30 साल बाद ही सही, बॉलीवुड ने कश्मीरी पंडितों को पीड़ित-प्रवासी माना तो...
विधु विनोद चोपड़ा की जड़ें कश्मीर से जुड़ी हैं और इसीलिए उनके परिवार पर जो गुजरी उसे पर्दे पर लाना लाजिमी ही था. लेकिन एक निर्माता-निर्देशक से इतनी देरी की उम्मीद नहीं थी. पर कश्मीरी पंडितों पर आधारित फिल्म शिकारा(Shikara) लोगों के दिलों पर मरहम का काम करेगी.
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निर्माता और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा (Vidhu Vinod Chopra) कश्मीर की मिट्टी में जन्मे और वहीं पले बढ़े थे. लेकिन 1990 में कश्मीरी पंडितों(Kashmiri Pandit) के साथ उनके माता-पिता को भी कश्मीर छोड़ना पड़ा था. अपनी मां के घर-बार और जमीन छूट जाने के दर्द को आखिरकार विधु विनोद चोपड़ा पर्दे पर ले ही आए. विधु विनोद चोपड़ा एक बार फिर एक नई फिल्म लेकर आ रहे हैं जिसका नाम है शिकारा(Shikara). फिल्म का ट्रेलर (Shikara trailer release) रिलीज हो गया है और फिल्म 1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अन्याय की कहानी पर आधारित है.
विधु विनोद चोपड़ा की जड़ें कश्मीर से जुड़ी हैं और इसीलिए उनके परिवार पर जो गुजरी उसे पर्दे पर लाना लाजिमी ही था. लेकिन कहीं न कहीं एक निर्माता-निर्देशक से इतनी देरी की उम्मीद नहीं थी. कश्मीरी पंडित जो 30 साल बाद भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं, उनकी सच्चाई को पर्दे पर दिखाने की हिम्मत किसी भी बड़े निर्मादा या निर्देशक ने नहीं की थी. कम से कम कश्मीर को दिल में दिए चलने वालों से तो उम्मीद की ही जा सकती थी. लेकिन कश्मीर के आतंक को फिल्मों में जितना दिखाया गया, कभी कश्मीरी पंडितों के दर्द को नहीं दिखाया.
'शिकारा' कश्मीरी पंडितों के दर्द को पर्दे पर लाने की कोशिश
कश्मीर को लेकर विधु विनोद चोपड़ा का प्यार 20 साल पहले जागा था, तब उन्होंने ऋतिक रोशन को लेकर मिश्न कश्मीर(2000) बनाई थी जो आतंकवाद और हिंसा पर आधारित थी. एक बार फिर कश्मीर उन्हें खींच लाया और वो अपने दिल में छिपे दर्द को पर्दे पर लाने की हिम्मत जुटा पाए.
शिकारा के ट्रेलर की शुरुआत होती है एक शेर से - 'कुछ न होने का दुख जरा सा लगे, तेरे होने से घर भरा सा लगे.' यूं लगा कि ये एक love story है जिसमें घर-परिवार खुशियां दिख रही हैं. लेकिन अचानक खुशियों के आशियाने जलते हुए दिखाई दिए. फिल्म का ट्रेलर बोलता कम और दिखाता ज्यादा है, कि किस तरह करीब चार लाख कश्मीरी पंडित अपने ही देश में बेघर कर दिए गए थे. उनपर क्या-क्या बीती. फिल्म में कोशिश की गई है कि दर्शक 2020 से 30 साल पीछे चले जाएं. फिल्म में 1990 के असल फुटेज का इस्तेमाल किया गया है जो इसे सच्चाई के और भी करीब ले आता है. अब तक खबरों के माध्यम से कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के बारे में जो भी कुछ सुना उसे पहली बार पर्दे पर देखना अंदर तक चोट करता है.
कश्मीरी पंडितों के हक की लड़ाई में एक नाम शिकारा का भी
फिल्म में दो नए चेहरे नजर आ रहे हैं लेकिन जब फिल्म की कहानी इतने बड़े और गंभीर विषय पर आधारित हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि फिल्म के लीड़ रोल कौन कर रहा है. आदिल खान और सादिया मुख्य किरदारों में हैं. लेकिन उनकी डायलॉग डिलिवरी और अदाकारी बहुत प्रभावित नहीं करती. फिल्म को और भारी-भरकम बनाने के लिए एआर रहमान को भी फिल्म से जोड़ा गया है.
विधु विनोद चोपड़ा निर्माता के तौर पर तो काफी सफल रहे हैं लेकिन बतौर निर्देशक उन्होंने कुछ ही फिल्में दी हैं. मिशन कश्मीर से शिकारा बनाने तक विधु ने केवल दो फिल्में बनाईं- एकलव्य: The Royal Guard (2007) और Broken Horses (2015) और दोनों ही फ्लॉप रही थीं. लेकिन 'खामोश' और 'परिंदा' से हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाने वाले विधु लगता है कि अब सिर्फ वही फिल्में करना चाहते हैं जो उनके दिल के करीब हों. शिकारा भी उनमें से एक है. इस फिल्म को विधु ने अपनी मां को डेडिकेट किया है.
देश में आज जिस तरह का माहौल है, जहां धर्म को लेकर लड़ाई चर्म पर है. CAA को लेकर जित तरह पहले जामिया और फिर JNU में हिंसा हो रही है और उसका असर जिस तरह से हर कौम पर हो रहा है, ऐसे समय में कश्मीरी पंडित जैसे एक बेहद संवेदनशील मुद्दे पर फिल्म का रिलाज होना न जाने क्या लेकर आएगा. लेकिन कश्मीरी पंडितों की पीड़ा, अपने ही देश में उनके प्रवासी होने का दर्द बॉलीवुड ने दिखाने में काफी देर कर दी. पर चलिए 30 साल बाद ही सही उन्होंने कश्मीरी पंडितों को पीड़ित प्रवासी माना तो.
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