नवाब मीर जाफर की मौत ने तोड़ा लखनऊ का आईना...
मीर जाफर अब्दुल्ला की मौत से पूरा लखनऊ सूना हो गया है. मीर जाफर अब्दुल्ला सिर्फ एक नाम नहीं था ये एक तहज़ीब थे,तहरीक थे, एक तारीख़ थे. वो लखनऊ के नवाबों की सांस्कृतिक विरासत संजोने वाले नवाबीन दौर के नुमाइंदे ही नहीं थे बहुत कुछ थे. वो शहर-ए-लखनऊ की पहचान थे. इतिहासकार, किस्सागो, रंगकर्मी और फिल्म कलाकार भी थे.
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किसी शेर का एक मिसरा है- हमने जन्नत तो नहीं देखी है, मां देखी है. ऐसे ही जब हम लखनऊ के नवाबों और नवाबीन के दौर के तसव्वुर को हक़ीक़त में देखना चाहते थे तो हम जनाब नवाब मीर जाफर अब्दुल्ला को देख लेते थे. उनसे बात कर लेते थे. उनका लिबास, उनके अल्फ़ाज़, लहजा, इल्म, मालूमात और किस्सागोई अतीत के लखनऊ का आईना थी. वो लखनऊ का अक्स थे. उनके पास अवध की यादों का बेशकीमती ख़ज़ाना था. जिसमें यहां की मीठी ज़बान, कला, संस्कृति, अदब , नज़ाकत, नफासत, नर्मी, नाइस्तगी और गंगा जमुनी तहज़ीब के बेशकीमती हीरे-जवाहारात थे.
मीर जाफर अब्दुल्ला सिर्फ एक नाम नहीं था ये एक तहज़ीब थे,तहरीक थे, एक तारीख़ थे. वो लखनऊ के नवाबों की सांस्कृतिक विरासत संजोने वाले नवाबीन दौर के नुमाइंदे ही नहीं थे बहुत कुछ थे. वो शहर-ए-लखनऊ की पहचान थे. इतिहासकार, किस्सागो, रंगकर्मी और फिल्म कलाकार भी थे. दुनियाभर में मशहूर एपिक चैनल में वो लखनऊ के जायकों की रैसिपी बताते थे. फिल्मकारों को जब लखनऊ पर कुछ बनाना होता था तो वो नवाब मीर जाफर से मदद लेते थे.
मीर जाफर अब्दुल्ला का जाना लखनऊ के लिए एक मायूस करने वाली खबर है
उन्होंने मशहूर फिल्म ग़दर एक प्रेम कथा में पाकिस्तान के मशहूर अख़बार डॉन के एडिटर की भूमिका निभाई थी. राजा सलेमपुर के बेटे रुश्दी हसन की फिल्म- ये इश्क़ नहीं में इन्होंने वाजिद अली शाह का किरदार निभाया. इसके अलावा अमिताभ बच्चन की फिल्म-गुलाबो-सिताबो, डेढ़ इश्किया और मुजफ्फर अली की फिल्म जांनिसार जैसी तमाम फिल्मों में लखनऊ की नुमाइंदगी करने वाले किरदार निभाए.
नवाब साहब मजहबी और परहेज़गार थे. लखनऊ की अज़ादारी का इनसाइक्लोपीडिया थे. पहली की ज़रीह और सात मोहर्रम को मेंहदी के शाही जुलूसों की में रवायत थी कि वो इन जुलूसों में आगे-आगे चलते थे. अब मोहर्रम के शाही जुलूस ज्यादा ही उदास होंगे. जुलूसों में नवाब साहब की कमी बेहद खलेगी. लखनऊ की पहचान के आसमान का एक सितारा टूट गया.
मोहर्रम की अज़ादारी की शान, एक अज़ादार कम हो गया. जनाब मीर जाफर अब्दुल्ला अब लखनवी अजादारी के क़िस्से नहीं सुनाएंगे. वो लखनऊ की कर्बला तालकटोरा में दफ्न हो गया.
ज़माना बड़े शौक से सुन रहा था,
तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते.
जब नवाब मीर जाफर ने कहा- पचास लाख की मानहानि करुंगा !
लखनऊ के नवाब मीर जाफर साहब के इंतेकाल की खबर सुनकर उनसे जुड़ी मीठी-मीठी यादों और बातों में एक सख्त और कड़वी बात भी याद आ गई. हालांकि इस कड़वी बात में भी नवाब साहब ने आख़िर में मिठास भर दी थी. नवाब साहब की तमाम खासियतों में उनका नर्म लहजा सबसे बड़ी खासियत था. लेकिन पहली बार मैंने उनको सख्त होते और गुस्सा करते देखा.
बात करीब 2005 की है. एक सांध्य समाचार पत्र का मैं संपादक था. 'असली-नकली नवाबों में ठनी' शीर्षक से एक रोचक स्टोरी लिखी थी. जिसमें एक बड़ी गलती की थी. जिनके बारे में लिखा था उनका वर्जन नहीं छापा. इस गुस्ताखी के लिए मुझे नवाब साहब की खरी-खरी सुन्नी पड़ी थी. अखबार का आफिस पुराने अमर उजाला आफिस के पास (बर्लिंगटन चौराहे के निकट) था. यहां तक़ी शिकोह (शिकोह आज़ाद) जो हमारे पुराने दोस्त है, ये भी नवाबीन खानदान से ताल्लुक रखते हैं, शिकायत लेकर आए थे.
मुझसे मिले और बोले आपका एडीटर कौन है. मैंने कहा मैं ही हूं. कहने लगे खंडन छपना है, आपने नवाबीन खानदानों के लोगों की मानहानि की है. मैंने कहा नहीं छापूंगा तो शिकोह आज़ाद साहब ने नवाब मीर जाफर अब्दुल्ला से फोन पर बात कराई. नवाब साहब बोले- नवेद मियां खंडन नहीं छापा तो पचास लाख की मानहानि का मुकदमा झेलना पड़ेगा ! मैंने जवाब दिया- पचास हज़ार का हर्जाना भरना पड़ा तो आप से ही मांगूगा पांच हज़ार, मेरे पास तो पचास रुपए भी नहीं हैं. नवाब साहब हंसने लगे. बात खत्म हो गई.
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