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Updated: 31 अक्टूबर, 2022 08:34 PM
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आज पूरे देश में सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती मनाई जा रही है. सरदार को लौह पुरुष कहा जाता था. उनकी विलक्षण प्रतिभा और साहस के दम पर आजाद भारत के एकीकरण का काम हो सका था. यही वजह है कि उनकी जयंती के दिन को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है. आजादी के बाद देश के लिए संघर्ष करने वाले और अपना बलिदान देने वाले कई महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों पर तमाम फिल्में बनी हैं. इनमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और मंगल पांडे जैसे महान शख्सियत का नाम प्रमुख है. महात्मा गांधी और भगत सिंह पर तो आधा दर्जन से ज्यादा फिल्में बन चुकी हैं. लेकिन हिंदी सिनेमा में सरदार वल्लभ भाई पटेल गैरहाजिर से रहे हैं.

650x400_103122054711.jpgलौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की अहमियत आखिर बॉलीवुड क्यों नहीं समझता?

लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जिंदगी रोचक और दिलचस्प होने के बावजूद उन पर अभी तक केवल एक फिल्म ही बनाई गई है. इस फिल्म का नाम 'सरदार' है, जो 1994 में रिलीज हुई थी. इसके निर्देशक केतन मेहता हैं, जबकि अभिनेता परेश रावल ने सरदार का किरदार निभाया है. इसके अलावा भी कुछ फिल्मों में लौहपुरुष के किरदार को शामिल किया है, लेकिन वो साइड रोल हैं. फिल्म किसी न किसी दूसरे शख्सियत की जिंदगी पर आधारित रही है, जिसके साथ सरदार का जुड़ाव रहा है. उदाहरण के लिए 1982 में रिलीज हुई फिल्म 'गांधी' में अभिनेता सईद जाफरी ने वल्लभ भाई पटेल का किरदार निभाया था. 2000 में रिलीज हुई फिल्म 'हे राम' में अभिनेता अरुण पाटेकर ने सरदार का रोल किया है.

सही मायने में देखा जाए तो सरदार वल्लभ भाई पटेल के कद और पद के मुताबिक हिंदी सिनेमा ने उनको सम्मान नहीं दिया है. जबकि सरदार का बॉलीवुड पर बहुत बड़ा एहसान है. यदि उन्होंने आजादी से पहले बॉलीवुड की मदद नहीं की होती, तो आज अरबों-खरबों रुपए में खेलने वाली ये फिल्म इंडस्ट्री कभी खड़ी नहीं हो पाती. यहां विदेशी प्रोडक्शन हाऊसेज का कब्जा होता. हिंदी फिल्मों की कमाई विदेशियों की जेब में जा रही होती. हिंदी फिल्म मेकर्स संसाधनों और पैसे के अभाव में दम तोड़ चुके होते. क्योंकि आजादी से पहले हिंदी फिल्म इंडस्ट्री किसी तरह से अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रही थी. लेकिन गांधी युग आने के बाद सिनेमा की उपेक्षा होने लगी, जिससे कि सियासी समर्थन पूरी तरह बंद हो गया.

हिंदी सिनेमा पर सरदार के एहसान की कहानी रोचक है. वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अनंत विजय दैनिक जागरण में लिखते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी के बढ़ते प्रभाव के साथ सिनेमा को सियासी संरक्षण मिलना बंद हो गया. इसकी मुख्य वजह ये थी कि गांधी को फिल्में पसंद नहीं थी. वो इसे समाज के लिए बुरा मानते थे. साल 1945 की बात है. फिल्मकार किशोर साहू ने फिल्म 'वीर कुणाल' बना ली थी. वो चाहते थे कि इस फिल्म के प्रीमीयर में कांग्रेस का कोई बड़ा नेता उपस्थित रहे. क्योंकि वो कांग्रेस और कला के बीच की खाई को पाटना चाहते थे. इसके साथ ही कांग्रेस का सिनेमा के लिए समर्थन भी चाहते थे. ऐसे में उन्होंने पुरुषोत्तमदास टंडन के जरिए श्रीमती लीलावती मुंशी से संपर्क साधा था.

लीलावती मुंशी ने उनका आग्रह स्वीकार करते हुए सरदार के साथ उनकी मुलाकात तय करा दी. किशोर साहू मुंबई स्थित उनके घर पहुंचे और अपनी फिल्म के प्रीमीयर में आने के लिए आमंत्रित किया. इसके साथ उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के सामने आ रही समस्याओं का जिक्र भी किया, जिसमें विदेशी स्टूडियो के भारत में कारोबार शुरू करने की योजना के बारे में भी बताया था. उनका डर था कि यदि विदेशी कंपनियों ने हिंदी सिनेमा में कारोबार शुरू किया तो अपनी पूंजी के दम पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की व्यवस्या को खत्म कर देंगी. क्योंकि अपने देश में सिनेमा इंडस्ट्री की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी. साहू की बात सुनने के बाद सरदार ने फिल्म 'वीर कुणाल' के प्रीमियर पर आने का आश्वासन दे दिया.

तय समय पर सरदार वल्लभ भाई पटेल सिनेमाघर पहुंच गए. वहां हजारों की भीड़ पहले से ही मौजूद थी. फिल्म के प्रीमीयर से पहले सरदार मंच पर पहुंचे. वहां किशोर साहू ने सबके सामने उनको संबोधित करते हुए फिल्म इंडस्ट्री की समस्याओं से अवगत कराया. उनकी बात सुनने के बाद सरदार की बारी थी. उन्होंने सबसे पहले फिल्म की सफलता की शुभकामनाएं दी. इसके बाद अपने भाषण उन्होंने हर मुद्दे पर जवाब दिया. उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि विदेशी पूंजीपतियों को भारत में आकर स्टूडियो खोलने या फिल्म का कारोबार करने नहीं दिया जाएगा. यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस खुलकर विरोध करेगी. उनके खिलाफ सत्याग्रह किया जाएगा. सरदार ये बातें हिंदी सिनेमा के लिए संजीवनी साबित हुई थीं.

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