ये 21वीं सदी है? यहां महिलाओं को रहना पड़ता है पुरुषों की तरह!
ये पुरुष नहीं बल्कि उनके लिबास में महिलाएं हैं. इन्होंने पुरुषों का सिर्फ वेश ही नहीं धरा है बल्कि उन्हीं की तरह जीवन भी जी रही हैं. ऐसे रहना इनका शौक नहीं है, बल्कि ये इसके लिए प्रतिबद्ध हैं. ये हैं 'बर्नेशा'
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इन तस्वीरों को देखकर यही लगेगा कि ये पुरुष हैं, लेकिन हकीकत ये है कि ये पुरुष नहीं बल्कि उनके लिबास में महिलाएं हैं. इन्होंने पुरुषों का सिर्फ वेश ही नहीं धरा है बल्कि उन्हीं की तरह जीवन भी जी रही हैं. ऐसे रहना इनका शौक नहीं है, बल्कि ये इसके लिए प्रतिबद्ध हैं. ये हैं 'बर्नेशा'.
अल्बानिया के पहाड़ों का कानून है कि वहां रहने वाले परिवारों की सत्ता पुरुषों के ही हाथों में होनी चाहिए. वहां महिलाओं को संपत्ति की तरह इस्तेमाल किया जाता है, वो पूरी तरह पुरुषों पर निर्भर हैं. उन्हें इतने भी अधिकार नहीं हैं कि उनकी अपनी जमीन हो या फिर वो अपना खुद का कोई काम कर सकें.
अगर कोई महिला इन अधिकारों को पाना चाहती है तो उसे एक अजीब सी परंपरा निभानी होती है. वो परंपरा है 'बर्नेशा' बनने की शपथ लेना.
ये शपथ है आजीवन पुरुष की तरह रहने की. 'बर्नेशा' बनने के बाद ये औरतें न सिर्फ पुरुषों की तरह रहती हैं, बल्कि उनकी तरह काम करने, उनकी तरह बोलने, चलने, खाने, उन्हीं की तरह घर की जिम्मेदारियां उठाने, उन्हीं की तरह आजादी पाने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होती हैं.
ये आजादी और अधिकार आसानी से नहीं मिलते, इन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है. 'बर्नेशा' बनने की इस शपथ का खास पहलू ये है कि इसके बाद इन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है. इसलिए इन्हें 'स्वॉर्न वरजिन्स'(sworn virgins) भी कहा जाता है.
कोई भी महिला किसी भी उम्र में 'बर्नेशा' बन सकती है. और तभी से उसे पुरुषों वाले सारे अधिकार मिल जाते हैं. वो अपना नाम बदलकर कोई पुरुषों वाला नाम रखती हैं, वो पुरुषों की तरह धूम्रपान, शराब भी पी सकती हैं. और परिवार की मुखिया भी बन सकती हैं.
बहुत सी महिलाएं ये जीवन इसलिए चुनती हैं क्योंकि उन्हें पुरुषप्रधान समाज से आजादी चाहिए, जिसमें महिलाओं के साथ भेदभाव होता है, किसी के साथ भी शादी करवा दी जाती है, यहां तक कि बेच भी दिया जाता है. ऐसे समाज में वो घुटन महसूस करती हैं. वहीं ऐसी भी 'बर्नेशा' महिलाओं की कमी नहीं है जिनके पति गुजर चुके हैं और संपत्ति बचाने और परिवार का भरणपोषण करने के लिए उन्हें ये रास्ता अपनाना पड़ा.
ये परंपरा 15वीं सदी से चली आ रही है, लेकिन अब ये धीरे-धीरे खत्म हो रही है. ये इस बात का सुबूत है कि ये देश महिला अधिकारों की दिशा में काफी तरक्की कर चुका है. महिलाओं को उनके अधिकार मिल रहे हैं, इसलिए अब किसी को 'बर्नेशा' बनने की जरूरत नहीं.
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