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Updated: 24 अप्रिल, 2022 10:50 PM
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इस बात पर तो सवाल ही नहीं करना चाहिए कि दक्षिण की सिनेमा इंडस्ट्री के आगे बॉलीवुड फिलहाल एक नहीं कई तरह के संकटों से जूझ रहा है और इसके असर लंबे वक्त तक बने रहेंगे. ज्यादातर संकटों का जिम्मेवार कोई और नहीं खुद बॉलीवुड ही है. हिंदी सिनेमा उद्योग ने पिछले दो दशक के दौरान जबरदस्त प्रयोग किए हैं. उसका सिनेमा ज्यादा ग्लोबल भी हुआ है. बावजूद इसी अवधि में अति आत्मविश्वास का शिकार दिखा हिंदी उद्योग जाने अनजाने कई गलतियां करता फरहा. आज वह जिस बिंदु पर आकर फंसा है, किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी. अब संकट से निकलने में सांसे फूल रही हैं. हालत यह है कि आमिर, सलमान, शाहरुख को तो छोड़ दीजिए- अक्षय कुमार और जॉन अब्राहम जैसे सितारे भी मुकाबले में कमजोर पड़ते दिख रहे हैं.

अक्षय कुमार एक दशक खासकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले आठ साल से बॉलीवुड के सबसे बिकाऊ सितारे हैं. पिछले कुछ सालों में राष्ट्रवादी छवि की वजह से ऐसा ही भरोसा जॉन अब्राहम भी हासिल करते दिखते हैं. लेकिन द कश्मीर फाइल्स के आगे बच्चन पांडे और आरआरआर के सामने अटैक का बुरी तरफ फ्लॉप हो जाने की केस स्टडी से साबित होता है- जिन सितारों का स्टारडम अभी भी बचा नजर आता है वह अस्थायी है और 'विकल्पहीनता' की वजह से सुरक्षित है. बिना शोर शराबे के अल्लू अर्जुन की पुष्पा भी क्रिकेट की महागाथा 83 को थामने के लिए पर्याप्त है.

bollywood vs southबॉलीवुड पर संकट चौतरफा है.

बॉलीवुड के खिलाफ जनघृणा की चुनौती  को भोथरा करने का दारोमदार अभिनेताओं का

बॉलीवुड खुशफहमी का शिकार हो सकता है कि वह दक्षिण की बड़ी फिल्मों से मुकाबले में नहीं उतरेगी और बीच के रास्ते पर चलकर कामयाब बनी रहेगी, पर कितने दिन और कितनी फ़िल्में सीधे मुकाबले से बच पाएंगी? 83 से जर्सी तक बॉलीवुड की किसी फिल्म ने मुकाबला नहीं किया. टिकट खिड़की पर सुरक्षित विंडो तलाशी के बावजूद नाकामी हाथ लगी. जबकि हिंदी बेल्ट तक पहुंचने वाली दक्षिण की फ़िल्में और उनका पीआर किसी भी मुकाबले में बॉलीवुड फिल्मों के आगे नहीं ठहरता. मगर वह परंपरागत था और उसमें उस ध्वनि को प्रभावित करने की क्षमता नहीं थी या मकसद ही नहीं था- जो बॉलीवुड फिल्मों और कुछ स्टार्स के खिलाफ "जनघृणा" को भोथरा कर पाता.

दक्षिण के सितारों और बॉलीवुड के कलाकारों के इंटरव्यू उठाकर देख लीजिए. दक्षिण के सितारे जब तक सवाल अंग्रेजी में ना पूछा जाए मूल भाषा में ही जवाब देते हैं. और ऐसा इसलिए कि वह अपने ऑडियंस से सीधे बात करते हैं. यह कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे कांग्रेस के तमाम नेता अभी कुछ साल पहले तक सर्वाधिक गरीब और पिछड़े लोगों से जुड़ी घोषनाएं भी अंग्रेजी में ही किया करते थे. मैंने बिहार से जुड़े आरजेडी के कुछ सोशल पोस्ट भी अंग्रेजी में देखे हैं. ये लोग पता नहीं किस भाषा वर्ग तक संदेश पहुंचाने की कोशिश करते रहे. बॉलीवुड में अगर सितारों से हिंदी में सवाल पूछा जाता है तो वे बोलते-बोलते अंग्रेजी में बात करने लगते हैं. वे जरूर अभी भी शुद्ध महानगरीय दर्शक वर्ग को प्रभावित करने में कामयाब हो जाएं, लेकिन इससे उनकी पहुंच तो व्यापक नहीं हो रही जो उनके पेशे के लिए जरूरी चीज है. यह उन्हें जड़ों से डिस्कनेक्ट करती है. बॉलीवुड में यह परंपरा ज्यादा पुरानी बात भी नहीं.

kgf-2-free-tickets_6_042322065401.jpgकेजीएफ़ 2 में यश.

नेता और अभिनेता में पेशेभर का फर्क, अभिनेता ऑडियंस के कितना करीब है

एक नेता को उसकी जनता की सोच के मुताबिक़ जितना विजिबल होना चाहिए वैसे ही एक अभिनेता को भी अपनी ऑडियंस के मुताबिक़ ही दिखना चाहिए. अभिनेता की अपनी जिंदगी कुछ भी हो सकती है. मगर उसका सार्वजनिक व्यवहार, भाषा और पहनावा उसके ऑडियंस की स्वीकार्यता को ध्यान में रखकर होने चाहिए. बॉलीवुड इसी चीज पर दक्षिण से मात खा जाता है. बॉलीवुड सितारों की अपीयरेंस में एक अलग ही प्रदर्शन और दंभ नजर आता है. उनके सार्वजनिक व्यवहार भी लोगों के कद के हिसाब से अलग-अलग नजर आते हैं. काल्पनिक तौर पर उदाहरण के लिए शाहरुख-अक्षय अमिताभ बच्चन के प्रति जिस भावना का इजहार करते हैं अन्नू कपूर के लिए उनका सार्वजनिक व्यवहार अलग नजर आता है. रणवीर सिंह की ड्रेसिंग तो सामान्य कह ही नहीं सकते. बॉलीवुड सितारों के रहन सहन उनके निजी जीवन की तस्वीरों से लगता ही नहीं कि वे भी उसी भारत का हिस्सा हैं जिसके लिए फ़िल्में बनाते हैं.

बॉलीवुड ने पीआर में खूब प्रयोग किए. गॉसिप, विवाद और सनसनीखेज दावों से फिल्मों को चर्चा में लाने की परंपरा बहुत पुरानी है. यह स्टंट मीडिया का ध्यान खींचने के लिए था. लेकिन इन सब चीजों की भी एक सीमा होती है. होड़ में आगे निकलने के लिए पीआर की एक ऐसी भेड़चाल चली जिसने सितारों को बेशउर कर दिया. सोचिए कि एक दशक पहले बॉलीवुड का एक सितारा आता है और अपने धर्म का हवाला देते हुए ऐलान करता है कि देश में अब रहने लायक माहौल ही नहीं है. आज जबकि हालात धार्मिक उन्माद वाले नजर आते हैं पर उसमें कहने की क्षमता ही नहीं है. कल के जनमत में जो बयान उसे कारोबारी फायदा देता था आज नुकसान दे सकता है.

उसने कुछ धर्मों में आदिम जमाने से चली आ रही असभ्यता और बर्बरता को लेकर कभी आवाज नहीं उठाई. उठाई भी तो उसका सिलेक्टिव अप्रोच साफ दिखता है. धर्मों के अंदरूनी ढाँचे में भी लैंगिक और जातिगत सवालों पर टिप्पणी नहीं की. लेकिन उन्हीं में से एक एक्टर रात में अचानक याकूब मेमन को फांसी दिए जाने पर समूचे सिस्टम पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है. यहां उसकी निजी पसंद का मामला है. वह भूल जाता है कि इसी देश ने दो हजार साल में दुनिया के दो शरणार्थी धर्मों को जगह दी और वे आज भी पूरी स्वतंत्रता से घुल मिल कर रह रहे हैं जबकि उनकी संख्या सिर्फ कुछ हजार में है. उनमें से एक पारसी यहां ना आए होते तो इस बात पर बिल्कुल शक नहीं कि खाड़ी मुल्कों और उनके आसपास आज की तारीख में पारसी भी वहां ख़त्म हो चुकी अनगिनत जनजातियों, सभ्यताओं और भाषाओं में से ही एक होते.

rrr-650_042322065421.jpgआरआरआर.

अपने ऑडियंस से कटे हुए हैं बॉलीवुड सितारे

बॉलीवुड सितारों ने समाज के प्रति जिम्मेदारी का सही से निर्वहन नहीं किया. पैसों के लिए शराब-सिगरेट जैसी नशीली चीजों तक का प्रचार किया. राजनीति में फायदे की पक्षधरता दिखाई. अक्षय-अजय देवगन भी इसके बड़े उदाहरण हैं. निजी धर्म जाति और नस्ल का सहारा लेकर विवाद बेचे गए और सुर्खियां हासिल की गईं. दक्षिण में तो अभिनेताओं ने सीधे राजनीति करने में भी संकोच नहीं किया. लेकिन तैरकर किया डूबकर किया और कई मुकाम तक भी पहुंचे. बॉलीवुड के अभिनेता राजनीति के लिए हथियार भर बने. किसी ने चुनाव लड़कर किसी पार्टी को फायदा पहुंचाया तो किसी ने बयान देकर. असल में एक विचार और एक छवि के सहारे वे आगे बढ़ रहे थे. उन्हें इसके अंजाम पता ही नहीं थे. बॉलीवुड सितारे कल्पना की दुनिया में थे. उन्होंने भाषाई समाचार माध्यमों को कमतर मानकर बात तक करना बंद कर दिया. इसके बाद तो लिखे लिखाए पेड इंटरव्यू का दौर ही चल पड़ा जो आज भी जारी है. जबकि उन्हें लेकर समाज के क्या सवाल थे उन्होंने लेना ही नहीं चाहा. एकतरफा संवाद में उन्होंने अपनी ऑडियंस से लगाव ही ख़त्म कर लिया.

उधर दक्षिण के अभिनेताओं का पीआर देखिए कैसे काम कर रहा है. पुष्पा, आरआरआर  और केजीएफ 2 की सफलता के बाद मौजूदा राजनीतिक माहौल में दक्षिण के सितारों की कोशिशें देख लीजिए. बिना कुछ बोले बिना कुछ कहे- उनके व्रत और पारंपरिक त्योहारों की तस्वीरें भर दक्षिण से उत्तर तक उन्हें सांस्कृतिक योद्धा की तरह पेश कर रही हैं.  

आज जिन्न सामने खड़ा है. ड्रग मामलों, गंदे विवादों, बेवजह के बयान, कुछ आत्महत्याओं के बाद तो लोगों ने इसे निजी मसला बना लिया और सोशल मीडिया पर उनके विरोध के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं. मौजूदा राजनीतिक धारा ने भी उन्हें एक सैद्धांतिक ढाल दे ही दी है. अब यह बहुमत का विचार बन चुका है. बॉलीवुड सितारों ने अगर समय रहते पीआर और कैम्पेन स्ट्रेटजी नहीं बदली तो शायद ही उनका वजूद बचे. अभी दक्षिण से इक्का दुक्का फ़िल्में आ रही हैं. क्लैश सीधा नहीं दिख रहा. मगर तमिल, मलयाली, तेलुगु और कन्नड़ के दूसरे निर्माता जिस तरह हिंदी बेल्ट की तरफ देख रहे हैं- दक्षिण की पैन इंडिया फिल्मों का एक सिलसिला ही उत्तर में शुरू हो जाएगा. इस स्थिति में बॉलीवुड के लिए कोई सेफ विंडो खोजना नामुमकीन होगा. बाकी उसका गुलशन बर्बाद करने के लिए सोशल मीडिया पर 'नैतिक चौकीदार' पहले से बैठे ही है.

बॉलीवुड जितनी जल्दी चीजों को ठीक करेगा उसका वजूद उतनी जल्दी ठीक होगा. अब लोग हवा देने की क्रोनोलॉजी समझने लगे हैं. मामला सिर्फ कंटेंट में बदलाव भर का नहीं है.

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