बिहारी मजदूर, जो प्लेन से आते हैं और एसी कोच में लौटते हैं
लेह की किसी गली से गुजरते हुए आपके कानों में अगर “बगल वाली जान मारेली” जैसा भोजपुरी गीत सुनाई पड़े तो कौतूहल होना स्वाभाविक है. यहां भी एक बिहार बसता है.
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लेह की किसी गली से गुजरते हुए आपके कानों में अगर “बगल वाली जान मारेली” जैसा भोजपुरी गीत सुनाई पड़े तो कौतूहल होना स्वाभाविक है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ अपने लेह प्रवास के दौरान. एक दुकान में चल रहे वार्तालाप ने मुझे अपनी ओर खींच लिया “का चीज, का बीस रुपये. अरे अपच हो जाई. ये लेह का स्कम्पारी ईलाका है, जहाँ लेह में एक छोटा बिहार बसता है'. मैं भी उस बातचीत में शामिल हो गया. और फिर जो तथ्य हाथ लगे उससे पता पड़ा कि लेह क्यों बिहारी मजदूरों का स्वर्ग है.
फ्लाईट से उड़कर आते हैं मजदूरी करने
लेह में कुशल मजदूरों की भारी कमी है. जिसकी पूर्ति नेपाली और बिहारी मजदूर करते हैं. पर इसमें बड़ा हिस्सा बिहारी मजदूरों का है. लेह में जहाँ कहीं भी निर्माण चल रहा हो आप वहां आसानी से बिहारी मजदूरों को काम करते देख सकते हैं. जिसमें ज्यादा हिस्सा बेतिया जिले का है. बेतिया से यहाँ मजदूरी करने आए हीरा लाल शाह ने कुछ पैसे जोड़कर एक मिठाई की दुकान खोल ली. जिससे वे उस स्वाद की भरपाई कर सकें, जिसका आनंद वो और उनके जैसे सैकड़ों मजदूर नहीं ले पा रहे थे. उनकी दूकान पर सुबह शाम उन बिहारी मजदूरों का तांता लगा रहता है. लिट्टी बाटी या पकोड़ी के लिए. देवनाथ शाह बताते हैं कि यहाँ आने के लिए वे कई महीने पहले टिकट कटा लेते हैं. इससे दिल्ली से लेह का टिकट ढाई से तीन हजार रुपये में मिल जाता है. और फरवरी मार्च में मजदूर यहाँ आ जाते हैं. दो-चार दिन आराम करने के बाद यहाँ काम मिल ही जाता है. छ महीने पैसा कमाने के बाद दशहरे के आसपास फिर अपने गाँव फ्लाईट से लौट जाते हैं. देवनाथ यह बताना नहीं भूलते कि दिल्ली से अपने गाँव का सफर वो ट्रेन के एसी डिब्बे में ही करते हैं.
स्कम्पारी है छोटा बिहार
चूंकि सभी मजदूर एक दूसरे के रिफरेन्स से लेह पहुँचते हैं इसलिए सब एक ही जगह साथ रहना पसंद करते हैं. उन्हीं में से कुछ लोगों ने अपनी दुकानें वहां खोल ली हैं. चाहे भोजपुरी गाने हों या फ़िल्में मोबाईल में डालनी हों, या सब्जी बेचना, सब जगह बिहार से आए मजदूर हैं. मजेदार बात यह है कि दुकान साल में छह महीने ही खुलती है, ठण्ड के कारण ये सभी सर्दियों में अपने घर लौट जाते हैं, पर दुकान मालिक को साल भर किराया देना होता है. लेकिन ये नुकसान उन्हें मंजूर है, क्योंकि उत्तर प्रदेश या बिहार में जहाँ एक दिन की औसत दिहाड़ी लगभग साढ़े तीन सौ रुपये है वहीं लेह में उतने ही काम के पांच सौ से छह सौ रुपये मिल जाते हैं.
स्थानीय ठेकेदार परवेज अहमद बताते हैं कि बिहारी मजदूर बहुत मेहनती और कुशल होते हैं. प्लास्टर और पुताई के काम में इनका कोई मुकाबला नहीं हैं. लेह के जिलाधिकारी सौगत बिस्वास ने बताया कि इस समय लेह में करीब दस हजार बिहारी मजदूर हैं और अपनी मेहनत से वे लेह के निवासियों का जीवन आसान बना रहे हैं.
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