Toofan movie: राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म मुसलमानों के साथ अजीब रूमानी धोखा!
तूफ़ान (Toofan movie) में एक नया मुसलमान खड़ा कर दिया जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना ही नहीं है. तूफ़ान से पहले दो मुसलमान थे. एक जैसा वो हैं. दूसरा जैसा- मुसलमानों को लेकर विरोधी बताते हैं. और तीसरे जैसे तूफ़ान में दिखाया गया है.
-
Total Shares
अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज से पहले तूफान दो सबसे बड़ी वजहों से चर्चा में आई थीं. पहली वजह थी- राकेश ओमप्रकाश मेहरा और फरहान अख्तर की जोड़ी का दूसरी स्पोर्ट्स ड्रामा के लिए साथ आना. दोनों ने इससे पहले ओलिम्पियन मिल्खा सिंह की मास्टरपीस बायोपिक "भाग मिल्खा भाग बनाई" थी. एक महान खिलाड़ी की इंस्पायरिंग स्टोरी को शायद ही हिंदी के किसी दर्शक ने ना देखा हो. भाग मिल्खा भाग की वजह से ही तूफान के भी दमदार होने का अनुमान लगाया जा रहा था. चर्चा की दूसरी वजह तूफ़ान में मौजूदा हिंदू-मुस्लिम डिबेट और लव जिहाद है.
मिल्खा और तूफान देखने वालों को दोनों फिल्मों के बीच में जमीन-आसमान का अंतर साफ नजर आएगा. ये अंतर हर लिहाज से है. भाग मिल्खा भाग में भी भारतीय उपमहाद्वीप में कई सालों से चले आ रहे धार्मिक झगड़े को शामिल किया गया था. मिल्खा में बंटवारे और धार्मिक दंगों की पृष्ठभूमि है. लेकिन मास्टरपीस में कुछ भी जस्टीफाई करने की कोशिश नहीं है. जो गलतियां थीं, हालात जैसे थे उन्हें करीब-करीब वैसे ही दिखाया गया. उन हालातों पर कुछ थोपने की कोशिश लगभग नहीं है.
दूसरी ओर तूफान में राकेश मेहरा ने हिंदू-मुस्लिम डिबेट पर फिल्म बेचने की कोशिश तो की, मगर मिल्खा की तुलना में यहां कई चीजों को जस्टीफाई और फिर से परिभाषित करते दिखे. उन्होंने वो नजरिया नहीं लिया जो इस डिबेट में कायदे से जमीन पर दिखती है. बल्कि रुमानी हो गए और उनका या लेखक का एक अलग ही नजरिया सामने आ गया. स्वाभाविक है कि बहुत सारे लोग नजरिए से इत्तेफाक नहीं रखते होंगे. कुछ महीने पहले आई मुल्क या किसी भी फिल्म को ले लें- जो मुसलमानों के वाजिब सवाल का दावा करते हुए बनाई गई हैं. वहां क्या दिखता है? मुसलमान या तो विक्टिम है या वो खुद को देशभक्त साबित करता नजर आता है. वो दिखाने की कोशिश की जाती है कि बहुधर्मी भारतीयों की तरह मुसलमान भी एक साधारण भारतीय की तरह ही है. उसकी भी लगभग वही दिनचर्या, खानपान या सरोकार हैं. मुसलमान का मतलब ये नहीं कि सुबह-शाम हर रोज बिरयानी, कबाब खा रहा है, मटन ही पका रहा है. कुर्ता-पजामा और टोपी पहनकर सो रहा है. महिलाएं घर के गुसलखाने में भी बुर्का पहने हुई हैं.
कई बार बॉलीवुड की फिल्मों को देखकर हैरानी होती है कि घर की बालकनी में बैठी मुस्लिम महिला और लड़कियों को बुरके में ही क्यों दिखाया जाता है? अब ये कौन बताए कि इस्लाम में पर्दा या बुर्का घर से बाहर किया जाता है ना कि घर के अंदर. तूफ़ान में भी ये दिखता है. यहां तक कि महिलाएं बुरका पहन सड़क पर डांस भी कर रही हैं. क्या ऐसा है? सिनेमाई नाटकीयता का मतलब यह नहीं कि जो चीज यथार्थ में है ही नहीं उसे भी बताया जाए. कोई सलाह या सुझाव वहीं तक ठीक है जो हकीकत के करीब हो. रुमानी दर्शन के नहीं.
साफ दिखता है कि मुसलमानों को लेकर जो वाहियात तर्क गढ़े जाते हैं, बॉलीवुड के फिल्मकार उन्हीं तर्कों में बीच का रास्ता निकालते हैं. और ये बीच का रास्ता इतना निजी हो जाता है कि मुसलमानों की बजाय लेखक या निर्देशक की समझ दिखती है. दुर्भाग्य से तूफ़ान की कहानी किसी मुस्लिम ने ना लिखी और ना ही उसे दिखाया. गैरमुस्लिम भी कहानियां लिख सकता है. मौजूदा सवालों के जवाब दे सकता है लेकिन तथ्यों में उसे रुमानी होने की कतई जरूरत नहीं. कम से कम वो सवाल तो सही से समझे. सोचिए कि बॉक्सर अजीज अली की कहानी अगर किसी मुसलमान लेखक ने लिखी होती तो क्या वो वैसी ही होती जैसी फिलहाल दिख रही है? निश्चित ही समाज के मौजूदा ढाँचे में मुसलमानों को लेकर जो सवाल उठे हैं वो उसका जवाब दूसरे तर्कों और तथ्यों से देता.
अजीज और अनन्या की शादी में वो उतना ही मुसलमान रहता जितना पहले था. उसे हिंदू लिबास में कोर्ट मैरिज करने की जरूरत नहीं होती. वो ये नहीं दिखाता कि अनन्या की मां आतंकी हमले में मारी गई थी इस वजह से उसका पिता मुसलमानों को लेकर नफ़रत करता है. आप अपने आसपास देखिए जो मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने का काम करते हैं उनमें से कितनों ने आतंकी हमलों में निजी नुकसान उठाए हैं. राकेश मेहरा ने इस सीक्वेंस से क्या कहने की कोशिश की है? क्या ये ना माना जाए कि समाज धार्मिक आधार पर घृणा के जिस स्तर पर पहुंचा है उसमें मुसलमान ही ज्यादा जिम्मेदार हैं? किसी एक आतंकी के अपराधों की पूरी जिम्मेदारी राकेश मेहरा ने भला कैसे अजीज के कंधों पर थोप दिया.
क्या पूरा मोहल्ला ही गैरमुस्लिम के धर्मांतरण में एकजुट हो जाता है?
तूफ़ान में एक और सीक्वेंस है. अनन्या पिता से झगड़कर अजीज के घर रहने आ जाती हैं. पूरा मोहल्ला अनन्या के इस्लामी नाम और धर्म बदलने पर आमादा है. वो मोहल्ले में अनन्या के हिंदू पहचान के साथ रहने देने को तैयार ही नहीं है. क्या हमारे देश के शहरों कस्बों और मोहल्लों का समूचा इस्लामी समाज ऐसा ही है. अपवाद से इनकार भी नहीं किया जा सकता मगर इतना सलीकरण. ये तो लवजिहाद पर उसी डिबेट को मजबूत करना हुआ जिसमें दावा किया जाता है कि शादी के बाद गैर धर्म की लड़कियों का ब्रेनवाश कर दिया जाता है. उनका मजहब बदल दिया जाता है. तूफ़ान में राकेश मेहरा ने एक नया इस्लाम खड़ा कर दिया जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना ही नहीं है. तूफ़ान देखने के बाद तीन तरह के मुसलमानों की धारणा बनती है. इससे पहले दो मुसलमान थे. एक जैसा वो हैं. दूसरा जैसा- मुसलमानों को लेकर विरोधी बताते हैं. और तीसरे जैसे तूफ़ान में दिखाया गया है.
यानी अजीज अली जैसा मुसलमान ठीक है. वैसे ही जैसे अब्दुल कलाम और अब्दुल हमीद ठीक हैं लेकिन हामिद अंसारी और आजम खान गड़बड़ हैं. गैर मजहबी लड़की से अजीज के प्रेम विवाह को लवजिहाद नहीं कहा जा सकता. क्योंकि उसने शादी के बाद भी पत्नी को उसकी अपनी पहचान छोड़ने के लिए नहीं कहा. वो सहज है. सही मायने में अजीज अली "भारतीय मुसलमान" है, जिसकी बेटी माता पक्ष के संस्कारों में पलती बढ़ती है. नमाज में तो नहीं दिखती, लेकिन मंदिर में जाते, भगवान की पूजा करते और टीका लगाते दिखती है. अजीज हिंदू तौर तरीके से पत्नी का अंतिम संस्कार करता है.
क्यों ना इसे हिंदू मुस्लिम डिबेट में मुसलमानों के साथ राकेश मेहरा की बेईमानी करार दी जाए? क्या ये नहीं लगता कि हिंदू-मुस्लिम डिबेट और लवजिहाद की असल पड़ताल करने की बजाय उन्होंने मुसलमानों के हिंदूकरण का रास्ता दिखाया है. असल में ये फिल्म लवजिहाद नहीं बल्कि "सच्चे भारतीय मुसलमान" की थियरी पर आगे बढ़ती है.
तूफ़ान अंत में यही साबित करती है कि अजीज अली से इतर अन्य मुसलमान बिल्कुल सही नहीं हैं. वो कई शादियां करते हैं. गैरमुस्लिम लड़कियों को शादी के बाद धोखा देते हैं. पूरा मोहल्ला ही लड़के-लड़की के ना चाहते हुए भी धर्मांतरण को विवश कर देता है. ऐसी शादियों में पैदा हुए बच्चों को पिता पक्ष के धार्मिक संस्कार दिए जाते हैं. मुसलमान आवारागर्दी और अपराध के कीचड में धंसे हैं. कुल मिलाकर तूफ़ान का इशारा यही है कि मुसलमान कई मायनों में धार्मिक रूप से जड़ और कट्टर हैं.
राकेश मेहरा से इस तरह की उम्मीद नहीं थी. भाग मिल्खा भाग में उन्होंने बंटवारे के दंगों को इस तरह दिखाया है कि पाकिस्तान में सिखों-हिंदुओं पर हमले को देखकर घृणा होती है. लेकिन उसी फिल्म में यह भी दिखाया है कि जब मिल्खा बंटवारे के बाद पाकिस्तान के अपने गांव जाता है तो बचपन के दोस्त को गले लगा बहुत देर तक रोता रहता है. मिल्खा और उसके दोस्त के आंसुओं में दंगे की सारी पीड़ा धुल जाती है. तूफ़ान की नाकामी यही है कि वो अंत तक हिंदू-मुस्लिम के बीच की घृणा से मुक्त नहीं हो पाती.
आपकी राय