मंशा की तरफ ध्यान आकृष्ट कराने की कोशिश की थी, और माना था कि शाहरुख खुलकर राजनीति करें. बहरुपिया बनकर राजनीति और कारोबार- दोनों ठीक से नहीं किए जा सकते हैं. हर भारतीय को पठान का ट्रेलर देखना चाहिए और सामने भी आना चाहिए. मोदी सरकार से भी पूछना चाहिए कि क्या अब बॉलीवुड को वायस्ड विजुअल के सहारे चीजों को मनमानी से तय करने की छूट दी जा सकती है?कहां हैं देश के तमाम लिबरल समीक्षक, ज्ञानी बुद्धिजीवी- जो रातदिन देश की फ़िक्र में मरे जा रहे हैं. कहां हैं संप्रभुता की फ़िक्र करने वाले तमाम नेता?

पठान के ट्रेलर ने ट्रेलर ने साफ कर दिया कि असल में बेशरम रंग भी राजनीतिक मकसद से ही जानबूझकर तैयार किया गया था. पठान एक राजनीतिक विचार है और इसका खात्मा भारत हित में जरूरी है. जयहिंद बोलने भर से चीजों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता. फिल्म के तीन राजनीतिक मकसद ट्रेलर के जरिए साफ़-साफ़ दिख रहे हैं. एक तो बेशरम रंग ही है, जिस पर कुछ विशेष बताने की अब जरूरत नहीं है. जिन्हें लग रहा था कि वह कला भर है और उसके पीछे कोई राजनीति नहीं- वे चाहें तो दो और खतरनाक नैरेटिव से चीजों को समझ सकते हैं. बावजूद कि उसमें कला जैसी किसी चीज का दूर दूर तक कोई कनेक्शन नजर नहीं आया.

पठान के जातिवादी टाइटल पर विरोध था. अब कहा जा रहा कि असल में पठान 'कोडनेम' है. हो सकता है कि शाहरुख एक 'बहरुपिया' के रूप में अपना एजेंडा लेकर आ रहे हों और फिल्म में उनका नाम 'राहुल' ही हो. जैसे रहता है. राहुल के रूप में पठान कोडनेम वाला देशभक्त जासूस, जो जयहिंद भी कहता है.

pathaan. पठान. फोटो-YRF

क्या यशराज फिल्म्स ने झूठे नैरेटिव फैलाने का ठेका लिया है, पठान को भारत विरोधी फिल्म क्यों कहा जाए?  

यशराज फिल्म्स की पठान पूरी तरह देश विरोधी है. यह मुस्लिम अमीरात के हित वाले एजेंडा पर विजुअल के जरिए मानस बदलने का खतरनाक प्रयास है. समाज का मानस बदलने में विजुअल की क्या भूमिका होती है और अतीत में बॉलीवुड ने इसका इस्तेमाल कैसे किया है- हर किसी को जरूर ध्यान देना चाहिए. विजुअल स्थापित नैरेटिव बदलने या बनाने में इस्तेमाल किए जाते हैं. यही वजह है कि कश्मीर पर लोगों की आपबीती सुनने के बावजूद ज्यादातर लोग उसे आज भी सच मानने को तैयार नहीं हैं. इतिहास में भी एक साथ महाराणा प्रताप-अकबर, औरंगजेब-लचित-शिवाजी-संभाजी को हीरो मानते रहते हैं.

सुहेलदेव हीरो नहीं बन पाते. उनका नाम इतिहास में नहीं है. मगर उन्हीं सुहेलदेव के हाथों मारा गया हत्यारा भारत में आज भी संत की तरह पूजता है. कितना दुर्भाग्यपूर्ण है. यह नैरेटिव का कमाल है कि हत्यारा संत की तरह पूजा जा रहा है. हम शोषित और शोषक दोनों को हीरो मानते रहते हैं- नैरेटिव का कमाल ही ऐसा है कि कभी विरोधाभास पर सोच ही नहीं पाते. मौका ही नहीं दिया जाता. खैर. इस पर फिर कभी.

फिलहाल पठान के दो नैरेटिव पर समूचे देश को बहस के लिए खड़ा होना चाहिए. कला के नाम पर भारत विरोधी भावना को हम मौका नहीं दे सकते हैं. पठान बॉलीवुड की पहली फिल्म है जिसमें मेकर्स ने किसी देश को आतंक का केंद्र नहीं बनाया है. किसी मजहब को भी. ट्रेलर का तो कुल जमा अभी तक यही निकलकर आया है. अच्छी बात है? बावजूद कि भारत के लिहाज से कौन सा देश आतंकी है और कौन कौन सी विदेशी जमीन से, किस मजहब के लोग उसमें शामिल रहे हैं- शायद ही बताने की जरूरत पड़े. भारत को आतंक के जख्म कहां से मिले हैं? पाकिस्तान से. लेकिन फिल्म में उसका नाम तक नहीं है. क्यों भला? सवाल होगा.

ग्लोबल टेररिज्म पर बॉलीवुड की नई परिभाषा, आप कहते हैं यहां कुछ नया नहीं होता

क्या 'राहुल' के रूप में पठान कोडनेम के साथ नजर आने वाला बहरुपिया- इस बार यह स्थापित करने आ रहा है कि भारत जिन आतंकी जख्मों को सहता रहा- उसके पीछे पाकिस्तान नहीं था. कट्टरपंथी इस्लाम की कोई भूमिका नहीं थी. बल्कि कुछ फ्रीलांस टाइप के ग्लोबल अपराधी हैं जो पैसों के लिए कहीं भी आतंक फैलाते हैं. आतंक और अपराध के बीच फर्क के रूप में नजर आ रही मजहब की दीवार को ढहाकर उसे साधारण बनाने की कोशिश है. क्या आतंकियों के मजहबी मकसद नहीं हैं? यह ग्लोबल टेररिज्म पर बॉलीवुड की नई परिभाषा है. जो लोग कहते हैं बॉलीवुड कुछ सोच नहीं पाता, रचनात्मक नहीं है- वो पठान में नई नई सोच और कमाल की रचनात्मकता देख सकते हैं. जॉन अब्राहम पठान में एक ऐसे ही टेररिस्ट के किरदार में हैं.

ऐसा आतंकी जो पैसे लेकर आतंक फैलाता है. जैसे दूसरे कारोबार होते हैं फिल्म में आतंक को भी बिल्कुल वैसे ही एक ग्लोबल बिजनेस के रूप में दिखाया गया है. क्या इसीलिए जॉन अब्राहम की मदद ली गई है जिनकी राष्ट्रवादी छवि है. उनके चेहरे से बात ज्यादा सहजता से जाएगी. ऐसा आतंकी जिसे लोग प्यार करें. इस लिहाज से जॉन अब्राहम एक बेहतर विकल्प थे निर्माताओं के लिए.

तो क्या यह मान लिया जाए कि दुनियाभर में आतंकवाद को लेकर जो कुछ भी दिखता है, भारत समेत दुनिया ने अबतक जो भोगा है- असल में वह इतिहास का सबसे बड़ा झूठ था. और बॉलीवुड ने उस झूठ को साफ़ करने का बीड़ा उठाया है. या यह मान लिया जाए कि भारत समेत दुनिया के उन तमाम कड़वे अनुभवों को विजुअल के सहारे झूठ बनाने की एक बड़ी साजिश है पठान में जो पॉपुलर माध्यम के जरिए परोसी जा रही है.

यशराज सामने आए और बताए किस मकसद से फिल्म बनाई है, किस देश को खुश करना है?

यशराज फिल्म्स को बताना चाहिए कि यह सिनेमा के नाम पर कौन सी कलात्मकता और अभिव्यक्ति है? इसे क्यों ना एक खतरनाक मानवताविरोधी, भारत विरोधी राजनीतिक मकसद से बनी फिल्म माना जाए? क्या यह मुस्लिम अमीरात में पठान के जरिए पैसे कमाने की कोशिश है. क्या यह मुस्लिम अमीरात का राजनीतिक एजेंडा है जिसमें वे कथित 'इस्लामोफोबिया' के खिलाफ काम कर रहे हैं. इस्लाम के पक्ष में साफ़ सुथरी वैश्विक छवि का निर्माण कर रहे हैं. आपको याद होगा, खाड़ी के कुछ देशों ने तमिल सुपरस्टार विजय की फिल्म तमिल फिल्म बीस्ट को दिखाने से मना कर दिया था. उनकी आपत्ति बीस्ट में टेरर (इस्लामिक) का चित्रांकन था. इसी तरह अक्षय कुमार की बेलबॉटम को भी रोका गया था. और भी कई फ़िल्में हैं. ये ज्यादा पुरानी बात नहीं.

हो सकता है कि फिल्म में विस्तार से इस पर ज्यादा कुछ ना हो. लेकिन ट्रेलर से तो सवाल निकल रहे हैं और यशराज फिल्म्स को आगे आकर चीजों को साफ़ करना चाहिए कि ये असल में है क्या? किस समाज और किस दर्शक वर्ग के लिए आपने फिल्म बनाई है. अगर खाड़ी देशों, तुर्की के लिए फिल्म बनाई गई है तो ठीक है. लेकिन उसमें भारतीय संदर्भों का इस्तेमाल ना ही किया जाए तो बेहतर है. क्योंकि पठान के निष्कर्ष भारत के निष्कर्ष नहीं हो सकते हैं.

रूस को दुश्मन की तरह दिखाना नमक हरामी है, भारत सोच भी कैसे सकता है

दूसरी बात- दुनिया में इकलौता देश रूस है. रूस जिसने हर मुश्किल में हमारा साथ दिया. हर मुश्किल में. तब साथ दिया जब अमेरिका जैसे तमाम ताकतवर और पश्चिमी देश तानाशाहों और आतंकियों को हथियार बेचते थे. फंड करते थे. वही पैसा और फंड हमें लहूलुहान करता रहा. सालोसाल. भारत पर उलटे प्रतिबंध लगाए तमाम पश्चिमी देशों ने. भला कैसे और किस बिना पर एक मित्र देश को दुश्मन की तरह दिखाया जा सकता है? कई सोकोल्ड लिबरल मीडिया पोर्टल की प्रतिष्ठित रिपोर्ट्स आ रही हैं. इनमें कहा जा रहा कि शाहरुख का किरदार रूसी सेना के कब्जे में है और शाहरुख की उनसे फाइट दिखाई गई है पठान में. हॉलीवुड की नक़ल तो ठीक है. लेकिन अमेरिकी फिल्मों में रूस या चीन को विलेन दिखाने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. रूस के मामले में भारत को यह हक़ नहीं है. काश कि फिल्म रिलीज होने पर रूस को लेकर जैसा बताया जा रहा है- वह ना हो.

बावजूद ताज्जुब इस बात का है कि सेंसर बोर्ड ने ऐसे कॉन्टेंट को पास भी कैसे कर दिया? पठान नाम का देशभक्त बहादुर जासूस पाकिस्तान की कैद में होता, चीन की कैद में होता तो समझ में आता- लेकिन उसे रूस की कैद में किस ऐतिहासिक बैकग्राउंड की बिना पर दिखाया गया है, समझ से परे है? इस बारे में यशराज फिल्म्स ही कुछ बेहतर बता सकता है. सेंसर बोर्ड में आंख से ना देख पाने वाले लोग बैठे हैं मोदी राज में? पठान का ऐसा कॉन्टेंट पास भी कैसे होने दिया गया?

यशराज फिल्म्स को बताना चाहिए कि जब मेकर्स मान रहे कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता, कोई देश आतंकी नहीं है- फिर रूस को ही भारत विरोधी क्यों दिखा दिया गया? क्या रूस के साथ हमारे तनावपूर्ण संबंध रहे हैं?

यशराज की पठान के मानवताविरोधी मानसिकता का विरोध जरूरी है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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