दलितों का छुआ खाना-पानी मंजूर नहीं, टीवी पर वागले की दुनिया खोखले समाज को कैसे दिशा दे रहा?
जाति और पेशे के आधार पर हर तरफ भेदभाव नजर आता है. शहरीकरण में जातिगत भेदभाव तो एक अलग रूप ही धरता जा रहा है. आइए जानते हैं वागले की दुनिया में हाल के दो एपिसोड में खोखले समाज को जिस तरह से राह दिखाने की कोशिश की गई है वह क्यों तारीफ़ के काबिल है.
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राजस्थान में एक दलित बच्चे इंद्र मेघवाल की प्राइवेट स्कूल में बेरहम पिटाई का मामला सामने आया है. बच्चे की गलती केवल यह थी थी कि उसने टीचर छैल सिंह के पानी का मटका छू लिया था. टीचर सवर्ण जाति का है. बस इतने गुनाह भर के लिए नाराज टीचर ने जानवरों की तरह बच्चे को पीटा. मामला जुलाई का है. दबाव डालकर सुलह समझौता कर लिया गया था. लेकिन जब इलाज के बावजूद बच्चे की हालत सुधर नहीं पाई और उसकी मौत हो गई है अब सनसनी के रूप में सामने आया है. कुछ दिनों के अंदर जाति भेदभाव को लेकर दलितों पर उत्पीड़न की कई घटनाएं देशभर से सामने आ चुकी हैं.
आजादी के 75 सालों में भारत ने कई उपलब्धियां जरूर हासिल की हैं, बावजूद भेदभाव के सवाल पर देश वहीं खड़ा है जहां सालों पहले था. गांवों, कस्बों और शहरों में जातिगत भेदभाव थोड़े बहुत सुधार के साथ पुराने रंग ढंग में ही दिखता है. जैसे इंद्र के मामले में दिखा. जन्मना वजहों से जातिगत भेदभाव दलित और अनुसूचित समाज के लिए कभी ना ख़त्म होने वाला जख्म बना हुआ है. यह उन्हें बारबार जानलेवा तकलीफ देता है. वैसे शहरीकरण की तरफ तेज रफ़्तार में आगे बढ़ रहे देश में अब जातिगत भेदभाव जन्मना वजहों से अलग रूप भी लेता दिख रहा है. खासकर मेट्रो सिटीज में.
मिसाल के तौर पर पिछले दिनों कोयम्बटूर में भी एक मंत्री ने पानीपुरी बेंचने वालों का मजाक उड़ाया. असल में वह मजाक भी नस्ली भेदभाव का ही एक रूप था. मजदूरी करने वाले, साइकिल में पंचर लगाने वाले, हाथठेले पर छोटा मोटा कारोबार करने वालों के साथ भेदभाव की शिकायतें सामने आती रहती हैं. सब्जी बेंचने वाले, फेरी लगाने वाले और पकौड़ा तलने वालों का पेशा लोगों के उपहासपूर्ण श्रम है. यह दूसरी बात है कि इसी पेशे से लाखों परिवारों से इंजीनियर, डॉक्टर, गजटेड अफसर और मेडल लाने वाले खिलाड़ी भर भरकर निकल रहे हैं. शहरी भारत में पेशे के आधार पर होने वाले ऐसे के भेदभाव- जातिगत भेदभाव की तरह ही समस्या का रूप लेते दिख रहे हैं.
वागले की दुनिया
क्या मेट्रो शहरों में नए तरह का जातिगत भेदभाव पनप रहा है?
जातिगत आधार पर भेदभाव बने रहने की एक वजह इसे लेकर हमारी समझ का संकुचित होना भी हैं. सोनी टीवी पर प्रसारित होने वाले लोकप्रिय टीवी शो 'वागले की दुनिया' कई जरूरी मुद्दों पर खोखले समाज की पोल खोल रहा है और एक आदर्श नागरिक की जिम्मेदारियों का मुस्तैदी से सीमांकन कर रहा है. शो के लगभग सभी एपिसोड में नए जमाने के समाज के लिए समझाइश की तरह हैं, मगर हाल के दो प्लाट में कुछ इसी भेदभाव की तरफ ध्यान आकृष्ट कराने की कोशिश दिखती है. यह सीरियल मुंबई के एक हाईराइज सोसायटी के कुछ परिवारों की कहानी दिखाती है. बड़े शहरों में तेजी से 'हाईराइज' सोसायटीज का चलन बढ़ा है. दुष्परिणाम यह हुआ कि लोगों का अपने पड़ोसियों से संपर्क कम हुआ और सामजिक भाईचारा भी संकुचित हुआ है.
वागले की दुनिया इसीलिए ख़ास बन जाता है कि यहां हाईराइज में तीन परिवारों- वागले, जोशीपुरा और अग्रवाल की कहानियों के जरिए नए दौर में सामाजिक व्यवहार बरतने की सीख मिलती है. वागले की दुनिया में सोसायटी है वहां आशाबाई मेड का काम करती हैं और गणपत राव तिवारी वाचमैन की नौकरी करता है. तिवारी के बेटे को अपने पिता के पेशे से दिक्कत है. वह सार्वजनिक रूप से पिता के श्रम की वजह से शर्मिंदा होता है. एक बार बेटे के दोस्तों के सामने तिवारी को जिस तरह उसके बेटे ने पहचानने से इनकार कर दिया उसपर गहरा असर पड़ता है.
किसी वाचमैन का बेटा पेशे की वजह से पिता से ही नफ़रत करे तो दोषी पूरा समाज है
सवाल है कि वाचमैन का पेशा खराब कैसे हो गया? वह कोई अपराधी तो है नहीं. ईमानदारी, मेहनत और अपनी दक्षता में उसे जो मिला, पूरी जिम्मेदारी से निभा रहा है. एक मामूली नौकरी से बेटे को पढ़ा-लिखा रहा है ताकि वह उससे बेहतर जीवन पा सके. अगर किसी वाचमैन का बेटा पेशे भर की वजह से पिता से नफ़रत करे तो कहीं ना कहीं इसका दोष समाज का होता है जिसने ऐसी सोच को जगह दी. खैर. शो में जब तिवारी का व्यवहार बदल जाता है और वह दुखी रहने लगता है- वागले उसकी तह में जाने की कोशिश करता है.
वागले से तिवारी का बेटा कहता है कि हां मुझे शर्म आती है और इसके जिम्मेदार आपलोग भी हैं. क्या आप अपने बच्चों को हमारे साथ उठाने बैठने और खेलने से रोकते नहीं हैं? वागले को अपनी गलती का एहसास होता है और वह सबसे पहले अपने घर से सुधार की कोशिश करता है. बाद में चीजें सही भी हो जाती हैं. इसी प्लाट से पहले सोसायटी में डोमेस्टिक हेल्पर्स की समस्या और उनके श्रम के मूल्य को लेकर भी एक दिलचस्प प्रेरक कहानी है. असल में सोसायटी के सबसे अमीर परिवार हर्षद अग्रवाल ने मॉपिंग रोबोट खरीद लिया है. किन्हीं मजबूरियों के चलते एक दो दिन आशा नाम की मेड काम पर नहीं आती और विकल्प के रूप में रोबोट खरीदा जाता है.
अग्रवाल अपने मित्रों और सोसायटी के दूसरे लोगों को भी ऐसा ही करने की सलाह देते हैं. जब आशा को यह बात पता चलती है कि एक मशीन की वजह से उसका काम छीन जाएगा- वह परिवार को लेकर चिंताग्रस्त हो जाती है. वागले, हर्षद को रोकता है. उसका मानना है कि मशीन, इंसान की जगह नहीं ले सकता. आशा की नौकरी उसके परिवार के लिए भी जरूरी है. और वह बताता है कि एक दिन सबको अपने घरेलू काम या तो खुद करने पड़ेंगे या मशीन का सहारा लेना पड़ेगा. क्योंकि जो डोमेस्टिक हेल्पर हैं- तिवारी या आशा, उनके बच्चे पढ़ने लिखने के बाद माता पिता से बेहतर ही काम करेंगे. तमाम उठापटक के बाद लोग वागले की बात मान लेते हैं और आशा की नौकरी बची रह जाती है.
जिनकी जाति और श्रम की वैल्यू का मजाक उड़ाया जा रहा उनके बच्चों की उपलब्धियां तो देखें
अच्छे काम और बुरे काम के बीच श्रेष्ठता के आधार पर जो बंटवारा भारतीय उपमहाद्वीप में दिखता है वह और कहीं नजर नहीं आता. पश्चिमी देशों में किसी भी काम को छोटा बड़ा नहीं समझा जाता. बल्कि सभी परिवार बच्चों की परवरिश ही इस तरह करते हैं कि वे हर तरह के श्रम की वैल्यू करें. यही वजह है कि डोमेस्टिक हेल्प से लेकर तमाम छोटे मोटे काम करने वाले लोग पश्चिम देशों में अपमानित नहीं किए जाते हैं. आजादी के 75 सालों में धीरे-धीरे आगे बढ़ते देश को भी उसी लक्ष्य की तरफ बढ़ना चाहिए. एक ऐसा लक्ष्य जहां किसी तरह के श्रम की अवमानना ना हो.
जहां तक बात छोटे मोटे काम करने वालों के भविष्य का है अगर हाल के सालों में बोर्ड, प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं के नतीजों को देखें तो मामूली काम करने वाले मातापिता की संतानों ने उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं. वागले की दुनिया में कोई दलित किरदार नहीं हैं, या यह भी हो सकता है कि मैं कुछ महाराष्ट्रीयन सरनेम को बहुत बेहतर नहीं समझता और फिलहाल गूगल पर भी उनकी जाति चेक करने नहीं जा रहा हूं. लेकिन इस आधार पर कुछ लोग चाहें तो शो की आलोचना भी कर सकते हैं. आखिर दलित किरदार क्यों नहीं रखा गया? वाचमैन के रूप में तिवारी का अनुभव और वाचमैन के रूप में एक दलित का अनुभव बेशक अलग हो सकता है. मगर भावना के लिहाज से भेदभाव को लेकर एक सकारात्मक संदेश तो दे ही जाता है.
टीवी सीरियल ऐसे तमाम मुद्दों- कई टैबू को लेकर भी समाज के लिए एक जिम्मेदार भूमिका निभा रहा है. सास बहू के रिश्ते, हाउस वाइव्स की परेशानियां, बेटियों पर नियंत्रण, घरेलू हिंसा, छेड़खानी, स्मार्टफोन इंटरनेट पर बच्चों का जरूरत से ज्यादा समय बिताना, पीरियड्स, बॉस कलिग के रिश्ते और रोजमर्रा की ना जाने कितनी परेशानियों को लेकर संदेश मिलता है. शो के तमाम एपिसोड बताते हैं कि सीरियल पूरी जिम्मेदारी से आदर्श शहरी नागरिक और उसके बेहतर सामजिक व्यवहार को सही दिशा देने का प्रयास कर रहा है.
याद रखिए कोई आपके घर में झाड़ू पोछा कर रहा है या फिर चौकीदारी का काम कर रहा है तो इसका मतलब यह नहीं कि इंसान के तौर पर वह अपने पेशे या जाति की वजह से आपसे कमतर है.
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