बॉलीवुड के प्रति हिंदी बेल्ट की नफरत पर टिका है पुष्पा समेत साउथ की फ़िल्मों का कारोबार!
अल्लू अर्जुन की पुष्पा की कामयाबी के बाद यह बहस खड़ी हो गई है कि आखिर हिंदी बेल्ट में साउथ की फ़िल्में क्यों पसंद की जा रही हैं? क्या यह बॉलीवुड के प्रति लोगों की घृणा का नतीजा है या इसके पीछे और भी वजहें हैं. आइए जानते हैं.
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हिंदी बेल्ट में दक्षिण भारत से आई फिल्मों की कामयाबी ने बहस छेड़ दी है. अल्लू अर्जुन की पुष्पा: द राइज के बाद तो यह बहस और तेज हो गई है. पुष्पा के हिंदी वर्जन ने विपरीत हालात के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर तूफ़ान मचा दिया. दिल्ली जैसे इलाकों में सिनेमाघरों के बंद होने के बावजूद हिंदी वर्जन ने 90 करोड़ से ज्यादा की कमाई की. आखिर हिंदी बेल्ट में पुष्पा जैसी फिल्मों की कामयाबी का रहस्य क्या है? पुष्पा पर हुई चर्चा बताती पोग कि इसने बड़े पैमाने पर दर्शकों का ध्यान खींचने में कामयाबी पाई. सिनेमाघरों के बाद फिल्म ओटीटी पर आई और जिस तरह का वर्ड ऑफ़ माउथ था उसकी वजह से तमाम दर्शक ओटीटी स्ट्रीमिंग में भी इसे देख ही रहे हैं.
ओटीटी स्ट्रीमिंग के बाद पुष्पा पर बात थमने की बजाय और बढ़ गई है. कुछ लोग समीक्षक की हैसियत से फिल्म की आलोचना कर रहे हैं. समीक्षाओं में पुष्पा की बुनावट को वाहियात बताया जा रहा है. लोग इसे बेसिर पैर की हरकतों से लैस फिल्म करार दे रहे हैं. यह दूसरी बात है कि इसी फिल्म के संवाद सोशल मीडिया पर लगातार दोहराए जा रहे हैं और उनपर दिख रही मीम्स की बाढ़ व्यापक रूप से लोगों में फिल्म के खुमार को साबित करने के लिए पर्याप्त है. आईचौक पर भी कुछ लेखकों ने फिल्म को लेकर अपनी राय दी. हमने पाया कि आइचौक के जिन लेखों में पुष्पा की आलोचना है, सोशल मीडिया पर आम लोगों की प्रतिक्रियाएं उससे ठीक उलट हैं. कई लोगों ने इसके लिए आइचौक के स्वतंत्र लेखकों को बॉलीवुड का 'दलाल' तक घोषित कर दिया. यह बॉलीवुड के प्रति उनके गुस्से को बताने के लिए पर्याप्त है. साउथ और बॉलीवुड की तुलनापरक कुछ अन्य विश्लेषणों पर भी इसी तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिली थीं.
सवाल फिर वही है कि हिंदी बेल्ट में आखिर वो कौन सी वजह या वजहें हैं जो साउथ की फिल्मों का क्रेज बना रही हैं और बॉलीवुड से इतनी घृणा क्यों है? जहां तक बात फ़िल्में देखने, किसी दर्शक के लिए कंटेंट के मनोरंजक होने और दर्शकों की पसंद नापसंद का है तो- इसका पैमाना अलग-अलग हो सकता है. इस आधार पर 'पुष्पा' को भी पसंद और नापसंद करने वाले हो सकते हैं और खूब हो हैं भी. लेकिन जैसे किसी को सास-बहू की कहानियों पर आधारित टीवी शोज पसंद नहीं आता तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे देखने या पसंद करने वाले लोग नहीं हैं. ऐसे शोज एक ख़ास टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रखकर तैयार किए जाते हैं. इन्हें खूब पसंद करने वाला दर्शक समूह भी है.
खैर, अगर पुष्पा के बहाने दक्षिण के फिल्मों की हिंदी बेल्ट में कामयाबी की थाह ली जाए तो एक अहम तथ्य निकलकर आता है 'बॉलीवुड' के प्रति हिंदी पट्टी में 'घृणा' भी दक्षिण की फिल्मों को बड़ा अवसर उपलब्ध करा रही है. हालांकि सिर्फ यही वजह 'मुख्य' नहीं है. हिंदी बेल्ट में साउथ के फिल्मों का पसंद किया जाना दरअसल कई वजहों और एक पूरी प्रक्रिया का नतीजा है. थाह लेने की कोशिश में हमने पांच बिंदुओं की पहचान की है. आइए जानते हैं.
पुष्पा: द राइज
1) बॉलीवुड की मनमानी
दक्षिण भारत के फिल्मों की लोकप्रियता की एक बड़ी वजह बॉलीवुड की मनमानी दिखती है. असल में यह क्लास और मास के बीच का फर्क है. पिछले 20 साल में बॉलीवुड के फिल्म मेकिंग की प्रोसेस देखें तो इसे समझना मुश्किल नहीं. साल 2000 के बाद बॉलीवुड में नई जमात के फिल्म मेकर्स और राइटर्स की आमद दिखती है. इनके आने से सिनेमा का स्तर ज्यादा तार्किक और विश्वस्तरीय जरूर नजर आया, लेकिन जो सिनेमा बाहर निकला वह उसने एक बड़े वर्ग की जरूरतों को नजरअंदाज किया. वह वर्ग जिसके लिए सिनेमा के मायने तर्क, तथ्य, फिल्मांकन और स्टारकास्ट से अलग थे. इस दौर में मेकर्स ने अपनी इच्छा से फ़िल्में बनाई. वे जैसा सोचते थे वैसी फ़िल्में बना रहे थे. कोई एनआरआई फ़िल्में बना रहा था, कोई सिनेमा में सच्चाई दिखाने की जद्दोजहद में लगा था और कोई बस अवॉर्ड के लिए फ़िल्में बना रहा था. इसके तहत जो फ़िल्में आई शुरू-शुरू में उन्होंने खूब वाहवाही बटोरी. बुनावट में वो थीं भी ऐसी. और कई फ़िल्में फायदे का सौदा रहीं. इसका दबाव यह रहा कि एक भेड़चाल शुरू हो गई. हर निर्माता ऐसी फ़िल्में बना रहा था. एक तरह से यह बॉलीवुड की मनमानी की तरह था.
2) मास सर्किट को नजरअंदाज करना
90 के दशक या उससे पहले बॉलीवुड में फिल्मों की मेकिंग का प्रोसेस अलग-अलग नजर आती थी. ज्यादातर फ़िल्में पॉपुलर धारा में बनती थीं. यथार्थ परक फिल्मों का दायरा अलग था और उन्हें आर्ट फ़िल्में कहा जाता था. ये फ़िल्में अमूमन फंडिंग से बनती थीं जिनका मकसद बिल्कुल भी व्यावसायिक नहीं था. एक और धारा थी जिसमें सी ग्रेड की फ़िल्में नजर आती थीं. संभव है कि उनका भी एक ऑडियंस बेस होगा जिसके लिए फ़िल्में बनाई जाती रही होंगी. पॉपुलर धारा को बॉलीवुड की लाइफलाइन कह सकते हैं. असल में यह बॉलीवुड की कलात्मक और सी ग्रेड धारा का मिलाजुला रूप ही हैं. इसमें सबकुछ था. बढ़िया कहानियां, एक्टिंग, गाने बजाने, ग्लैमर, मार धाड़, सबकुछ.
90 के बाद उदारवाद की आमद ने महानगरीय सिनेमा दिया. इस दौरान मारधाड़ फ़िल्में अलग होने लगीं. 90 से पहले अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, सनी देओल, अनिल कपूर और मिथुन चक्रवर्ती जैसे सितारे सबकुछ करते थे. लेकिन 90 के बाद शाहरुख, आमिर और सलमान के रूप में सिनेमा की एक महानगरीय धारा अलग हुई. छोटे-शहरों कस्बों की धारा का नेतृत्व अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, बॉबी देओल, अजय देवगन जैसे सितारों ने किया. आप इसे मास सर्किट करार दे सकते हैं. गोविंदा की कॉमेडी फिल्मों की भी एक अलग धारा है.
शाहरु,सलमान, आमिर.
हुआ ये कि 2000 तक भले ही अलग-अलग धारा नजर आती थीं, लेकिन हर तरह की फ़िल्में बन रही थीं. प्रेम कहानियां भी और मारधाड़ से भरपूर एक्शन फ़िल्में भी. कहने का मतलब कि हिंदी बेल्ट में जो अलग-अलग धारा के दर्शक थे उनके लिए हर तरह की फ़िल्में थीं. पर 2000 के बाद उसमें कमी आई. मास सर्किट को बॉलीवुड ने पूरी तरह नजरअंदाज किया. इस दौरान कभी कभार ही मास एंटरटेनर नजर आती हैं. लेकिन जब भी आई बड़ी हिट साबित हुईं. सलमान की वॉन्टेड से लेकर शाहरुख खान की चेन्नई एक्सप्रेस या अक्षय कुमार की हालिया सूर्यवंशी तक.
पिछले 10 साल को देखें तो यहीं से दक्षिण के सिनेमा की शुरुआत हिंदी बेल्ट में दिखती हैं. बॉलीवुड जिन फिल्मों को बनाने से मुंह बिचका रहा था वही कहानियां हिंदी में डब होकर टीवी पर प्रीमियर हो रही थीं. ये सब उस वक्त की बात है जब साउथ हिंदी में अपनी फिल्म रिलीज करने को लेकर बहुत इच्छुक नहीं था. तमाम टीवी चैनल्स को लगभग मुफ्त में फ़िल्में मिल रही थीं और उन्हें देखा भी खूब जा रहा था. सेट मैक्स, स्टार गोल्ड और यूटीवी एक्शन पर अचानक से दक्षिण की डब फिल्मों की भरमार दिखी. स्वाभाविक है कि इन्हें देखा जा रहा होगा. ये बदलाव जिस वक्त दिख रहा था उस वक्त हिंदी में बहुत ही कम मात्रा में मास एंटरटेनर फ़िल्में बन रही थीं.
3) बॉलीवुड के नेपोटिज्म की बहस
बॉलीवुड में नेपोटिज्म की बहस ने भी तमाम दर्शकों को बायस्ड किया. अब तो ऐसे लोगों के भरमार दिख जाएगी जो सिर्फ इसलिए बॉलीवुड की फ़िल्में नहीं देखना चाहते कि उन्हें भाई-भतीजावाद से परेशानी है. बॉलीवुड में नेपोटिज्म का इलाज उन्हें साउथ की ओर लेकर जाता है. जबकि साउथ में तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ के सिनेमा उद्योग में भी ख़ास कुनबो का ही बोलबाला है. पुष्पा जहां से आई है उस समूची तेलुगु इंडस्ट्री को मात्र दो से तीन खानदान मिलकर चलाते हैं.
4) सुशांत केस के बाद का माहौल
कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया के ताकतवर होते जाने के साथ लोगों की पसंद-नापसंद बहुत हद तक प्रभावित हुई है. हालांकि इसे मापने का कोई टूल नहीं है, मगर सुशांत सिंह राजपूत केस के बाद जिस तरह का माहौल बना उसमें कई मौकों पर समझ आता है कि कैसे इस एक चीज ने भी प्रभावित किया. हालिया उदाहरण को ही ले तो पुष्पा के साथ ही रिलीज हुई 83 का सोशल मीडिया पर खूब विरोध दिखा. लोग रणवीर सिंह-दीपिका पादुकोण की वजह से फिल्म का विरोध करते दिखे. उन सितारों का विरोध आम दिखता है जो बॉलीवुड के प्रतिष्ठित खानदानों दे निकलकर आते हैं या उनपर किसी खेमे का ठप्पा लगा है.
5) हिंदू-मुस्लिम की मौजूदा राजनीति का असर
सोशल मीडिया के दौर में मौजूदा राजनीतिक माहौल ने भी फिल्मों पर असर डाला. पिछले तीन दशक में हिंदू मुसलमान की दीवार बहुत मजबूती से खाड़ी हुई. बॉलीवुड के खिलाफ आग में घी का काम आमिर खान और शाहरुख खान के कुछ बयानों ने भी किया जिसमें उन्होंने एक मुसलमान होने की निजी पीड़ा व्यक्त की थी. इसमें कोई शक नहीं कि बॉलीवुड के तीनों खान सितारे पिछले कुछ सालों में सबसे बड़े नायक के रूप में दिखते हैं. फिल्म उद्योग में कई अन्य अल्पसंख्यक चेहरे भी चोटी पर नजर आते हैं. राजनीतिक रूप से बॉलीवुड के धार्मिक बंटवारे को लेकर जो बहसें शुरू हुईं उसने हिंदी फिल्म उद्योग को तगड़ा नुकसान पहुंचाया.
नरेंद्र मोदी.
गैर हिंदू चेहरों के बहाने बॉलीवुड पर हिंदू विरोधी आरोप तो मंदिर आंदोलन के बाद से लगने लगे थे लेकिन मोदी के उभार से कुछ साल पहले यह बहुत गहरा होने लगा. इसी दौरान देशभक्ति और राष्ट्रवाद की फिल्मों का उफान दिखा और एक बॉलीवुड से एक नई स्टार पावर नजर आने लगी. अक्षय कुमार, अजय देवगन ने लोकप्रियता के नए मानक स्थापित किए. दूसरी तरह खान सितारों को निशाना बनाया गया. खासकर शाहरुख खान को. उनकी फिल्मों का विरोध हुआ और उसके पीछे राजनीतिक हस्तियां भी दिखीं. फिर दोहराना चाहूंगा कि इसको मापने का कोई टूल नहीं है लेकिन शाहरुख की कुछ अच्छी फ़िल्में इसी इसकी भेंट चढ़ी. जीरो नायाब नमूना है. शाहरुख के करिश्मे को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह फिल्म दस साल पहले आई होती तो ब्लॉकबस्टर होती.
इसी दौरान टीवी प्रीमियर से अलग साउथ से बाहुबली के रूप एक फिल्म सिनेमाघरों में आई जिसने हिंदी बेल्ट में फिल्मों की राजनीति के बहाने बॉलीवुड को नापसंद करने वालों को विकल्प दे दिया. उसके बाद देखिए अब. धार्मिक और राजनीतिक रूप से बॉलीवुड का विरोध करने वाले किस कदर साउथ की तारीफों के पुल बांधते नजर आते हैं. साउथ के फिल्मों का हिंदी बेल्ट में पसंद किया जाने के पीछे बहुत वजहें हैं.
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