'भक्ति' से तो नास्तिक को भी लगाव होगा
'भक्ति', बड़े होते हुए मैं कई बार इस शब्द से गुजरा. आम तौर पर इसे भगवान के प्रति निष्ठा के तौर पर देखा जाता है. लेकिन इसका इस्तेमाल देश के प्रति प्यार या किसी दूसरे के लिए समर्पण के तौर भी किया जाता है.
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'भक्ति', बड़े होते हुए मैं कई बार इस शब्द से गुजरा. आम तौर पर इसे भगवान के प्रति निष्ठा के तौर पर देखा जाता है. लेकिन इसका इस्तेमाल देश के प्रति प्यार या किसी दूसरे के लिए समर्पण के तौर भी किया जाता है. मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं भगवान पर भरोसा करता हूं. इसलिए काफी लंबे समय तक मैं 'देव भक्ति' का सही मतलब नहीं समझ सका.
वर्षों बाद मैंने महसूस किया कि हिंदू धर्म में भगवान के प्रति समर्पण व्यक्त करने के कई तरीके हैं. आप भगवान को इस ब्रह्मांड का एक सर्वेसर्वा मान सकते हैं. खुद को एक दास के तौर पर सोच सकते हैं. आप चाहें तो भगवान को अपना एक अच्छा दोस्त भी मान सकते हैं और उसके प्रति दोस्ती का भाव रख सकते हैं. इससे भी आगे आप भगवान को अपने बच्चे के तौर पर देख सकते हैं और उसके लिए एक मां जैसा स्नेह महसूस कर सकते हैं. आप चाहें तो भगवान को अपने प्रेमी या प्रेमिका के तौर पर भी देख सकते हैं. साहस के साथ एक और बात मैं कहना चाहता हूं. आप चाहें तो मान सकते हैं कि भगवान है ही नहीं और फिर उससे एक अनासक्ति का भाव अपने अंदर पैदा कर सकते हैं. ऐसा भाव जहां उसके प्रति आपके मन में प्यार और नफरत, दोनों ही नहीं हो.
किसी भी हालत में मुझ जैसे नास्तिक के लिए यह एक अच्छी शुरुआत होगी. अगर किसी परंपरा में इतना खुलापन है कि वह कई देवी-देवताओं को स्वीकार कर सकता है. उपासना के तरीकों में विविधता है. यहां तक कि आप खुद को उससे कैसे जोड़ते हैं इसमें भी अगर एक खुलापन है तो यह प्राचीन समय के विचारों के विकास का एक बेहतर तरीका हो सकता है.
अगर हम अपने ऊपर किसी को रखते हैं तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं. या तो हम उससे डरते हैं या फिर प्यार करते हैं. कई प्राचीन किताबें ऐसी कहानियों से भरी पड़ी हैं. यह हम पर निर्भर है कि हम क्या चाहते हैं भय या डर.
इसलिए भक्ति शब्द का अर्थ साझेदारी, लगाव या प्यार हो सकता है. भक्ति का मूल शब्द 'भज' से है, जिसका मतलब होता है साझा करना या खुद को किसी से जोड़ना. 'भक्ति' शब्द अपने आप में दर्शाता है कि इसके कई रूप हो सकते हैं. मां के जैसे स्नेह से लेकर प्रेमी-प्रेमिका और फिर दोस्ती तक.
इसके लिए महान संत रामानुज (1017-1137) की जिंदगी के एक वाक्ये को हम याद कर सकत हैं. रामानुज और उनके शिष्य एक बार ऐसे धनी आदमी से मिले जो अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था. यह व्यक्ति अपनी पत्नी को धूप से बचाने के लिए उसके पीछे-पीछे हाथ में छाता लेकर चलता. उस समय सार्वजनिक तौर पर इस प्रकार प्रेम के प्रदर्शन का चलन नहीं था. नतीजतन, इसे देख रामानुज के शिष्य हंसने लगे. दूसरी ओर, रामनुज इसे देख आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने कहा, 'इस प्रकार का गहरा प्यार काफी कम देखने को मिलना है. हर कोई ऐसा नहीं कर सकता. इस व्यक्ति को अपने प्रेम को केवल सही दिशा-भगवान की ओर ले जाने की जरूरत है. आगे चलकर वह व्यक्ति बड़ा तपस्वी बना.'
जब हम भक्ति को प्यार के रूप में देखते हैं तो कई चीजें साफ हो जाती हैं. कई बार तो मैं खुद अचंभित रह जाता हूं कि कैसे एक रोमांटिक गीत का संदर्भ बदल दिया जाए तो वह भक्ति संगीत जैसा लगने लगता है.
उदाहरण के तौर पर, 1959 का लोकप्रिय गीत- जलते हैं जिसके लिए, तेरी आंखों के दिये..ढूंढ़ लाया हूं वहीं..गीत मैं तेरे लिए. या फिर 1969 का हिट गाना- तुम बिन जाऊं कहां, कि दुनिया में आके..कुछ न फिर चाहा कभी..तुम को चाह के. ऐसे ही 1995 का गाना- तन्हा..तन्हा यहां पे जीना, ये कोई बात है, कोई साथ नहीं तेरा यहां, ये कोई बात है. अगर आप इन गानों का संदर्भ बदलते हैं तो ये मीरा के भजन की तरह लगेंगे.
हर घर्म यह दावा करता है कि उसका मूल उद्देश्य प्यार और शांति है. जब तक प्रेम बिना शर्त और किसी सीमा के बंधन से मुक्त है, वह ठीक है. लेकिन जैसे ही उसे किसी और चीज के ऊपर जैसे सच के मुकाबले प्यार को चुनना होता है, एक दुविधा शुरू हो जाती है. मशहूर फिल्म कराटे किड-2 (1986) का एक पात्र मियागी अपने छात्र को बताता है, 'डेनियल-सान, अपनी इच्छा को कभी अपने सिद्धांतों के आगे मत रखो.'
धार्मिक कट्टरता का समर्थन करने वालों के साथ यही समस्या है. वे भगवान के प्रति अपने प्यार को मानवता के सिद्धांत के आगे ले आते हैं. हमें कभी किसी के भरोसे का अपमान नहीं करना चाहिए और न ही उस पर किसी खास विश्वास को ही थोपने का प्रयास करना चाहिए. अगर हम इन दो बातों पर गौर करते हैं तो शांति की ओर बढ़ सकते हैं.
यह हालांकि अभी एक सपना जैसा ही लगता है और शायद आने आने सालों तक हमें कथित धर्म से जुड़े इस ड्रामे को यूं ही बर्दाश्त करना पड़ेगा.
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