90 में गांव छोड़ने वालों- 30 साल में फुलेरा बदल चुके हैं, 'पंचायत' में गलती का सुधार अच्छी बात है!
पंचायत के नए सीजन में कहानी और किरदारों के स्तर पर बदलाव की चर्चा है. पंचायत के बहाने गांवों में दिलचस्पी लेने वालों की रूचि के मद्देनजर मेकर्स की ऐतिहासिक जिम्मेदारी बनती है कि फुलेरा के रूप में दिखे गांव पर पुनर्विचार करें. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि 90 के दौर में गांव छोड़कर निकले नव शहरी लोग भी आज के गांवों से अपडेट हो जाएंगे.
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टीवीएफ और अमेजन प्राइम वीडियो की वेबसीरीज पंचायत के दोनों सीजंस ने दर्शकों का जबरदस्त ध्यान खींचा. इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि हिंदी माध्यमों में लंबे वक्त बाद गांव और उसकी एक कहानी को विस्तार देने की कोशिश दिखी. वह चाहे जिस रूप में दिखा हो, मगर गांव गाहे-बगाहे सिनेमा धारावाहिकों में आता रहा. हालांकि तीन दशकों में सिलसिला नाम मात्र का रह गया था. कम से कम लोकप्रिय धारा में गांव, शहर की चकाचौंध से भरी कहानियों में गायब नजर आएं. या गांव से ज्यादा उसके पलायन की पीड़ा में लिपटी कहानियां दिखीं. बहुत हद तक गांवों के कम दिखने की भरपाई छोटे शहरों की कस्बाई कहानियों ने बखूबी किया. गांव को गांव की तरह दिखाने की कोशिश पंचायत के मेकर्स की बड़ी उपलब्धि ही मानी जाएगी. खैर.
पंचायत ने हर तरह के दर्शकों को आकर्षित किया. समर्थन और विरोध में कई चीजें भी दिखाई पड़ीं. तालियां की तुलना में गालियां भी कुछ कम नहीं थीं. असल में फुलेरा के रूप में जो गांव दिखाया गया, हकीकत में वैसे गांव अब कहां हैं? और वह भी उत्तर प्रदेश के ठेठ पूर्वी इलाकों या बिहार में बलिया जिले के फुलेरा जैसे गांवों की कल्पना करना भी मुश्किल है. जो बहस शुरू हुई उसमें गांव के जातीय आधार पर खूब बात हुई. एक धड़े का सवाल वाजिब भी दिखा कि यह कैसा गांव है जिसमें उसका सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचा ही नजर नहीं आ रहा? सचिव से लेकर पंचायत के प्रधान तक ज्यादातर किरदार अगड़ी जातियों से हैं. गांव की बाकी जातियां क्यों नहीं दिखती हैं?
कहानी को परोसने की दृष्टि से हर निर्देशक अपनी सीमा में छूट लेता रहा है हमेशा. मगर बात जब परफेक्शन और चीजों को यथार्थ में दिखाने का दावा हो- मेकर्स की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. यह सच्चाई है कि पंचायत अपने सवर्ण किरदारों के दबाव में इतना डाब गया है कि फुलेरा, फुलेरा जैसा नहीं दिखता. अच्छा होता कि वे उन किरदारों को भी लेकर आते और जिनके जरिए देश की सबसे निचली इकाई का समाज, जो गांवों में है- उसमें आए बदलाव, उसके झगड़े और उसकी उपलब्धियां सामने आतीं. इससे उस जमात को भी वक्त के साथ अपडेट हुए गांवों को ज्यादा बेहतर समझने का मौका मिलता जो 90 के आसपास जवान होने के साथ गांव छोड़कर दूसरे राज्यों के शहरों-महानगरों में भाग आया.
पंचायत के एक दृश्य में रघुवीर यादव, चंदन रॉय और जितेन्द्र कुमार .
पंचायत के सीजन 3 में क्या बदलाव हो रहा और किस वजह से?
निश्चित ही 90 वाली जमात में ज्यादातर हिस्सा सवर्णों का रहा. 'जन्मना' वजहों को छोड़ दिया जाए तो उनकी एक बड़ी आबादी आज की तारीख में किसी भी एंगल से ग्रामीण नहीं कही जा सकती. बल्कि उनमें कई तो ज्यादा जिम्मेदार और सभ्य शहरी बाबू बन चुके हैं. वह तबका अब 'संवेदनशील बुजुर्ग' या अधेड़ हो चुका है और जब तब गांव के बेइंतहा दर्द को शब्द देने की भी कोशिश में दिखता है. 'संवेदनशील बुजुर्ग' जमात पर और बात करने से पहले पंचायत और उसके नए सीजन पर एक जरूरी चर्चा हो जाए.
असल में पंचायत की लोकप्रियता और एक वर्ग द्वारा उठाए गए वाजिब सवालों पर शायद मेकर्स ने ध्यान दिया है. कहा जा रहा कि पंचायत के तीसरे सीजन में सभी चीजों पर बेहतर ध्यान रखा जाएगा. GQ के मुताबिक़ पंचायत के निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा ने कहा है कि तीसरे सीजन की तैयारियां हो रही हैं. हालांकि जल्दबाजी नहीं है. हम परफोर्मेंस और स्क्रिप्ट पर ध्यान दे रहे है. इस वजह से इसमें (तीसरा सीजन) वक्त लगेगा. मेकर्स ने नए सीजन की तैयारियों के बहाने स्क्रिप्ट को लेकर बहुत विस्तार से तो नहीं बताया मगर, स्क्रिप्ट में फेरबदल नजर आ सकता है. और यह माना जा सकता है कि किरदारों में सामजिक, आर्थिक और राजनीतिक लिहाज से नए सीजन में ज्यादा विविधता दिखे. इसी बात को लेकर पंचायत की खूब आलोचना भी हुई. बदलाव को लेकर दावा नहीं किया जा सकता. मेकर्स ने आधिकारिक रूप से कुछ नहीं बताया है. पंचायत को जितेन्द्र कुमार, रघुवीर यादव, नीना गुप्ता, चंदन रॉय, फैसल अली और सुनीता रजवार ने दिलचस्प भूमिकाएं निभाई हैं.
पंचायत में दिखा गांव फुलेरा असली है नकली?
बुनावट के हिसाब से देखें तो पंचायत में दिखा गांव असली है. प्रकृति और व्यवहार में देखें तो थोड़ा सा असली नजर आता है. दिव्य निपटान के लिए लोटा लेकर सुबह-सुबह खेत की तरफ भागते इंसान, किसी गांव का रूपक नहीं हो सकते. आर्थिक-सामजिक रूप से बेहद समृद्ध पश्चिमी महाराष्ट्र के गांवों में भी कुछ साल पहले तक लोटा कल्चर आम था. हो सकता है कि अभी भी हो. ठीक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समृद्ध जाटों के गांवों की तरह, जहां सुबह-सुबह लोटा लेकर निकलना एक अघोषित संस्कृति में जरूरी मसला हुआ करता था. और पंचायत में दिखाई जा रही राजनीति गलत इसलिए दिखती है कि प्रधान चाहे जितना ईमानदार या भ्रष्ट हो- सचिव उससे ताकतवर नहीं हो सकता. गांवों के एक भी बड़े मुद्दे को वेबसीरीज पकड़ने में नाकाम रहा जो असल में सामजिक ही होते हैं.
जहां तक बात प्रधानपतियों की है, पूर्वी यूपी के तमाम 'फुलेराओं' में अभी भी ना सिर्फ पत्नी के नाम पर उनके पति 'परधानी' करते हैं बल्कि कई जगह तो इससे भी कहीं आगे दबंग- पंचायतों में अपने 'हरवाहों' 'चरवाहों' के जरिए खड़ाऊ परधानी करते हैं. इन पंक्तियों का लेखक हवा हवाई नहीं कह रहा. पंचायती राज व्यवस्था अभी भी अपने शैशवाकाल में है. पंचायत के दोनों सीजंस का असल दुख यही है कि गांव में हुए तमाम बदलाव मुखर होकर सामने नहीं आ पाते.
गांव के रूप में फुलेरा कई जगह कई बार उसी तरह दिखता है जैसे हिंदी सिनेमा की पॉपुलर धारा ने आदिवासियों को दिखाया. चेहरे पर रंगों की पुती रेखाएं, ढेर सारे टैटू, सिर पर पंखों का ताज, पत्तों से बने कपड़े, नंगे पैर भाला लिए हुए और हु..हा..हु..हा.. के रूप में रहस्यमयी भाषा में बतियाते फ़िल्मी आदिवासी किसी दूसरे ग्रह के जीव लगते हैं. वैसे ही जैसे राजकपूर जैसा शोमैन भी उत्तर भारत के किसी गांव की अपनी सुंदर नायिका को बेहद तंग ब्लाउज और घाघरा पहनाकर नाभि दिखाने की शातिर इजाजत लेता है और शहरी दर्शकों को ग्रामीण ड्रेस कोड बताता है. पंचायत का भी गांव ठेठ यूपी का तो नहीं दिखता. हो सकता है कि मध्य प्रदेश के सीहोर में बिल्कुल ऐसा ही गांव हो जहां इसे शूट किया गया है. वैसे भी लगभग हर राज्य के गांवों की अपनी प्रकृति है. यह भी कि लेखक सीहोर के गांवों के बारे में बहुत गहराई से नहीं जानता.
फुलेरा की कहानी आने से पहले गांव खूब बदले, आपने ध्यान ही नहीं दिया- गलती आपकी
अब दिक्कत यह है कि जिन्होंने गांव लंबे वक्त पहले छोड़ दिया, सालों-साल बीतने के बावजूद उनका गांव आना-जाना ना के बराबर है. उन्हें मुश्किल से हर साल चार रातें चार दिन, अपने गांव और वहां अपने घर से बाहर लोगों के बीच बिताने का अनुभव नहीं ही होगा. उनके लिए जरूर किसी फिल्म या वेबसीरीज में 'फुलेरा' दिखना गांव देखने के लिहाज से बड़ी उपलब्धि है. स्वाभाविक है कि 'फुलेरा' उन्हें एक आदर्श गांव के रूप में ही नजर आता है. यह सच है कि ऐसे लोगों की खुशी के लिए वेबसीरीज में चीजों की कमी भी नहीं हैं.
लेकिन अगर वही लोग पंचायत के मेकर्स की तरह गांवों के अपडेट संस्करण को जाने बिना गांव से जुड़े किसी मामले पर विचार प्रकट करते हैं- गांव समझने की भूल कर बैठते हैं. यह भूल यदा-कदा ही दिखती है. भला गांवों की संस्कृति और बदलाव और चुनौतियों पर बात करने के लिए किसके पास वक्त है? पिछले दिनों हिंदी के एक वरिष्ठ कवि, लेखक और पत्रकार प्रियदर्शन की एक विचारोत्तेजक टिप्पणी दिखी. बेचारे गांवों और उनके लोगों की बेचारगी पर. उन्होंने बेचारगी को शब्द देने की कोशिश की.
असल में पिछले दिनों सहारनपुर से जुड़ी खबर आई थी. यूपी सरकार ने करीब 5400 से ज्यादा पुरानी साइकिलों को नीलामी किया और उनसे 21 लाख रुपये से ज्यादा की कमाई की. साइकिल मजदूरों की थी. वे मजदूर जो कोरोना महामारी में लॉकडाउन लगने के बाद वापस अपनी साइकिल लेने शहर लौटे ही नहीं. साइकिल के बहाने प्रियदर्शन ने सरकारों की जरूरी लानत मलानत की. और मजदूरों की बेचारगी पर ऐतिहासिक ध्यानाकर्षण का प्रयास किया. टिप्पणी दिल झकझोरने वाली थी और उसे पढ़ कर किसी भी मनुष्य का दिल बैठना स्वाभाविक है.
गांव से निकलकर शहर आने वाले लोग कौन हैं?
मेरा सौभाग्य है कि मैं यूपी के एक सर्वाधिक पिछड़े जिले के सर्वाधिक पिछड़े गांव से हूं. लगातार गांव के संपर्क में रहने की वजह से लेख से मैं भी परेशान जरूर हुआ, पर मेरा दिल बैठने से बच गया. मैं जान सकता हूं कि रोजगार के लिए गांव से किस तरह का पलायन होता है और क्यों? मजदूरों का एक धड़ा सभ्य-संपन्न 'शहरी' बनने के लिए किसी बड़े शहर महानगर का रुख करता है. उसके इस पलायन में उसका अपना परिवार भी साथ होता है. गांव से उसके रिश्ते रहते हैं, लेकिन उसके किसी अंतिम लक्ष्य में गांव नहीं होता. यह सवर्ण और डोमिनेंट ओबीसी तबका है.
मजदूरों का जो दूसरा वर्ग पलायन करता है- वह अस्थायी होता है. एक तरह से सीजनल. वह कुछ समय के लिए रोजी-रोजगार कमाने शहर आता है. वह नितांत अकेले आता है. शहर में रहने की उसकी शर्त निजी किस्म की होती है जो उसे पलायन में मिलने वाले रोजगार की प्रकृति पर निर्भर करती है. रोजगार ख़त्म होते ही उसका शहर से भी नाता ख़त्म हो जाता है. इनमें ज्यादातर छोटी जोत वाले किसान, या खेत मजदूर होते हैं. ये लोग खेती के काम के साथ-साथ आय के लिए मेहनत मजदूरी के और भी दूसरे काम करते हैं. जब खेती का काम नहीं होता- पुताई, मकान निर्माण, बागवानी, भोजन बनाने, साफ़ सफाई के नाना प्रकार के काम के लिए शहर आते हैं. कई यही सारे काम अपने आसपास के शहरों कस्बों में करते हैं. कई अपने गांव में भी यही काम करते हैं. इसमें लगभग सभी जाति के लोग होते हैं. अनुसूचित जाति की संख्या सबसे ज्यादा होती है.
सीजनल काम होता है इनका. प्लास्टिक के खाली ड्रम, बिस्तर से लेकर बर्तन तक वह ट्रेनों-बसों से लौटते वक्त जितना ले जा सकते हैं- ले जाते हैं. जिसे ले जाना संभव नहीं होता- उसे छोड़ देते हैं. साइकिल भी उसमें से एक हो सकती है. दो साल के लंबे उथल पुथल वाले दौर जिसमें दो चरण में लंबा लॉकडाउन भी देखने को मिला, यह कल्पना करना कि कोई मजदूर दो ढाई हजार रुपये की पुरानी साइकिल के लिए दो ढाई हजार रुपये और ढेर सारा वक्त खर्च कर वापस आएगा मूर्खतापूर्ण होगा. और इसी आधार पर उसकी बर्बादी की आशंका जताना भी मूर्खतापूर्ण है.
गांव बहुत संपन्न तो नहीं हुए मगर जीवन जीने का संकट अब पुराने जैसा नहीं
गांव आज भी आर्थिक रूप से बहुत संपन्न तो नहीं हुए हैं, लेकिन अब पहले जैसा जीवन जीने का संकट नहीं दिखता. कम ही सही कैश का फ्लो गांवों की तरफ बढ़ा है. छोटे-मोटे उद्योग धंधों ने जगह बनाई है. हर लिहाज से कनेक्टिविटी बेहतर हुई है और नतीजे में थोड़ी सी संपन्नता दिखती है. एक पेशेवर अंदाज भी दिखता है. सामजिक न्याय के लिए आए कानूनों और जेब में थोड़ा बहुत पैसा होने की वजह से 'बेगारी' का आग्रह गांवों में पहले जैसा नहीं रहा. गांव का नाई अब बाल काटने के पैसे लेता है. धोबी-कुम्हार और लुहार भी. मुफ्त में दूध, सब्जियों और अनाजों का आदान-प्रदान अब एक सीमा तक ही है. कनेक्टिविटी ने गांववालों को नजदीकी कस्बों शहरों तक उत्पाद बेंचकर मुनाफा कमाने का मौका दिया है.
जरूरत की बिजली मिलने से बाजारों में रौनक नजर आती है. दो कमरे ही सही, लेकिन अब गांव के लगभग सभी समाजों में पक्के मकानों का निर्माण खूब हो रहा है. इसने भी कई तरह से स्थानीय रोजगार और कारोबार को बढ़ावा मिला है. क़ानून व्यवस्था ने गंवई सेठों को जबरदस्ती के आत्मघाती उधार से बचाया है. बावजूद ऐसा नहीं है कि ढाई साल में लोगों ने निकलना बंद कर दिया है. कोविड के बाद भी निकल रहे हैं और खूब. हालांकि गांवों में अब हाथ पर हाथ धरे रहकर बैठने वाली स्थितियां नहीं हैं. पढ़ाई-लिखाई हो रही है तो ठीक है. नहीं तो लोग रोजी रोजगार के उपाय तलाशते हैं. चौकीदारी से लेकर ड्राइविंग तक, वह कुछ भी हो सकता है. लोग अपने संसाधन और दक्षता के हिसाब से सबसे पहले गांव में ही कुछ करने की सोचते हैं. अन्यथा शहर का विकल्प तो है ही. और शहर का विकल्प दोनों तरह के पलायन करने वालों के लिए है- स्थायी और अस्थायी.
लग्जरी में पिछड़े पर आवश्यक रोजगार पैदा करने की कोशिश में दिखते हैं गांव
लग्जरी के मामले में गांव शहर तो नहीं हुए हैं, लेकिन अपने ढाँचे से अलग उन्होंने शहर की तरह ही सर्विस क्लास को रोजगार देने का जरिया पिछले 30 साल में पैदा कर लिया है. बहुत हद तक आत्मनिर्भर बने हैं फुलेरा. मनरेगा समेत तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं ने भी उन्हें लाभ पहुंचाया है. अब लगभग सभी गांवों की स्थिति कुछ इस तरह है कि जो समाज गांव में सबसे दबा कुचला नजर आता था- कम ही सही, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर उसकी तस्वीर भी बदली बदली दिखती है. उनके दरवाजों पर खड़े ट्रैक्टर और बोलेरो साफ गवाही देते हैं. हालांकि जाति और उसकी राजनीति अब भी वैसे है जैसे थी. लेकिन ग्रामीण जीवन में जातियों का सामंजस्य कायम है. मजबूती से.
फुलेरा में गांव देखकर खुश होने से अच्छा है कि अपने या रिश्तेदारों के गांव में समय निकालकर जाइए. दो-चार दिन का वक्त दीजिए. वहां भी जाकर एसी में बंद ना हों. घूमिए. गांववाले क्या कर रहे. उनके जीवन में क्या कुछ बदल रहा, कैसे बदल रहा है? पूछिए, बात करिए लोगों से. गांवों में अभी भी सह जीवन की तमाम अच्छी चीजें जानने को मिलेंगी. और फिर जब गांव को लेकर कुछ कहेंगे तो वो "पिकनिक थॉट" भर नहीं होगा. यथार्थ होगा.
पंचायत के नए सीजन में क्या बदलाव होंगे यह मेकर्स के मन की बात है, लेकिन उन्हें गांव को लेकर पुनर्विचार करने की जरूरत तो है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है तमाम लोगों को इसी बहाने गांवों को समझने का मौका म्किल रहा है और वे बहुत रोमांच भी फील कर रहे हैं.
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