दुर्गा पूजा का स्याह पक्ष, जिस पर बंगाली भी बात नहीं करते
स्मृति ईरानी के दुर्गा पर बयान से भले ही विवाद हो. लेकिन दुर्गा पूजा का एक स्याह पक्ष भी है, जिसे शायद हर बंगाली जानता है. भले ही वह उस पर बात न करे.
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दुनिया के किसी भी कोने में बंगालियों के लिए दुर्गा पूजा एक खास अहमियत रखता है. दुर्गा पूजा का समय नए कपड़ों, नए संबंधों, नए वादों के साथ-साथ नाच-गाना, स्वादिष्ट व्यंजन और अड्डेबाजी (बंगालियों का पसंदीदा टाइमपास) के लिए जाना जाता है. इस त्यौहार को मानने में लग रही उर्जा को महसूस करने के लिए इसमें शामिल होना जरूरी है. इसके साथ ही यह त्यौहार सच्चाई की बुराई के ऊपर जीत का भी प्रतीक है. शेर पर सवार दस भुजाओं वाली एक योद्धा देवी एक राक्षस महिषासुर का वध करती है.
यह सब एक प्रतीक के तौर पर है जो हम सभी प्राणियों को यह विश्वास दिलाती है कि देवता हमारी सभी परेशानियों और बुराइयों का अंत उसी तरह करने में सक्षम हैं जैसे दुर्गा ने महिषासुर का किया था. इसलिए दुर्गा पूजा एक खास त्यौहार है.
लेकिन, क्या वाकई ऐसा है. क्या दुर्गा पूजा की यही अच्छाई और खासियत है या फिर इसका कोई स्याह पक्ष भी है. दुर्गा पूजा की एक राजनीति भी है. लेकिन उसे समझने के लिए हमें शुरुआत दुर्गा की प्रतिमा से करनी होगी. देवी दुर्गा श्वेत हैं (लिहाजा, सुंदर हैं) और सभी गुणों से संपन्न हैं. प्रतिमा के अगले अंश में एक असुर (आधा पुरुष और आधा जानवर) दुर्गा के चरणों के नीचे है. असुर महिषासुर अश्वेत है, शरीर का ऊपरी हिस्सा नग्न है और वह सभी बुरी शक्तियों का प्रतीक है. यह प्रतिमा अच्छाई की बुराई पर जीत से ज्यादा साफ तौर पर यह दर्शाती है कि एक अश्वेत आदिवासी किस तरह एक श्वेत आर्य के अधीन है.
दुर्गा अपना त्रिशूल महिषासुर की छाती में भोंक देती हैं. क्या यह मौजूदा समय का सूचक नहीं जब एक आदिवासी को समाज में उच्च वर्ग की अधीनता स्वीकार करनी होती है. क्या यह ये नहीं दर्शाता कि समाज में एक आदिवासी वर्ग का प्रभावशाली के सामने नतमस्तक होना जरूरी है. इसलिए उनकी जमीन उनसे छीन ली जाती है, उन्हें उनके ही जंगल से निर्वासित कर दिया जाता है और उनकी परंपराओं को जबरदस्ती बदल दिया जाता है. हाल में हुई एक रिसर्च के मुताबिक बीते 50 साल में 200 से ज्यादा स्थानीय भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं.
दुर्गा पूजा के प्रतीक पर वापस गौर करते हैं. हमारी आंखों के सामने यह है कि एक देवी किसी असुर का वध करती है. हमें बस यह दिखाई देता है कि देवी किसी असुर के शरीरिक रूप को खत्म करती है लेकिन शायद वह उस असुर में निहित बुरी शक्तियों का भी वध करती है. क्या यह उस शुद्धिकरण की तरह नहीं जिसके बाद ही एक आदिवासी को इस समाज की मुख्यधारा में लाया जाता है.
इसीलिए दुर्गा पूजा की प्रमुख धारणा, कि वह अच्छाई की बुराई पर जीत है एक समस्या बन जाती है. देवी-देवताओं के खिलाफ युद्ध शुरू करने के लिए महिषासुर के पास अपने कारण होंगे. लेकिन यह कौन कहेगा महिषासुर के कारण दुर्गा के कारणों के सामने हल्के पड़ जाते हैं? क्या समुद्र मंथन के बाद निकले अमृत से असुरों को दूर रखने के लिए देवताओं ने बेइमानी नहीं की? आखिर क्यों? क्या देवताओं को लगा कि अमृत पान कर असुर भी मृत्यु पर विजय पा लेंगे और फिर वे समाज के नैतिक ढाचे को तबाह कर देंगे. यदि ऐसा है तो क्या खुद देवताओं से यह डर नहीं था? जब देवताओं के राजा इंद्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ गतल कार्य किया तब उनकी नैतिकता कहां गई? आहत गौतम ऋषि ने जब इंद्र को श्राप दिया तो उन्हें उसके प्रकोप से बचाने के लिए वह खुद भगवान शिव सामने आ गए. अब क्या यह पक्षपात नहीं है?
इंद्र को माफ कर दिया जाता है और जब महिषासुर ने इंद्र को उनके तख्त से बेदखल कर दिया तो उसे अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ती है. आखिर क्यों? इस बात को कौन कह सकता है कि महिषासुर इंद्र से बेहतर राजा नहीं साबित हो सकता था? किसी भी युद्ध में दोनों पक्ष यही सोचते हैं कि वह न्याय के लिए लड़ रहे हैं. लिहाजा किसी एक का पक्ष लेना एक मुश्किल काम है. लेकिन जो सच्चाई हमें बताई गई है कि महिसासुर बुराई का प्रतीक है और देवी दुर्गा इस युद्ध में विजयी हुई हैं, महज पक्षपात से भरी शिक्षा है. यह ये भी दर्शाता है कि हम पर एक प्रभावशाली संस्कृति की छाप है. लिहाजा, देवताओं के लिए असुर और राक्षस दुश्मन थे जिनको अधीन करना जरूरी था.
यह एक सत्य है तो इसका उल्टा भी उतना ही सत्य है. कोई भी प्रभावशाली संस्कृति निरंतर अपने प्रभाव का विस्तार करती है. ऐसा करने के लिए उसे एक विचारधारा की जरूरत पड़ती है. विचारधारा से उसे वैधता मिलती है. लिहाजा इस युद्ध को धर्म का संरक्षण मिल जाता है. हमें दुर्गा पूजा की कहानी को इसी रोशनी में भी देखने की जरूरत है.
अब जरूरी है काली के विषय में भी बात करने की. काली अश्वेत हैं फिर भी देवी हैं. आखिर क्यों? दरअसल काली को आदि शक्ति का अवतार माना गया है. अब इसके पीछे क्या राजनीति हो सकती है? इस आदिवासी देवी को हिंदू संस्कृति के मुख्यधारा में आत्मसात कर लिया गया. काली को मुख्यधारा में प्रमुखता इसी शर्त पर मिली कि वह महज प्रभावशाली संस्कृति का विस्तार करेगी. इसीलिए काली को आदि शक्ति का अवतार भी माना गया. इसके बावजूद काली को अपने अस्तित्व के लिए एक प्रमुख देवी के आश्रित कर दिया गया. वहीं दुर्गा भी आदि शक्ति का अवतार हैं. लेकिन एक छोटी संस्कृति और महान संस्कृति में मिलाप और आधीनता की राजनीति दुर्गा से ज्यादा काली में स्पष्ट है.
लिहाजा, दुर्गा पूजा महज भक्ति और उपासना के लिए ही नहीं बल्की सामाजिक शोषण का भी प्रतीक है. अब कोई यह तर्क दे सकता है कि परंपरा के मुताबिक दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए इकट्ठा की जा रही मिट्टी का पहला अंश किसी वेश्या के दरवाजे से ली जाती है. अब क्या यह समावेशी होने का प्रतीक नहीं है? हालांकि यह सच्चाई को छिपाने का एक मुखौटा भी हो सकता है. इसलिए अगली बार जब आप दुर्गा की मूर्ति देखें तो यह याद रखिएगा कि यह एक शोषण का भी प्रतीक है और जब आप दुर्गा पूजा में शामिल हों तो यह सवाल जरूर पूछिएगा कि कहीं आप भी तो इस सांस्कृतिक शोषण का हिस्सा तो नहीं.
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