अपने हिस्से की जमीं और फ़लक तलाशती ‘द केरला स्टोरी’...
फिल्म पर लिखना शुरू करने से पहले एक जरूरी सूचना यदि द केरल स्टोरी को एक फिल्म की तरह ही देखा जाए तो बेहतर है. फिल्म क्योंकि सच्ची घटनाओं पर आधारित है इसलिए इसमें तमाम ऐसी चीजें हैं जो कुछ लोगों को चुभ रही हैं और वो इसके विरोध के लिए सामने आ गए हैं.
-
Total Shares
फिल्म पर लिखने से पहले एक जरूरी सूचना आप लोगों के लिए... फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के पहले टीजर के साथ ही जिस तरह का विवाद खड़ा हुआ और उसके बाद ट्रेलर पर विवाद होने पर इसके निर्माता, निर्देशकों ने कुछ कहा और जिन्होंने विवाद किया उन सभी पर ना जाते हुए हम इसे एक फिल्म के रूप में देखें तो बेहतर होगा. किसी तरह के आंकड़ों से परे रह कर ही फिल्म की खूबियों खामियों पर आइये बात करते हैं. फिल्म शुरू होने से पहले ही एक लंबा चौड़ा अस्वीकरण आप लोग देखते हैं. जिसमें लिखा है यह फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है. उन्हीं से प्रेरित होकर फिल्म में सताए गये तथा मारे गये लोगों के सम्मान के लिए नाम, स्थान, तारीख आदि बदल दी गई हैं. सिनेमाई स्वतंत्रता लेते हुए जिस तरह सच्ची घटनाओं को काल्पनिक बनाकर नाट्यरूपांतरण इसका हुआ है और किसी तथ्यात्मकता का दावा जब निर्माता, निर्देशक ही नहीं करते तो आप क्यों खाम खां बने विवाद पैदा कर रहे हैं भाई! फिल्म को फिल्म की तरह देखिए फिर आंकडा भले एक का हो तीन या तीस हजार का. जो सच है उससे वह तो नहीं बदल जाएगा न!
हालिया रिलीज फिल्म द केरल स्टोरी में ऐसे तमाम दृश्य है जो झकझोर देने वाले हैं
‘शालिनी’ से ‘फातिमा बा’ बनी ‘अदा शर्मा’ ईरान-अफ़गान सीमा पर सयुंक्त राष्ट्र शांति सेना और अफ़गान सेना के कारवास में जाने से पहले अपनी यहां आने से पहले की कहानी सुना रही है. कुछ सुरक्षा अधिकारी उसके ज़िंदा बचने और आईएसआईएस क्यों ज्वाइन किया उसकी वजह जानना चाहते हैं. ताकि वे किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर उसकी मदद कर सकें, जो आरोप भारत सरकार ने उस पर लगाये हैं... लेकिन उसके बाद क्या हुआ यह आप फिल्म देखकर जानिए.
ईरान-अफ़गान की जेल से शुरू हुई यह कहानी आपको फ्लैश बैक में ले जाकर सुनाई जाती है और आप देखते हैं ‘लैंड ऑफ गॉड’ यानी केरल राज्य. जहां शालिनी जैसी कई हिन्दू लड़कियां किसी दूसरे धर्म से किस तरह प्रभावित हो रही हैं. ‘लैंड ऑफ़ गॉड’ से ‘लैंड ऑफ हैल’ में सिर्फ उनकी जिंदगियां ही नहीं फंसी बल्कि एक पूरा राज्य फंसा है. एक दूसरे देश जिसे’ लैंड ऑफ़ हैल’ (अफगानिस्तान) कहा जा रहा है वहां के आतंकियों के बदरंग चेहरे को भी यह फिल्म दिखाती है.
अपनी कहानी से फ्रेम दर फ्रेम धागे खोलती यह फिल्म कम से कम उस सच्चाई को जरुर दिखाती है, जिससे हर भारतीय जुड़ा हुआ महसूस करता है. रोंगटे खड़े करने वाले ट्रेलर के बाद से ही फिल्म से उम्मीदें बढ़ना लाजिमी था, हालांकि रिलीज के कुछ दिन में ये देखना लाजमी और दिलचस्प होगा कि आखिर दर्शकों को ये फिल्म कैसी लगी?
ये कहानी एकमात्र शालिनी उन्नीकृष्णन से फातिमा बनने वाली नर्सिंग स्टूडेंट की नहीं है. और इस बात में कोई दो-राय नहीं है कि सिनेमा आम जनमानस की अवधारणाओं को बदलने की बड़ी ताकत रखता है. बाकी देशों की सिनेमाई विचारधारा जिस तरह दुनिया भर में पोषित हुई है उसी तरह लगता है अब समय भारत का है जब वह अपनी विचारधारा दुनिया को दिखाए.
साथ ही जरूरत है अब उस पूरी नई पीढ़ी को भी समझाने की, जिसके लिए प्यार पहली नजर का बुखार होता है. लेकिन फिर किस तरह यह बुखार उन्हें और उनके पीछे वालों को ऐसा बीमार कर छोड़ जाता है जो न सिर्फ अपने परिवार को बल्कि आसपास के पूरे समाज को भी संक्रमित करता है. फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ पर एजेंडा फिल्म होने के आरोप लगे हैं. आरोप लगा कि 30 हजार लड़कियों के धर्म परिवर्तन का आंकड़ा झूठा है.
ये फिल्म कहानी चार युवतियों की है. तीन पाले के एक तरफ और चौथी दूसरी तरफ. लेकिन, अगर ये सच्ची कहानी किसी एक भारतीय युवती की भी है तो भी इसे दुनिया को दिखाया ही जाना चाहिए नहीं? जिस तरह इससे पहले बतौर निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने हमें नब्बे के दशक और आज के दौर की सच्चाइयों से वाकिफ कराया. तब, जब बहुत कुछ हो रहा था लेकिन ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग कुछ नहीं कर पा रहे थे.
अब, जब बहुत कुछ होना चाहता है लेकिन कुछ लोग हैं जिन्हें यह अखर रहा है. कौन थे वे? कौन हैं वे? वही सबकुछ तो ‘द केरला स्टोरी’ भी दिखाना चाहती है. फिल्म विस्तार से न सिर्फ उन्हें दिखाती है बल्कि उनकी उस विचारधारा से भी परिचित कराती है जिसने हमेशा हमारे धर्म को काफिर समझ उन पर थूकने, उन्हें मारने और उनकी संपत्ति जब्त कर लेने को ही अपना शरिया क़ानून समझा.
यह फिल्म उन सभी चेहरों, मोहरों को बेनकाब करने आई है. यह आपको अपने ही धर्म के प्रति जगाने आई है. धर्मो: रक्षति रक्षत: जिस सूत्र वाक्य को आप और हम दोहराते हैं यह फिल्म उसमें आपकी आस्था और दृढ़ करने आई है. इस फिल्म में ढेरों ऐसे दृश्य हैं जो किसी भी इंसान को विचलित कर सकते हैं, सोचने पर मजबूर कर सकते हैं, आपके भीतर उन दरिदों तथा उनकी जैसी सोच वालों के प्रति घृणा भाव पैदा कर सकते हैं.
लेकिन... लेकिन... लेकिन... हम दर्शकों को चाहिए कि हम ऐसी फिल्मों को कुछ समय का विवाद बनाकर न छोड़ दें. बल्कि कम से कम हम खुद सचेत, सावधान जरुर रहें ऐसी मानसिकता से. इन दृश्यों की तरह ही फिल्म में ऐसे अनेक संवाद हैं जो मारक हैं और आपकी इसे देखते हुए भिंच जाने वाली मुठ्ठियों में पसीना ले आने के लिए काफी है.
इतिहासकारों, राजनेताओं, पुलिस, मीडिया, धर्म के ठेकेदारों आदि यह हर किसी को यह फिल्म छुपे रूप में कटघरे में खड़ा करती है. यह केरल को ‘लैंड ऑफ़ गॉड’ से ‘लैंड ऑफ़ हैल’ में बदलने वालों से सवाल पूछती है. यह फिल्म उन्हें ही नहीं आपको भी, आपके बड़ों को भी गुनहगार ठहराती है कि क्यों हम कुछ नहीं कर पाते. फिल्म में कई तकनीकी खामियां भी हैं.
कुछ जगह स्क्रिप्ट पर किये गये काम की कमी खलती है, इसकी लंबाई अखरती है, कुछ सीन गैरज़रूरी लगते हैं तो कुछ जगह तर्क भी साथ छोड़ता है. दमदार कहानी और बैकग्राउंड स्कोर के साथ इसके गाने और ईरानी-अफ़गानी भाषा का संतुलित संगम इसे देखते रहने के लिए मजबूर करता तो है. लेकिन जब आप इसे देखकर बाहर निकलते हैं तो आपकी जबान पर एक कसैलापन नजर आने लगता है.
तमाम कलाकारों का अभिनय अच्छा रहा है हर किसी कलाकार को फिल्म में अपना दमख़म दिखाने का मौका ज़रूर मिला. बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म की जान बनकर इसका प्रभाव बढ़ाता है. कैमरा तथा रियल लोकेशन इसे बेहद असरदार बनाते हैं. अपनी इन्हीं खूबियों के चलते यह फ़िल्म धीरे-धीरे चुभने लगती है और इतनी चुभती जाती है कि वही इसकी कामयाबी बनकर सामने आती है.
'न जमीं मिली न फलक मिला' गाने में फिल्म की पूरी आत्मा झलकती है और सुनने वाले की रूह तक कंपा देने में सफल होता है यह गाना. निर्देशक सुदीप्तो सेन उस दर्द को बयां करने में कामयाब हुए हैं, जो केरल की उन युवतियों ने सहा जिनका ब्रेनवॉश किया गया, उनका धर्मांतरण कराया गया, शारीरिक पीड़ा जब उन युवतियों की न रह कर आम दर्शक की बन जाएं तो इससे बेहतर कुछ नहीं कि आप निर्देशक की पीठ थपथपा आयें.
अदा शर्मा अपने अभिनय जीवन का सबसे खूबसूरत काम करती नजर आती हैं. वो उन लड़कियों की नुमाइंदगी करती हुई सहज लगती हैं जो धर्म के नाम पर अंधेरे में धकेली जा रही हैं. वहीं योगिता बिहानी क्लाइमक्स सीन में जबरदस्त लगीं. वो अकेले ही जिस तरह से चेहरे के भावों से दिल को चीरती हुई अपनी बात कहती हैं वो फिल्म का सबसे हाई प्वाइंट है. प्रणय पचौरी से लेकर उमर शरीफ ने भी अपने रोल को पूरी तरह जस्टिफाई किया.
कुलमिलाकर ‘द केरल स्टोरी’ आंकड़ों पर आधारित कहानी है, जिसमें बताया गया है कि कैसे गलत जानकारी के चलते केरल के लड़के, और मौलवी मिल कर मजहब के नाम पर अफगानिस्तान और सिरिया के रेगिस्तान में आतंकवाद को बढ़ाने में मदद करते हैं साथ ही ‘इस’ धर्म के लोग ‘उस’ धर्म के लोगों का इस्तेमाल उन्हें वहां दफन करने में कर रहे हैं. हालांकि निर्देशक के तौर पर सुदिप्तो के लिए ये कोई आम सा विषय नहीं था. फिर भी उनका कहना है कि 7 साल के रिसर्च के बाद सच को परदे के हवाले किया गया.
यकीनन उन्हें इतना लम्बा समय लगा होगा तभी वे फिल्म के हर डिपार्टमेंट में विनर साबित होते हैं. जिस गंभीरता और पूरी सच्चाई से उन्होंने इसे निभाया है उसे देखते वक्त आपको लग सकता है कि ये तो अतार्किक है किन्तु समाज, सत्ता और राजनीतिज्ञों की सोच पर जबरदस्त चोट करने में वे कामयाब हुए हैं. क्योंकि वैसे भी धर्म-परिवर्तन कोई नया मुद्दा नहीं है. साहित्य, सिनेमा हमें और आपको ऐसी कई कहानियों के माध्यम से सुना, दिखा और बता भी चुका है.
कभी धर्म में छुपे शोषण ने लोगों को धर्म-परिवर्तन के लिए मजबूर किया है, तो कभी जबरन भी धर्म-परिवर्तन की घटनाएं लगताार सामने आती रही हैं. बीते कुछ बरसों में प्यार के चलते मजबूर कर धर्म-परिवर्तन के सैंकड़ों मामले सामने आए हैं, जिसे ‘लव जिहाद’ का नाम दिया गया है. तो इन सबको देख-सुनकर भी आप प्यार अंधा होता है जैसी बातें आज के जमाने में कहने लगें तो वे जरुर अतार्किक लगने लगें शायद दूसरों को.
जिस तरह के तर्क इस्लाम को दुनिया का सबसे बड़ा धर्म और उनके पैगम्बर को सबसे बड़ा बताने वाले तर्क दिए गये हैं वे भी फिल्म में बहुधा धड़ाम से गिरते नजर आते हैं फिर बाकी धर्मों के भगवान में कितनी ही खामियां क्यों ना गिना दी गईं हों. आसिफा (सोनिया बलानी) जब दोजख़ (नर्क) और हेल फायर का लॉजिक देती है, तो अन्य किरदार शालिनी, निमाह (योगिता बिहानी), गीतांजली (सिद्धी इदनानी) नदानी भरी प्रतिक्रिया देती हैं, उससे हैरानी होती है.
हिंदू धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी मरने के बाद का कॉन्सेप्ट-स्वर्ग, नर्क और पुनर्जन्म है. यहाँ निर्देशक हिन्दू लड़कियों को कमजोर, भोला दिखाकर मुस्लिम लड़की को चालाक तथा अपने धर्म के प्रति वफादार दिखाना लगता है जैसे फिल्म को बैलेंस करने की कोशिश की जा रही है फिर साम्यवाद, धर्म को अफीम कहना, कार्ल मार्क्स का सिद्धांत, रामायण तथा भगवान शिव पर सवाल के साथ-साथ कई जगहों पर असहज कर देने वाले सीन प्रेग्नेंट ने फातिमा का पति द्वारा जबरदस्ती रेप करता है, फातिमा को एक आईएसआईएस ठिकाने पर ले जाना जहां पहले से ही कई महिलाएं सेक्स स्लेव के रूप में मौजूद हैं.
ये सब बातें आपको उस सच से रूबरू कराने के लिए काफ़ी है जिसकी दुहाईयाँ बरसों से दी जा रही हैं. यही वजह है कि शुरू में किसी खास राजनीतिक उद्देश्य से बनाई गई लगने वाली यह फिल्म दर्शकों को अपने साथ जोड़ने लगती है. लेकिन तीन लड़कियों की कहानी को, '32 हजार' लड़कियों की कहानी बताने को लेकर जो विवाद हुआ उस पर मेकर्स ने खुद अपनी ही फिल्म पर एक लाइन लिख दी कि 30 हजार का आंकड़ा मेकर्स को एक आरटीआई के जवाब में मिला और उस जवाब में जिस वेबसाईट का का जिक्र था वह वेबसाइट इंटरनेट से लापता है.
भले फिल्म बनाने वालों का यह दावा आपको तर्क संगत ना लगे, भले यह फिल्म आपको प्रोपैगैंडा लगे, भले यह फिल्म झूठी कहानी लगे, भले यह फिल्म नफरत फैलाने आई है यह कहकर आप इसे ठुकरायें किन्तु सच तो यही है कि आप रोइए, चीखिए, चिल्लाइये, सर पटक दीजिए दीवारों में लेकिन यह सच बदलने वाला नहीं है. जाते-जाते एक अपील आप लोग से जरुर है कि जब इसे सिनेमाघरों में देखने जाएँ तो फिल्म देखते समय अपने मोबाइल की आवाज़ या रोशनी से दूसरों को परेशान ना करें.
अपनी रेटिंग – 4 स्टार.
आपकी राय