क़तर में दीपिका के कपड़ों ने साफ कर दिया, बेशरम रंग पठान को चर्चा में लाने की 'शाहरुखिया' ट्रिक है!
पठान के बेशरम रंग की वजह से चर्चा में आई दीपिका पादुकोण ने क्या फीफा में इस्लामिक रिवाज की वजह से आउटफिट पहनकर शामिल हुईं? अगर ऐसा है तो कला के नाम पर देह प्रदर्शन को बचाने वाले तर्क देने से लोगों को बाज आना चाहिए?
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पठान के गाने बेशरम रंग को लेकर भारतीय समाज का गुस्सा चरम पर है. बायकॉट बॉलीवुड ट्रेंड में पहली बार नजर आ रहा कि अब ऐसे लोग भी शाहरुख की फिल्म का विरोध करने के लिए निजी स्तर पर कमर कस चुके हैं जिन्हें अक्सर संवेदनशील या राजनीतिक मुद्दों पर न्यूट्रल अवस्था में ही देखा जाता था या फिर मोटे तौर पर कथित भगवा राजनीति का विरोध करते दिखते थे. लेकिन बेशरम रंग को लेकर शाहरुख ने जो कुछ परसा, उनका जो विरोधाभासी रवैया दिखा और उसके बाद कोलकाता फिल्म फेस्टिवल में आए उनके बयान के बाद न्यूट्रल भी अब शाहरुख की चुनौती का निर्णायक जवाब देने का मन बना रहे हैं.
बेशरम रंग असल में शाहरुख का सस्ता राजनीतिक ट्रिक ही था. जिस तरह पठान को बेशरम रंग की वजह से कवरेज मिली, माना जा सकता है कि ट्रिक ने काम भी किया. बावजूद पठान की चुनौतियां अलग हैं और कारोबारी लिहाज से ऐसे ट्रिक ऊंट के मुंह में जीरा की तरह साबित होंगे. पिछले आठ साल में हर तरह की तिकड़म आजमा लेने के बावजूद शाहरुख को कामयाबी नहीं मिली थी तो इस बार उन्होंने बिना इजहार किए वे नरेंद्र मोदी के विपक्षी वर्ग को भुनाकर प्रचार तंत्र के सहारे कामयाबी हथियाने की कोशिश में दिख रहे हैं. सभी विपक्षी दलों ने पठान के लिए जिस तरह आपसी मतभेदों को भुलाकर सामंजस्य दिखाया है, तमाम पार्टियों की गैरराजनीतिक हरकत को भी लोग बहुत गंभीरता से लेते दिख रहे हैं.
बेशक शाहरुख को लगा होगा कि मौजूदा राजनीतिक समीकरण में पठान को हिट कराने का फ़ॉर्मूला उन्होंने पा लिया है. शाहरुख का दुर्भाग्य है कि फिल्म यूट्यूब की बजाए सिनेमाघरों में रिलीज होगी और अब आशंका है कि फिल्म के फ्लॉप होने में बेशरम रंग भी एक बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है. काश की शाहरुख ने यह फिल्म यूट्यूब या ओटीटी पर रिलीज की होती तो इसका प्रमोशन जिस जमीन पर किया गया था उसकी वजह से बेशुमार कामयाबी मिलती. लेकिन माहौल देखकर तो यही लग रहा कि वह बुरी तरह से फंस चुके हैं और बेशरम रंग पर उनकी और उनके प्रचार तंत्र की सारी ट्रिक्स का एक-एक कर खुद ब खुद भंडाफोड़ हो रहा है. और समूचा देश देख रहा है.
पठान की वजह से चर्चा में आईं दीपिका फीफा इवेंट में भी पहुंची थीं. फीफा की फोटो गेट्टी से ली गई है.
क्या क़तर में दीपिका पादुकोण ने इस्लामिक रिवाज से पहनी ड्रेस?
फ़ुटबाल विश्वकप फाइनल में एक शाहरुखिया ट्रिक्स बेपर्दा हो गई. बेशरम रंग के बचाव में नारी स्वतंत्रता, स्त्रीवाद से लेकर आधुनिकता के जो तमाम तर्क परोसे गए थे वह हफ्ते भर के अंदर ही खोखले साबित हो रहे हैं. दोहा में दीपिका पादुकोण फीफा ट्रॉफी अनविल करने पहुंची थीं. यह सम्मान पाने वाली वह भारत की पहली सेलिब्रिटी हैं. और उन्हें यह सम्मान भी फ्रांस के एक फैशन ब्रांड की वजह से मिला. Louis Vuitton मशहूर फ्रेंच ब्रांड है. हालांकि शाहरुख के फैन्स ने बताया कि पठान की वजह से दीपिका को बुलाया गया. फीफा इवेंट में दीपिका जिस तरह के आउटफिट में नजर आईं, उन्हें किसी भी इंटरनेशनल इवेंट में ऐसे ढंका-तुपा नहीं देखा गया है.
वे सिर से लेकर गर्दन तक कपड़ों में पूरी तरह से ढंकी थीं. वैसे ही जैसे बेशरम रंग में दीपिका के अपोजिट शाहरुख पूरी तरह से कपड़ों में ढंके हुए थे. दीपिका ने ढीले-ढाले कपड़े पहन रखे थे. उन्होंने काले रंग की लॉन्ग स्कर्ट पर सफ़ेद रंग की शर्ट पहनी थी. शरीर के ऊपरी हिस्से को उन्होंने एक ढीले-ढाले जैकेट और बेल्ट से कवर किया था. पैरों में भी उन्होंने काले रंग का लॉन्ग बूट पहन रखा था. बस दीपिका के पंजे खुले थे. उन्होंने कोई ग्लब्स भी नहीं पहना था और उनका सिर भी खुला था. सिर पर कोई हिजाब या स्कार्फ नहीं था. अब सवाल है कि क्या यह ड्रेस क़तर के इस्लामिक मूल्यों की वजह से दीपिका और उनके ब्रांड ने फॉलो किया. इस्लाम में औरतों की ड्रेस को लेकर बहुत पाबंदियां हैं. बिकिनी तो छोडिए- चुस्त कपड़े तक पहनने की कल्पना नहीं की जा सकती. बुरका तक कैसे पहनना है- उसके भी नियम हैं.
प्रवक्ताओं सुधर जाओ, बात कपड़े की नहीं है, बेशरम रंग में कौन सी कला देखे हो- उसपर बात करो
फीफा के लिहाज से क़तर में अब तक तमाम गैर इस्लामिक चीजों पर बवाल मच चुका है. साफ़ है कि दीपिका को Louis Vuitton ने वैसे ही भेजा शायद जैसे क़तर चाहता था. और यह सिर्फ दीपिका भर के लिए नहीं है. दूसरी फीमेल सेलिब्रिटी भी वहां लगभग इसी तरह नजर आईं. दूर क्यों जाना. नोरा फतेही जो अपने डांस और पारदर्शी कपड़ों के लिए मशहूर हैं उनकी परफॉरर्मेंस ड्रेस भी सिर से पांव तक वाली ही थी. नोरा की ड्रेस आमतौर पर पारदर्शी होती है. लेकिन उन्होंने अपने शरीर की त्वचा को ढंकने के लिए यहां काले रंग की स्टॉकिंग का इस्तेमाल किया. उनके परफॉरर्मेंस ग्रुप में बैक डांसर्स भी पैर से गर्दन तक ढीले कपड़ों में नजर आईं. नीचे फोटो देख सकते हैं.
फीफा में नोरा फतेही.
दीपिका क्या पहनती हैं- यह उनका निजी मसला है. वह स्वतंत्र भी हैं. और वैसे ही रहती हैं. लेकिन उन्हें और उनके प्रचारतंत्र को इसके बहाने किसी तरह की स्थापना से बचना चाहिए. बेशरम रंग में कला के नाम पर जबरदस्ती के अंग प्रदर्शन का जब विरोध हुआ तो कुछ लोगों ने नारीवादी सवाल खड़े किए कि भला एक महिला की ड्रेस पर टिप्पणी कैसे की जा सकती है. यह पिछड़ेपन की निशानी है. दुर्भाग्य से प्रचारतंत्र ने जो जरूरी बात थी उस पर कोई राय रखा ही नहीं. मसलन, गाने पर चर्चा करते. जुसकी धुन पर बात करते. कम से कम जिसकी आवाज में गाना था उसपर भी बात हो सकती थी. लेकिन शाहरुखिया ट्रिक्स बेकार ना हो जाए- और बादशाह खान को इसका नुकसान ना हो, समीक्षा में इन बिंदुओं को शामिल ही नहीं किया गया. समीक्षकों की बंद आंख देख ही नहीं पाई कि बेशरम के बीच सीक्वेंस में दीपिका स्वाभाविक रूप से बिकिनी में हैं पर शाहरुख ढके तुपे.
अब सवाल है कि अगर कम कपड़े पहनना ही आधुनिकता है तो फिर दुनियाभर के इवेंट्स से अलग दोहा में दीपिका इतनी ढंकी तुपी क्यों नजर आईं? लोग सोशल मीडिया पर हैरानी में सवाल भी उठा रहे हैं. ट्विटर पर दीपिका की ड्रेस को लेकर एक यूजर ने Louis Vuitton से सवाल किया कि आप हमारी लड़की को ये क्यों पहना रहे हैं. एक दूसरे ने लिखा- Louis Vuitton आपको उन्हें पहनने के लिए कुछ बेहतर देना चाहिए था. आप उनके साथ यह क्या कर रहे हैं. एक ने लिखा- आखिर दीपिका एक झोले में क्यों हैं? यह आउटफिट असल में हेट क्राइम है. एक और ने लिखा- एक ख़ूबसूरत महिला पर ऐसे कपड़े अत्याचार ही हैं. वह इससे बेहतर की हकदार हैं.
यौन कुंठा के पिटे पिटाए मसाले से आगे कुछ सोच नहीं पा रहा है बॉलीवुड
बेशरम रंग और फीफा के इवेंट से साबित हो रहा कि पठान का विरोध आखिर क्यों हो रहा है. पाखंड से अलग संस्कृति और नारी स्वतंत्रता दो अलग-अलग मसले हैं. नारी स्वतंत्रता का मतलब कम कपड़े या ज्यादे कपड़े पहनना नहीं. उन्हें अपने मन के कपड़े पहनने की आजादी देना है. और नारी आधिकार को लेकर किसी के बारे में धारण किसी फिल्म का सीन देखकर नहीं बनाया जाएगा बल्कि फीफा जैसे इवेंट से बनाया जाएगा. दीपिका या उनके प्रवक्ताओं को चाहिए कि अगर वे नारीवाद का प्रतीक हैं तो फीफा के इवेंट में उनके कपड़ों पर सवाल उठाया जाना चाहिए था. और अगर सवाल नहीं उठ रहे हैं तो साफ़ है कि दीपिका ने ब्रांड की वजह से ऐसा किया. ब्रांड ने उन्हें क़तर में ऐसे कपड़े पहने को विवश किए जो उन्हें मोटा भुगतान भी करता है. तो यह भी मान लेना चाहिए कि पैसों के लिए ही बेशरम रंग में दीपिका के कपड़ों को जानबूझकर छोटा किया गया. और विवाद के लिए ट्रिक भी आजमाए गए. वर्ना तो बिकिनी दृश्य आम हैं. अब दर्शक स्त्री देह को लेकर जागरुक हो चुका है और तमाम यौन कुंठाओं से बाहर भी निकल चुका है.
वैसे भी देश में अब किसी महिला के कुछ पहनने या कुछ नहीं पहनने पर कोई दबाव नहीं है. कम से कम बहुसंख्यक समाज में तो कोई ड्रेस कोड नहीं है. छोटे कपड़े बड़े कपड़े कोई सवाल नहीं. तो जो लोग पठान में यौन कुंठा भुनाने की कोशिश के तहत बेशरम रंग को नाना प्रकार आधुनिक विचारों के जामे में ढंकना चाहते हैं- दुर्भाय से उनकी तमाम कोशिशों की पोल खुद ब खुद खुल रही है. यही नंगई इस बार टिकट खिड़की पर शाहरुख एंड कंपनी के लिए बहुत भारी साबित हो सकती है. राजनीतिक भाषा में ही कहें तो पठान के खिलाफ तगड़ा ध्रुवीकरण हो चुका है.
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