Thalaivi Review: कंगना की फिल्म से जुड़े सभी पुराने सवालों के जवाब, नए सवाल के साथ
थलाइवी (Thalaivi movie) जे. जयललिता (J Jayalalitha) के जीवन पर नहीं, बल्कि उनके जीवन में घटी चुनिंदा घटनाओं पर बनी फिल्म है. पर्याप्त नाटकीयता के साथ. एएल विजय के निर्देशन में कहानी केवी विजयेंद्र प्रसाद और मदन कार्की (तमिल वर्जन) ने लिखी है. हिंदी वर्जन रजत अरोड़ा ने लिखा है.
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1) 'थलाइवी' जे. जयललिता के जीवन पर नहीं, बल्कि उनके जीवन में घटी चुनिंदा नाटकीय घटनाओं पर बनी फिल्म है. एएल विजय के निर्देशन में कहानी केवी विजयेंद्र प्रसाद और मदन कार्की (तमिल वर्जन) ने लिखी है. हिंदी वर्जन रजत अरोड़ा का है. कंगना रनौत ने जयललिता यानी सेल्वी जया की भूमिका निभाई है. भले ही थलाइवी कहानी से सच्ची घटनाओं पर आधारित है मगर इन्हें दिखाने के लिए काल्पनिक चीजों का भी सहारा लिया गया है. राजनीतिक दलों के नाम और कुछ राजनेताओं के नाम भी बदल दिए गए हैं.
2) फिल्म की सबसे बड़ी खूबी निश्चित ही उसका एक्टिंग पक्ष और संवाद ही हैं. जया की भूमिका निभा रहीं कंगना थलाइवी में भले ही केंद्रीय पात्र हैं मगर एमजेआर (एमजीआर) की भूमिका में अरविंद स्वामी कई फ्रेम में कंगना पर भारी नजर आते हैं. फिल्म जैसे-जैसे गति पाती है अरविंद के किरदार के अलग-अलग भाव गहरे होते जाते हैं. बीमारी के बाद के उनके सीन तो चरम तक पहुंचे हैं और भावुक कर देते हैं. वो चाहे कंगना के फोन का रिसीवर कान पर टिकाकर चुप बैठे रहना हो या फिर जया-इंदिरा की मीटिंग का हाल सीधे जया से ना सुनकर टीवी के जरिए जानने के बाद जया को लेकर असुरक्षाबोध हो.
3) कंगना ने बढ़िया काम किया है. लेकिन थलाइवी के मुकाबले एक्टिंग फ्रंट पर फैशन, तनु वेड्स मनु और क्वीन अभी भी उनकी बेस्ट परफॉरर्मेंस है. पहला हाफ जितना कंगना का उससे कहीं ज्यादा अरविंद स्वामी का है. फिल्म के एक्टिंग फ्रंट पर सभी किरदार संतोषजनक हैं. बस दो कास्टिंग कमजोर कहे जा सकते हैं. इंदिरा गांधी, वास्तविक किरदार से ज्यादा बूढ़ी नजर आती हैं और राजीव गांधी कुछ ज्यादा ही जवान. दोनों किसी भी लिहाज से किरदार में फिट नहीं थे, भले ही वो बहुत छोटा ही क्यों ना था.
Illustration: Rahul Gupta/India Today.
4) फिल्म में जया के निजी जीवन और परिवार दोस्तों की डिटेलिंग थलाइवी में नहीं है. उनका परिवार स्टार्टिंग स्टेबलिशमेंट भर के लिए है. थलाइवी में जया का निजी जीवन उतना ही है जितने में एमजेआर हैं. बाकी चीजों की झलक भर है. उन्हें ना छुपाने की कोशिश की गई है और ना ही बताने की. आजकल वैचारिक संतुलन बनाने के लिए फिल्मों में इस तरह साइलेंट सीक्वेंस बनाए जाते हैं. अब एमजेआर जया के जीवन में कितने प्रभावी थे और दूसरी चीजों की झलक किस तरह दिखाई गई इसके लिए फिल्म देख लेना चाहिए. वाकई जया-एमजेआर के फ्रेम बहुत एंटरटेनिंग हैं. हालांकि कुछ फ्रेम रेखा की सौतेली मां पर बनी बायोपिक "महानती" से प्रेरित दिखते हैं.
5) जया की मां, उनके भाई, शशिकला का रिफरेंस है. उनकी साड़ियों और सेंडल्स के जखीरे का भी रिफरेंस दिखता है जिस पर खूब विवाद हुए. लेकिन उसे डिटेल नहीं किया गया है. काफी चीजें प्रोपगेंडा जैसी ही हैं लेकिन उन्हें शुद्ध प्रोपगेंडा भी नहीं कहा जा सकता है. प्रोपगेंडा में तो कोई पक्ष और विपक्ष होता है. यहां जया के लिए प्रोपगेंडा तो है पर उसे किसके खिलाफ दिखाने की कोशिश की गई है यह समझ में नहीं आता. पुरुषों के खिलाफ, वीरप्पन के खिलाफ, करुणा के खिलाफ या एमजेआर के खिलाफ?
6) जया, लालकृष्ण आडवाणी की भी तारीफ़ पाती हैं, इंदिरा उन्हें सम्मान देती हैं राजीव भी उन्हें अहमियत देते हैं. करुणा (करुणानिधि) से उनकी अदावत जिस तरह थी उसे नहीं दिखाया गया. करुणा तो यह भी अफसोस करते दिखते हैं कि विधानसभा में जया के साथ जो बेहूदगी की गई थी वो पूरी तरह से गलत था. एमजेआर, जया को बेहद प्यार करते हैं, मेंटोर भी हैं उनके. लेकिन पॉलिटिकल इमेज के लिए जया से दूरी बनाते हैं. और भावुक या राजनीतिक रूप से उन्हें जब जया की जरूरत महसूस होती है इस्तेमाल करते हैं. इंदिरा से मीटिंग के बाद बने हालात में वो जया से ही असहज नजर आते हैं. एमजेआर बहुत मजबूत दिखते हैं लेकिन जया उनकी सबसे बड़ी कमजोरी की तरह नजर आती हैं. क्या जया, एमजीआर की कमजोरी थीं?
7) फिल्म के एक बड़े हिस्से में अन्नादुरई के नेतृत्व में द्रविड़ राजनीति का उदय और उसके आतंरिक संघर्ष का भी संदर्भ है. हालांकि द्रविड़ राजनीति के इशू नहीं लिए गए. एमजेआर और करुणा के बीच वर्चस्व की जंग दिखती है. दोनों की वैचारिकता साफ़ नहीं होती बल्कि दोनों में अलगाव की नींव एक गलतफहमी के रूप में सामने आती है जिसके बाद दोनों के रास्ते अलग हो जाते हैं. दर्शकों को तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति समझने के लिए किसी और फिल्म का इंतज़ार करना चाहिए?
8) एमजेआर के निधन वाले फ्रेम को छोड़ दिया जाए तो तमिलनाडु, वहां की राजनीति, उसके मुद्दे गायब नजर आते हैं. सिर्फ कॉस्टयूम भर से लगता है कि थलाइवी का बैकड्रॉप तमिलनाडु है. संवाद भी हिंदी पट्टी से प्रेरित दिखते हैं. संवादों में द्रविड़ प्रतीक बिल्कुल भी नहीं हैं. उनकी जगह कृष्ण, राधा, भगवान, महाभारत वगैरह का जिक्र आता है. अभी का तो नहीं पता लेकिन द्रविड़ 70-80 के दशक में द्रविड़ राजनीति में ये चीजें लगभग वर्जित दिखती थीं. हो सकता है कि हिंदी दर्शकों के लिए ऐसा किया गया हो. पर बायोपिक जैसी फिल्मों में ये बारीकियां मायने रखती हैं.
9) इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि बहुत सारी चीजें राजनीतिक संतुलन बनाने की वजह से कर दी गई हों. क्योंकि फिल्म जब फ्लोर पर जा रही थी उस वक्त तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी सत्ता में काबिज थी. इस बीच महामारी का पहला दौर आया. फिल्म किसी तरह पूरी हुई और इसे अप्रैल में चुनाव के वक्त रिलीज करने की तैयारी थी. हालांकि एक बार फिर महामारी की दूसरी भयावह लहर आई और योजनाएं धरी रह गईं. अब जबकि फिल्म रिलीज हो चुकी है तमिलनाडु की सियासत पूरी तरह से बदल चुकी है. क्या सियासत के साथ फिल्म का कंटेंट भी बदला गया है?
10) महान बायोपिक की श्रेणी में तो नहीं मगर थलाइवी एक बार देखने लायक फिल्म है. काफी हद तक मेरे लिए कंगना और दूसरे सितारों का काम ठीक लगा है. वैसे भी इस साल कम फ़िल्में आई हैं. और अभी तक के लिहाज से विद्या बालन (शेरनी) और कृति सेनन (मिमी) ही बड़े पुरस्कारों की होड़ में दिख रही थीं. तस्वीर यही रही तो इस होड़ में कंगना का नाम थलाइवी की वजह से जरूर होगा. लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि थलाइवी के लिए उनका काम 100 प्रतिशत राष्ट्रीय पुरस्कार के योग्य ही है. हां, एक प्रविष्टि अरविंद स्वामी की हो तो लोगों को चौंकाना नहीं चाहिए.
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