हनुमान जी को कोई ‘मेडल’ क्यों नहीं देते श्रीराम
रामचरित मानस के सुंदर कांड के इस प्रसंग से साफ है कि जैसे लंका विजय के बाद श्रीराम ने हनुमान का सम्मान किया उसी तरह का मान-सम्मान हर लीडर को अपने बेहतरीन सिपाहियों, मुलाजिमों और कार्यकर्ताओं का करना चाहिए.
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रावण का वध और लंका पर विजय हासिल करने के बाद श्रीराम अपनी सेना के साथ वापस अयोध्या पहुंचे. अयोध्या में आनंद का वातावरण था. सब विजय मिलने से प्रसन्न थे. अयोध्या में आलोक सज्जा हो रही थी. इस क्रम में कुछ सप्ताह गुजर गए. उसके बाद अयोध्या में जिंदगी अपनी पुरानी गति से चलने लगती है. तब श्रीराम एक दिन रणभूमि में उनके साथ देने वाले योद्धओं का सम्मान करने के लिए एक कार्यक्रम रखते हैं. उस दिन योद्धओं को अगर आज के संदर्भों से देखा जाए तो परमवीर चक्र, वीर, अति विशिष्ट सेवा मेडल जैसे सम्मान दिए जाते. श्रीराम उन सभी साथियों के प्रति आभार जताते हैं, जो रणभूमि में उनके साथ थे. जिन्होंने उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर शत्रु सेनाओं को धूल चटाई थी. सब योद्धा खड़े हैं. श्रीराम सबके पास जाकर उन्हें उपहार देते हैं. उनके प्रति कृतज्ञता दर्शाते हैं. साथ ही उनसे विदा लेते हैं. एक प्रकार से कहते हैं कि अब चलिए अपने घरों की तरफ. अपने कामकाज में लग जाइये.
'मैं आपके ऋण से मुक्त नहीं होना चाहता'
अंत में वे हनुमान जी के पास पहुंचते हैं. पर राम यहां पर ठिठकते हैं. हनुमान जी उनके चरणस्पर्श करते हैं. उन्हें गले लगाते हुए, राम कहते हैं कि “मैं आपके ऋण से मुक्त नहीं होना चाहता. आपको मेरे साथ यहां पर रहना होगा'' हनुमान जी तो यही सुनना चाहते थे. वे श्रीराम से दूर जाने के लिए तैयार कहां थे. उन्होंने श्रीराम का साथ दिया था. उन्होंने सीता को खोजा. युद्ध में लक्ष्मण के घायल होने के बाद संजीवनी बूटी लेकर आए. ये तो कुछ उदाहरण हैं हनुमान जी के श्रीराम के प्रति भक्ति के. बहरहाल, जो राम ने हनुमान जी से कहा, उसे ताजा संदर्भों से जरा जोड़िए. अगर कोई अफसर अपने साथियों के साथ इसी तरह का व्यवहार करे जैसा श्रीराम ने हनुमान के साथ किया तो वह जीवन भर उसके प्रति निष्ठा दिखाने लगेगा. पर व्यवहार में ऐसा कहां होता है. प्राय: अफसर तो अपने साथियों को संकटकाल गुजरते ही भूल जाते हैं. उसके हितों का ख्याल कहां करते हैं. वो बेचारा इंतजार करता रहता है कि कभी तो बहार आएगी, पर अफसर को तो तब ही उसकी याद आती है जब वह संकट में होता है. उसे टारगेट पूरे करने होते हैं.
रामचरित मानस के सुंदर कांड के इस प्रसंग से साफ है कि जैसे लंका विजय के बाद श्रीराम ने हनुमान का सम्मान किया उसी तरह का मान-सम्मान हर लीडर को अपने बेहतरीन सिपाहियों, मुलाजिमों और कार्यकर्ताओं का करना चाहिए.
श्रीराम बार-बार इस तरह के उदाहरण पेश करते हैं, जिन्हें सोनिया गांधी या नरेन्द्र मोदी सरीखे नेता अपने जीवन में अत्मसात करें तो उऩ्हें लाभ हो सकता है. श्रीराम उन साथियों का सम्मान करते हैं जो उनके साथ आड़े वक्त में खड़े थे. चुनावी मौसम में तमाम नेता उस दल का रुख करने लगते हैं जिसके पक्ष में बयार बह रही होती है. किसी दल या नेता को लेकर प्रतिबद्धता और निष्ठा जैसे शब्द बेमानी हो गए हैं. पर, ये बात भी है कि कहीं न कहीं पिलपिले नेतृत्व के कारण भी लोग पार्टी को छोड़ देते हैं. अगर कोई नेता श्रीराम के जीवन से शिक्षा लेकर अपनी पार्टी को चलाए तो वह अपने साथियों का हमेशा विश्वासपात्र रह सकता है.
राम अपने साथियों के किए उल्लेखनीय कामों को याद रखते हैं. उन्हें उपहार देते हैं. हनुमान सरीखे साथी को किसी भी हालत में अपने से दूर नहीं जाने देते. यही नहीं, राम का जीवन उन सब के लिए शानदार उदाहरण पेश करता है जो सार्वजनिक जीवन में एक्टिव हैं. वे बहुत से साथियों के साथ मिलकर काम करते हैं. उन्हें आदेश-निर्देश देते हैं.
अब राम 14 साल के वनवास से लौटकर आते हैं. राम का अपने सगे-संबंधियों को छोड़कर वनवास पर जाना और फिर वहां से वापस लौटकर अयोध्या का राजा बनना किसी भी शख्स के लिए प्रेरणा हो सकता है. आमतौर पर होता यह है कि इंसान छोटे-मोटे झटकों के बाद निराशा के सागर में डूबने लगता है. उसे छोटी-मोटी नौकरी के जाने या बिजनेस में घाटा खाने के बाद लगता है कि जीवन में कुछ नहीं बचा. उसे चारों तरफ अँधेरा नजर आता है. पर राम का अयोध्या से जाना और फिर अयोध्या लौटकर राजधर्म का निर्वाह करना वास्तव में बेहद प्रेरणाप्रद है. पिता के वचन का पालन करने के लिए राम वनवास के लिए निकल पड़े. अयोध्या की प्रजा उन्हें रोकती है. पर पिता के वचन का पालन करना है, वे गए, तमाम झंझावत झेले. रावण से युद्द किया, विजय पाई. उसके बाद फिर से अयोध्या के राजा बने. राज भी इस तरह का किया जिसका अब भी रामराज कहकर उदाहरण दिया जाता है.
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