सेक्रेड गेम्स : अनुराग कश्यप जैसा फिल्मकार 'कुंठाओं' के अलावा दिखा भी क्या सकता है
जिस माध्यम पर ये प्रस्तुत किया जा रहा, उस पर प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के प्रमाणन हेतु कोई नियामक संस्था नहीं है, इसलिए कश्यप को खुली छूट मिल गई और उन्होंने कला के नाम पर अपनी सारी कुंठाएं उड़ेल दी हैं.
-
Total Shares
नेटफ्लिक्स पर अनुराग कश्यप निर्देशित आठ एपिसोड्स की वेब सीरिज सेक्रेड गेम्स के प्रसारित होने के बाद से ही ज्यादातर समीक्षकों द्वारा इसकी बढ़-चढ़कर वाहवाही की जा रही है. ऐसा लग रहा है जैसे कश्यप ने भारतीय सिनेमा में कोई नया आविष्कार कर दिया हो. ये अक्सर होता है कि अनुराग कश्यप कोई फिल्म या वेब सीरिज लेकर आते हैं और हमारे फ़िल्म समीक्षक लट्टू हुए समीक्षा के नाम पर उसके प्रचार-कार्य में जुट जाते हैं, अब भी यही हो रहा है.
सैफ अली खान, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे के मुख्य अभिनय वाले सेक्रेड गेम्स में एक मुम्बइया गैंगस्टर और एक पुलिस अधिकारी के द्वंद्व की कथा है, जिसके बीच हिंसा, हद पार करते अश्लील दृश्य, गाली-गलौज तथा धर्म की मनमाफिक व्याख्याओं की भरमार है. अनुराग कश्यप इन चीजों के ही स्पेशलिस्ट हैं, उनकी ज्यादातर फ़िल्में कमोबेश इन्हीं चीजों से भरी होती हैं.
हां, सेक्रेड गेम्स को इसलिए विशिष्ट कहा जा सकता है कि इसमें कश्यप ने इन चीजों की प्रस्तुति के मामले में अब तक की अपनी सभी सीमाओं को लांघ दिया है. दिक्कत यह है कि जिस माध्यम पर ये प्रस्तुत किया जा रहा, उस पर प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के प्रमाणन हेतु कोई नियामक संस्था नहीं है, इसलिए कश्यप को खुली छूट मिल गई और उन्होंने कला के नाम पर अपनी सारी कुंठाएं उड़ेल दी हैं.
इससे पहले नेटफ्लिक्स पर ही आई 'लस्ट स्टोरीज' में भी कश्यप ने एक एपिसोड का निर्देशन किया था, जिसमें यही सब मटेरियल दिखा था. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर हो या देव डी, कश्यप की ज्यादातर फिल्मों में उपर्युक्त प्रकार के मसालों की ही भरमार दिखती है. वे और उनके मुरीद समीक्षक दावा करते हैं कि ये सब समाज का यथार्थ है, लेकिन लगता तो ऐसा है कि ये समाज के यथार्थ से अधिक उनके अपने मन की कुंठाएं होती हैं, जिन्हें कला की आड़ में वे अभिव्यक्त करते रहते हैं.
अनुराग कश्यप कोई बहुत कामयाब निर्देशक हों, ऐसा कतई नहीं है. उनकी गिनती की फ़िल्में हैं जो बॉक्स ऑफिस पर बमुश्किल हिट की श्रेणी में पहुंच पाई हैं. लेकिन समीक्षकों के समीक्षात्मक प्रचार के भरोसे उनके सिनेमा की गाड़ी अबतक चलती रही है और वे एक कामयाब निर्देशक की छवि बनाए हुए घुमते रहते हैं. मगर वास्तव में वे एक फेल फिल्मकार ही हैं.
आपके मन में सवाल उठ सकता है कि समीक्षकों के इस दुलार का कारण क्या है ? बात इतनी है कि कश्यप अपनी फिल्मों में जिस विचारधारा की चुपके-चुपके नुमाइंदगी कर जाते हैं, हमारे बहुधा फिल्म समीक्षक भी उसी विचारधारा को आत्मसात किए बैठे हैं. अब हमारे समीक्षक कश्यप छाप फिल्मों में अपनी विचारधारा को देख इतने मुग्ध होते हैं कि बस, उनकी हर फिल्म को सिनेमाई कलात्मकता के क्षेत्र में एक क्रांति घोषित करने में देर नहीं करते. सेक्रेड गेम्स पर समीक्षकों का मुग्ध होना भी इसी किस्म का एक उदाहरण है. लेकिन दुखद रूप से चिंताजनक है कि ऐसी चीजों से भारतीय समाज और संस्कृति को जो नुकसान पहुँच रहा है, उसपर किसीका ध्यान नहीं है.
ये भी पढ़ें-
Big Boss का सबसे ज्यादा फायदा किस सेलेब्रिटी को हुआ?
क्या सिनेमा हॉल में दिखाई जाने वाली हॉलीवुड फिल्मों में इंटरवल होना चाहिए?
'स्टीरियोटाइप भारतीय' की इमेज दिखा रहा है फिल्म गोल्ड का हीरो!
आपकी राय