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Updated: 16 जनवरी, 2023 10:20 PM
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साल 1997 में दिल्ली में उपहार सिनेमा त्रासदी पर आधारित, प्रशांत नायर और रणदीप झा द्वारा निर्देशित 'ट्रायल बाई फायर' अनेकों व्यक्तिगत त्रासदियों से उपजी सामूहिक यंत्रणा का एक ऐसा गहन लेखा जोखा है. इसमें प्रविष्टियां आज भी की जा रही हैं, मानों एक अंतहीन सिलसिला हो. ऐसा कहने की वजह बनी है उपहार सिनेमा अग्निकांड के दोषी सिनेमाघर के मालिक अंसल बंधुओं द्वारा न्यायालय से वेब सीरीज के प्रसारण पर रोक लगाने की मांग किए जाने से. हालांकि माननीय उच्च न्यायालय ने मांग ठुकरा दी है, इस लॉजिक के साथ कि दिल दहला देनी वाली उपहार सिनेमा अग्निकांड की घटना निरंतर बहस और चर्चा का विषय रही है.

चूंकि यह एक अकल्पनीय त्रासदी थी जिसने देश का सिर शर्म से झुका दिया था. न्यायालय के लिए बड़ी बात थी कि वेब सीरीज उन कृष्णमूर्ति कपल की लिखी पुस्तक पर आधारित है, जिन्होंने स्वयं अपने दो किशोर बच्चों को इस अग्निकांड में खो दिया था. "यह एक ऐसी कहानी है जो एक सिस्टेमेटिक फेलियर का आरोप लगाती है, जिस तरह से घटना पर मुकदमा चलाया गया और कोशिश की गई, उसके खिलाफ पीड़ा दर्शाती है. एकबारगी मान भी लें नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति का दृष्टिकोण, उनकी राय, उनके तर्क, उनके क्लेश काल्पनिक है, दंपत्ति स्वतंत्र हैं ऐसा कहने के लिए, व्यक्तिगत अनुभव के लिए, घटना पर और वादी की अभियोज्यता पर अपनी धारणा निर्मित करने के लिए जो किसी भी लिहाज से मानहानिकारक नहीं हैं"- ऐसा माननीय न्यायाधीश ने माना है.

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लिमिटेड वेब सीरीज के गुण दोष पर आने के पहले शीर्षक की बात कर लेते हैं, "क्या वाकई अभियुक्तों का परीक्षण हुआ?" हां, बिल्कुल हुआ इस लिहाज से कि कानून निरापद रूप से उनके लिए था, है और रहेगा भी, चूंकि वे पावरफुल हैं, रसूखदार हैं और धनाढ्य हैं. दरअसल रसूख और पैसा सिस्टम को भ्रष्ट करता है और न्याय प्रणाली सिस्टम के अधीन है. सिस्टम ने कोई कोर कसर छोड़ी ही नहीं अंसल बंधुओं को ही विक्टिम सिद्ध करने में. हां, फेस सेविंग के लिए, न्याय के सम्मान के लिए जब मन हुआ थोड़ी बहुत सजा सुना दी, जब मन हुआ सजा कम कर दी. असल पीड़ितों के लिए तो 'देर है अंधेर नहीं' सरीखा झुनझुना है ही अंतहीन इंतजार करने के लिए; 25 साल तो कुछ भी नहीं है. दूसरी तरफ अंसल जैसे लोगों के लिए कोर्ट के फैसलों से कोई फर्क नहीं पड़ता. उनके पास हजार तरीके हैं प्रोसीडिंग को टालने के, बार-बार अपील करने के, ऐसा ही हुआ है, होता आया है और हो भी रहा है.

सही मायने में देखा जाए तो वेब सीरीज 'ट्रायल बाई फायर' उत्कृष्ट कृति बन जाती यदि फोकस सिर्फ कृष्णमूर्ति दंपत्ति के उपहार हादसे के पीड़ितों की अगुआई के रोल में किये गए संघर्ष तक ही सीमित रहता जिसकी शुरुआत भरसक बदला लेने के लिए हुई थी. लेकिन कालांतर में प्रतिशोध की कशमकश से बाहर निकलकर उन्होंने संघर्ष के रुख को बदलाव की ओर मोड़ दिया था. फिर भी सीरीज काबिले तारीफ है. इस मायने में कि बिना किसी लागलपेट के जो हुआ है, बस उसको कहती चली जाती है और इस कहने की यात्रा में कानून के, समाज के, पुलिस के और मीडिया के चेहरे बेनकाब होते चले जाते हैं. सिस्टम के साथ साथ कानून की रखवाली करने वालों की बखिया उधेड़ती चलती है सीरीज.

इस सीरीज में सारे के सारे पात्र इंसानी है और उन्हें इंसानी ही रखा गया है. कोई अतिरंजना नहीं की गई है. डिस्क्लेमर जरूर है कि वेब नीलम कृष्णमूर्ति और शेखर कृष्णमूर्ति की रचना 'ट्रायल बाइ फायर- द ट्रैजिक टेल ऑफ़ द उपहार फायर ट्रेजेडी' पर आधारित एक काल्पनिक कहानी है, लेकिन हेड्स ऑफ़ टू सीरीज बनाने वालों को उन्होंने अंसल बंधुओं के नाम नहीं बदले. निःसंदेह एक बड़े संघर्ष की यात्रा में सच्चे किरदारों की मनोदशा, विवशता, हताशा और उम्मीदों का सटीक चित्रण कर पाई है सीरीज. यक़ीनन क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है, लेकिन रचनात्मक स्वतंत्रता मानों असल घटनाक्रमों में यूं रचबस गई हैं कि फर्क करना ही मुश्किल है.

शायद यही अंसल बंधुओं की परेशानी का सबब है. इस सीरीज के स्ट्रीम होने से. यदि ओटीटी कम्पल्सन जनित कुछ एक सिचुएशन छोड़ दें तो कुल मिलाकर संवाद भी इतने बेदाग़ और पवित्र हैं कि वो कहावत याद आ जाती है, 'देखन में छोटे लगै घाव करै गम्भीर.' मितभाषी नीलम जब भी बोलती है, उसका बोला दिल को छू जाता है, 'सिनेमा हॉल नहीं श्मशान था वो', 'प्रधानमंत्री क्या कर रहे हैं, जानवरों के साथ बिजी हैं'. ख़ास कर अदालत का वो वाक़या उबाल ला देता है जिसमें डिफेंस उसे बतौर विटनेस बुलाता है. एक्सप्लॉइट करने के लिए और वह बहुत कम शब्दों में ही धज्जियां उड़ा देती है. डिफेंस यानी अंसल के नामी गिरामी वकीलों की फ़ौज की. उन पलों को कोट-अनकोट नहीं करते, इंटरेस्ट जो बना रहना चाहिए व्यूअर्स का.

वेब सीरीज 'ट्रायल बाइ फायर' शुरू के चार एपिसोड तक उत्कृष्ट है, लेकिन पांचवें एपिसोड से पटरी से उतर जाती है. पांचवें से लेकर सातवें एपिसोड (कुछ प्रसंगों को छोड़कर) तक सीरीज क्यों विस्तार पाती है, समझ से परे है, जबकि जिस सहज तरीके से कहानी बढ़ रही थी उसके अनुरूप ही कहानी पांचवें एपिसोड तक ही ख़त्म की जानी चाहिए थी. ऐसा नहीं हुआ और यही इस वेब सीरीज का सेटबैक है. अनुपम खेर और रत्ना शाह अभिनीत किरदारों का विस्तार अनावश्यक था, अनावश्यक ट्रांसफॉर्मर रिपेयर करने वाले फोरमैन के जेल से बेल पर छूटकर आने के बाद उसकी पत्नी का उसके साथ हमबिस्तर होने का प्रसंग भी था. उपहार हादसे वाले दिन की कहानी में एक कहानी समलैंगिक जोड़े की भी अनावश्यक ही थी. ओटीटी वालों को अब इन बाध्यताओं के मकड़जाल से अब बाहल निकलना चाहिए.

इस सीरीज की असल नायक राजश्री देशपांडे है. उन्होंने नीलम कृष्णमूर्ति के जुझारूपन को खूब जिया है. शेखर के रोल में अभय देओल ठीक हैं, हालांकि उनकी अपनी स्टाइल है, जिसे वे छोड़ नहीं सकते. फिर भी उन्होंने इस रोल में स्वयं की अनिवार्यता सिद्ध कर दी है और इसके लिए कास्टिंग टीम बधाई की पात्र है. आशीष विद्यार्थी इस कहानी के सफेदपोश खलनायकों के एक्सपोज्ड प्रतिनिधि के किरदार में हैं जिसके द्वंद को वही उभार सकते थे स्क्रीन पर, अनुपम और रत्ना के अभिनय पर उनका कहानी में ठूंसा जाना भारी पड़ गया है. पड़ोसन के किरदार में शिल्पा शुक्ल वर्थ मेंशन हैं. मदद करती है लेकिन दबाव में आकर खिलाफ जाता बयान भी दे देती है.

कुल मिलाकर वेब सीरीज 'ट्रायल बाई फायर' अंतिम तीन एपिसोड में भटकती हुई नजर आती है. फिर भी वेब की टीम ने सराहनीय काम किया है. सो सीरीज देखनी बनती है. इस सिंसियर एडवाइस के साथ कि पहले चार एपिसोड मन लगाकर देखें. बाकी बचे तीन एपिसोड भी देखें जरूर; जरुरत लगे तो रिमोट हाथ में हैं ही, यूज कर लें वर्जित नहीं हैं. और अंत में इसलिए भी देखें इस वेब सीरीज को कि कहीं न्यायालय इस वेब को कंटेम्प्ट के लिए दोषी ठहराते हुए बैन ना कर दें, माननीय न्यायाधीश ने कहा भी तो है कि सीरीज देखे जाने की बाद ही समझ सकते हैं कि आपत्तिजनक क्या है जिसकी वजह से सीरीज की स्ट्रीमिंग रोकी जाय या आपत्तिजनक हिस्से को हटवाया जाए.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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