पद्मावती तो बहाना है.. करणी सेना का असली निशाना कहीं और है
पद्मावती पर जारी विरोध थमने का नाम ही नहीं ले रहा. मगर जब इस विरोध को देखें तो मिलता है कि इसके पीछे एक भयानक राजनीति हो रही है जिसके नुकसान की कल्पना हमनें शायद ही कभी की हो.
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पद्मावती विवाद अपने चरम पर है. विरोध का स्वरूप उग्र होता भी दिख रहा है. फिल्म की रिलीजिंग डेट टल चुकी है. इंडस्ट्री से जुड़े कलाकार, फ़िल्मकार अपनी राय देकर समर्थन और विरोध करते भी दिख रहे हैं. यकीकन अभी तक के आंकड़े बताते है की फिल्मी दुनिया फिल्म पद्मावती के साथ है. निर्देशक संजय लीला भंसाली अपने अलग जोनर की फिल्मों के लिए जाने जाते हैं. मार्केट स्ट्रेटजी भी उन्होंने अपनी अलग-अलग फिल्मों में बदली है. एक फ़िल्मकार का सपना सिर्फ क्या अपनी फिल्म से व्यक्त संदेश को समाज तक पहुंचाना होता है? संवेदनशील फ़िल्मकारों के लिए यह हो भी सकता है.
छोटे बजट की फिल्में बनाने वाले फ़िल्मकार फिल्म के व्यवसाय से अधिक उसके प्रसार पर ज़ोर देते है. कुछ ऐसे भी फ़िल्मकार है जिनकी फिल्में सिर्फ फिल्म फेस्टिवल तक ही समेट रखी है. मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा के जरिये संदेश को प्रापक तक पहुंचाने के लिए माध्यम की कमी नहीं है. डिजिटल प्लेटफॉर्म की अधिकता और प्रसार बढ़ने से यह सिनेमा माध्यम और भी सशक्त हुआ है. किसी फिल्म पर प्रतिबंध लगा कर उसे रोकना निहायत गलत है लेकिन इसमें कहीं न कहीं फ़िल्मकारों का एकजुट न होना भी बड़ा कारण है.
पद्मावती को लेकर विरोध अभी ठंडा नहीं हुआ है और जगह-जगह प्रदर्शन जारी हैं
आए दिल किसी न किसी फिल्म को लेकर विवाद होता ही रहता है. अंग्रेज़ो के दौर को याद करें तो उन दिनों फिल्मों में उनके खिलाफ होने वाले संदेशों के चलते फिल्मों पर प्रतिबंध की शुरुआत हुई थी. तब से लेकर आज तक हम उन्हीं पुराने ढर्रो पर बंधे हुए नियमों को पालते चले आए है. क्या हमें इस ओर बड़े परिवर्तन नहीं करने चाहिए थे? फ़िल्मकारों में पैसे कमाने की होड़ ने सिनेमा पर संवाद होना ही बंद हो गया है. सेंसरशिप की खिलाफत मुट्ठी भर लोग ही करते दिखते है. सेंसरशिप के कायदे कानून से जो निर्देशक प्रभावित होता है वही आगे आकार इसकी खिलाफत करने लगता है. कुछ ने तो सेंसर नियमो को ध्यान में रखकर ही फिल्मों को बनाना सीख लिया है.
सेंसर नियम समाज में अस्पष्ट और अनैतिक संदेश न पहुंचने और धार्मिक भावना आहत न होने के खतरे से बचने के लिए बनाए गए थे. सत्ता दर्शकों के कंधे पर बंदूक रख अपना हित लगातार साध रही है. जिससे नुकसान दर्शकों के साथ साथ फ़िल्मकारों का भी होता है. एक फिल्म से कैसे किसी की भावना आहात हो सकती है जबकि एक फिल्म से समाज बदल नहीं सकता? सिनेमा हमें कहीं न कहीं शिक्षित जरूर करता है पर उसका प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता है. सत्तर अस्सी के दशक के सिनेमा में चित्रित समाज आज नदारद है. समाज जैसे जैसे बदलता गया फिल्मों के विषय बदलते गए.
कभी किसी दर्शक के सिनेमा हॉल से निकलने पर आपने उसे आहत होते देखा है? क्या सिनेमा में दर्शक से संवाद का कोई प्रावधान अभी हमारे देश में विकसित हो पाया है? आप कोई भी चीज खरीदें तो कंपनी द्वारा फीडबैक मांगा जाता है क्या सिनेमा उद्योग कभी दर्शकों से इस तरह की कोई एक्टिविटी करवाता है? शायद नहीं. क्योंकि उसे दर्शकों की भीड़ और बॉक्स ऑफिस से आया धन ही बता देता है की दर्शक को क्या पसंद है क्या नहीं. आइटम नंबर से लेकर ड्रीम सीक्वेल तक सभी दर्शकों की चाव और पसंद को देखकर रखा जाता है. इस पसंद का एकमात्र पैमाना दर्शकों की जेब से निकला पैसा है.
यह सच है कि दर्शक एक इकाई नहीं है. वह कई सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विभिन्नताओं से लैस होते हैं. ऐसे में सभी का एकमत होना जरूरी नहीं है. मौजूदा पद्मावती विवाद पर काफी कुछ पढ़ा लिखा जा चुका है. ऐसे में हमें इन संगठनों द्वारा किए जा रहे विरोध के पीछे इनके सोशल क्रिडेंसियल को भी जानना जरूरी है. आखिर ये इतनी भीड़ क्यों इकट्ठा करना चाहते हैं. जब हर दर्शक की अपनी समझ है तो जातीय, सामाजिक, राजनतिक एकता को क्यों बटोर कर विरोध प्रदर्शन किए जाते हैं.
जिस तरह पद्मावती को मुद्दा बनाया गया है उसका उद्देश्य केवल राजनीति है
इनके पीछे की राजनीतिक मंशा का पर्दा फ़ाश होना चाहिए. क्यों शिवसेना, बजरंग दल, करणी, आदि हिन्दू वादी संगठन, तथा मुस्लिम कट्टर पंथी संगठन भीड़ को इकट्ठा करते हैं? आप यकीन मानिए ये अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में माहिर लोग होते हैं. जोधा अकबर आज तक राजस्थान में रिलीज नहीं हुई, फना आज भी गुजरात में बैन है, ऐसे में अन्य राज्यों में जहां फिल्मों ने खूब कमाई की है क्या उन दर्शकों की भावनाएं मर चुकी हैं?
सुखदेव सिंह गोगामेड़ी सक्षम न्यूज को दिये अपने इंटरव्यू में अपनी राजनीतिक मंशा को उजागर कर चुके हैं. यहीं असली मंशा इन संगठनों की होती है, जिसके सहारे पहले ये भीड़ इकट्ठा करते है फिर देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से लेकर अन्य संविधान विरोधी काम को अंजाम देते हैं. सुखदेव सिंह गोगामेड़ी पद्मावती का विरोध करते करते अपनी सेना के जरिये आरक्षण की समीक्षा तक में उतर आयें.
आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करने लगे. इसके लिए बड़ा जन समुदाय इकट्ठा होते ही बड़े आंदोलन का भी आगाह गोगामेड़ी करते नहीं चूके. राजपूतों की शान,भावनाएं आहात होने से शुरू हुआ यह सिलसिला अब न जाने कहाँ रुकेगा पर इतना जरूर है कि समय रहते इसे संभाला नहीं गया तो अनहोनी कुछ भी हो सकती है. संगठन ने फिल्म के सहारे आरक्षण विरोधी आग को तेज करने का फैसला तो नहीं किया?
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इस वीडियो को अब तक लगभव 55 हजार लोगों ने देख लिया है. खुले आम चेतावनी देता गोगामेड़ी अभी भी आज़ाद घूम रहा है, वहीं कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए डिलीटल प्लेटफॉर्म का प्रयोग करने वाले कई कलाकार आज भी कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं. इस विवाद को यही समझने की जरूरत है कि यह भावनाओं से ज्यादा व्यक्तिगत हितों को साधने वाला विवाद है. करणी सेना चाहती है कि राजपूत इकट्ठा होकर एक छतरी के नीचे आयें जिससे उनकी मांगों को पूरा करवाने में आसानी हो. सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक भिन्नताओ वाले देश में गोगामेड़ी के इस सपने पर पानी खुद इन्हीं के संगठन के कार्यकर्ता न फेर दें इसका उन्हे ध्यान रखना चाहिए.
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