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Updated: 30 मार्च, 2022 12:55 PM
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अभी कुछ दिन पहले ही एक 'ओबीसी चिंतक' का लेख पढ़ रहा था जिसमें उन्होंने हालिया विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत का जातीय हिसाब से विश्लेषण किया. उन्होंने लेख में यह स्थापित करना चाहा कि कैसे अगड़ी जातियों की पार्टी के रूप में मशहूर भाजपा ने ओबीसी और दलित मतों में ना सिर्फ सेंधमारी की बल्कि 2014 से ही चुनाव दर चुनाव उन्हें साथ बनाए रखा. उन्होंने माना कि लाभार्थी योजनाओं और इसके समानांतर हिंदुत्व की राजनीति से भाजपा ऐसा कर पाई और निकट भविष्य में आगे भी अजेय रहने का तर्क गढ़ा. असल में भाजपा के जरिए संघ का हमेशा से यही राजनीतिक मकसद रहा है- "विराट हिंदुत्व."

लेकिन संघ और भाजपा के विराट हिंदुत्व के लिए हिंदुओं के अंदर का जातीय विरोधाभास नासूर की तरह है. यह ऐसा नासूर साबित होता रहा है कि संघ और भाजपा को ऐतिहासिक रूप से कई मर्तबा बैकफुट पर जाना पड़ा. यूपी मेंके हालिया चुनाव के दौरान भी यह दिखा. अगर अभी भाजपा को मिले जनादेश के बाद तमाम चीजों को देखें तो कुछ लोगों में अजीब तरह का उत्साह देखा जा सकता है जिसमें नकारात्मक और विरोधाभासी विचार हावी हैं.

ऐसे विरोधाभासी विचारों को संघ भाजपा या फिर कोई और पार्टी भी सार्वजनिक रूप से शायद ही इंडोर्स करना चाहे. मगर तथ्य यह भी है कि आत्ममुग्ध अगड़ी जातियों के कुछ सेनापतियों का स्वाभिमान हिलोरे मार रहा है. यूपी में भाजपा की जीत के ठीक बाद 'राजपूत शौर्य' के एक विवादित गाने को इसमें रखा जा सकता है.

foolan-devi_650_032822072500.jpgशेर सिंह राणा की बायोपिक बनेगी.

अपना जातीय दुख सबको बड़ा दिख रहा, दूसरे की पीड़ा छोटी

द कश्मीर फाइल्स में तो कश्मीरी पंडितों के बहाने एक राष्ट्रीय व्यथा सामने आई. मगर जातीय नजरिए से देखने वालों के विश्लेषण इसका सरलीकरण करते मालूम पड़ते हैं. उदाहरण के लिए द कश्मीर फाइल्स की व्यापक स्वीकार्यता से उत्साहित एक नवागंतुक बुद्धिजीवी ने अपने लेख में यह स्थापित करना चाहा कि किस तरह 'सदियों' से देश के अलग-अलग हिस्सों में ब्राह्मणों का उत्पीड़न और नरसंहार होता रहा और किसी ने कभी कुछ नहीं बोला. अगर लेख को आधार मान लिया जाए तो धारणा बदलनी पड़ेगी कि भारत में दलित और आदिवासी समाज ने नहीं, बल्कि ब्राह्मणों ने जातीय आधार पर सबसे ज्यादा उत्पीड़न और हिंसा का सामना किया.

जिस उत्साही जमात की चर्चा हो रही है वह फिल्म इंडस्ट्री में भी व्याप्त है. इस कड़ी में शेर सिंह राणा नाम की फिल्म की घोषणा का बड़ा संदर्भ जुड़ता है. इसे टॉयलेट: एक प्रेम कथा फेम  श्रीनारायण सिंह निर्देशित करेंगे. विद्युत जमवाल, शेर सिंह की भूमिका में होंगे. शेर सिंह राणा के व्यक्तित्व का अपना विरोधाभास है. पूर्व सांसद स्वर्गीय फूलन देवी के बहाने राजपूत पहचान जाहिर करते रहे हैं और सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बहाने हिंदुत्व, राष्ट्रवादी पहचान. शेरसिंह राणा पर चंबल की पूर्व दस्यु फूलन की हत्या का आरोप है. उन्होंने सम्राट पृथ्वीराज चौहान के अवशेष को कंधार (अफगानिस्तान) से भारत लाने का दावा भी किया है. कई मर्तबा बेहमई भी जा चुके हैं जहां फूलन ने सामूहिक रूप से ठाकुरों की जघन्य हत्याएं की थीं.

फिल्म के जरिए एक अपराधी का महिमामंडन क्यों किया जा रहा है?

अब समझ में नहीं आता कि शेरसिंह की बायोपिक के साथ बॉलीवुड एक अपराधी का महिमामंडन क्यों करना चाहता है? दो चीजें हो सकती हैं. एक तो यह कि अगड़ी जातियों को ऐसा लगने लगा हो कि अब सबकुछ उनके नियंत्रण में है. दूसरा यह कि अगड़ी जातियां इन उपक्रमों से जातीय आधार पर एकजुट हो रहे हों और सिनेमा के जरिए भाजपा की मदद कर रहे हों (जैसा कि विपक्ष बॉलीवुड फिल्म मेकर्स के एक धड़े पर आरोप लगा रहा है आजकल). शेर सिंह पर फिल्म बनाकर किसी की मदद कैसे करेंगे? भाजपा की सहयोगी निषाद पार्टी फूलन के प्रतीक पर राजनीति करती है.

समाजवादी पार्टी से फूलन का संबंध रहा है तो वह भी उनकी जातीय विरासत पर दावा करती रही है. इसके अलावा प्रगतिशील मानव समाज पार्टी समेत यूपी में इस वक्त ठीक-ठाक आधार वाले कम से कम तीन और भी दल हैं जो फूलन की विरासत पर ही राजनीति करते हैं. ऐसे में सवाल है कि फूलन के हत्या आरोपी के महिमामंडन को दूसरा समाज किस तरह लेगा? मल्लाह, केवट, बिंद आदि के रूप में अति पिछड़ी जातियों का वह समूह जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ दिख रहा है.

फूलन का जातीय उत्पीडन हुआ था. उन्हें गैंगरेप झेलना पड़ा. बाद में उन्होंने कानूनी दायरे से बाहर जाकर बेहमई में एक ही जाति के डेढ़ दर्जन से ज्यादा लोगों को मार डाला. जो लोग मारे गए वे इस लिहाज से निर्दोष थे कि उस घटना के सीधे जिम्मेदार नहीं थे- जिसके बाद फूलन को हथियार उठाना पड़ा. लेकिन बुंदेलखंड की तत्कालीन सामजिक व्यवस्था को लेकर ऐसा नहीं कहा जा सकता कि जातीय उत्पीडन कभी हुआ ही ना हो. गैंगरेप के बाद फूलन को लगा कि एक जातीय समूह ही उनका दुश्मन है और बदला लेने के लिए चंबल का बागी जो करता है- उन्होंने वही किया. हालांकि अर्जुन सिंह के प्रयासों की वजह से उन्होंने सरेंडर भी किया. जेल में रहीं और बहुत बाद में बाहर आकर सपा के साथ राजनीतिक पारी शुरू किया. दो बार मिर्जापुर से सांसद भी बनीं.

फिर तो अपराधियों पर फिल्मों की लाइन ही लग जाएगी

शेर सिंह पर फिल्म बनना मामूली बात नहीं है. इसके बहुत सारे राजनीतिक-सामजिक मायने निकलते हैं. हो सकता है कि द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों की सफलता से प्रेरित होकर निर्माताओं को लगा हो कि राणा के 'साहसिक हिंदुत्व' वाले पक्ष से बढ़िया पैसे बनाए जा सकते हैं. विद्युत जमवाल भूमिका पाने के बाद खुद को ऐसे धन्य मान रहे- जैसे उन्हें किसी ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह की बायोपिक में मुख्य भूमिका दे दी हो. क्या शेर सिंह का साहसिक हिंदुत्व उसके जातिवादी हिंदू की छवि पर कभी परदा डाल सकता है. ईमानदारी का सवाल तो यही कि एक 'अपराधी' का महिमामंडन कितना जायज है. हो सकता है कि कुछ लोग राणा के बचाव में पहले बन चुकी इसी तरह की फिल्मों का तर्क दें. मसलन शाहरुख खान ने भी गुजरात के माफिया के जीवन से प्रेरित 'रईस' बनाई थी.

फिर तो कोई विकास दुबे पर फिल्म बना ले. कोई अतीक अहमद पर. कोई ऐसे ही अन्य किरदार पर. माफियाओं के अपराधियों के जीवन में रॉबिनहुड किस्से भरे पड़े हैं. वैसे भी अपराधियों में भला 'साहसिक पक्ष' की कमी कहां रहती है. लेकिन ध्यान रखिए कि कहीं परदे के दृश्य सिनेमाघर से बाहर गांव, घर, सड़क, गली और मोहल्लों में भविष्य की अराजकता का सबब ना बन जाए.

न्यू इंडिया में असल चिंता की बात यही है. क्रूरतम नरसंहारों और आपराधिक घटनाओं को किसी रंगीन चादर से नहीं ढका जा सकता. उन कहानियों की ओर बढ़ा जाए जो ध्वंस की बजाय निर्माण करती हों तो बेहतर है.

लेखक

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