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Updated: 01 मई, 2016 05:21 PM
सिद्धार्थ झा
सिद्धार्थ झा
  @sidharath.jha
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हिमाचल या उत्तराखंड के जंगलों में आग लगना कोई नई बात नही है. हर साल हजारो हेक्टयर जंगल इस आग की भेंट चढ़ जाते हैं. दिलचस्प बात ये है ये आग सैकड़ो मील पहले कही शुरू होते हैं और धीरे धीरे महीनों तक अपना रास्ता बना लेते है. जब तक सरकार या प्रशासन की नींद टूटती है तब तक लाखो बहुमूल्य वृक्ष, जानवर लुप्तप्राय पेड़ पौधे, जीव-जंतु इसका शिकार हो चुके होते हैं. विश्व के कई भागो में जंगलों में ऐसी भीषण आग लग चुकी है जिससे ना सिर्फ जंगल बल्कि पर्यावरण भी प्रदूषित होना लाजमी है. ये आग और धुआं मिलकर सेहत को कितना नुकसान पहुंचाते होंगे ये कहने की जरूरत नही.

मुझे कई बार शिमला जाने के दरम्यान सुलगते हुए जंगल देखने का मौका मिला. हाल ही में कुछ दिन पहले देहरादून से मसूरी जाते समय भी धुओं के बदलों को उड़ते हुए देखा. लेकिन स्थिति इतनी भयानक होगी ये जान नही पाया. उत्तराखंड में आग का यह सिलसिला जाड़े के कारण दो फरवरी को शुरू हुआ था. और आज ये चमोली, पौड़ी, रूद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, पिथौरागड़ और नैनीताल तक पहुंच चुका हैं. करीब 1,900 हेक्टयेर वन क्षेत्र में आग की घटना ने देश को बहुत नुकसान पहुंचाया है. वन्य क्षेत्र खाक हुए, हरित जंगल तबाह हुए. न सिर्फ जंगली जानवर मारे गए बल्कि आम लोगों की भी मौत हुई. हालांकि सरकार और प्रशासन ने देर से ही सही लेकिन आग पर काबू पाने के लिए सही कदम उठाये हैं.

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 उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग

सेना, NDRF समेत कई एजेसियों को आग बुझाने के काम में लगा दिया गया है. साथ ही एयरफोर्स समेत 6000 हजार जवानों को भी काम पर लगाया गया है. लेकिन सवाल ये उठता है की साल दर साल जंगलों में लगी आग का सिलसिला क्यों नही थम रहा. ये आग प्राकृतिक कारणों से लगे हैं या मानवीय भूल से या फिर इसके पीछे लकड़ी के तस्करों का हाथ है. जो पेड़ो की चोरी से बचने के लिए खुद जंगलों को आग के हवाले कर देते हैं. इस बात में कोई शक नही की इसमें स्थानीय नागरिकों, अफसरों और प्रशासन की भी मिलीभगत हो सकती है. अगर हम प्राकृतिक कारणों को देखे तो यहां शाल, चीड़ के पेड़ है जो तुरंत आग पकड़ लेते हैं. चीड़ के वृक्ष के नुकीले पत्तो में एक ख़ास किस्म का ज्वलनशील तेल होता है. इसे तारपीन भी कहा जाता है जो इस आग को बढ़ाने में सहायक साबित होता है.

हिमाचल और उत्तराखंड में चीड़ के पेड़ आपको बेशुमार दिख जाएंगे. इनके पत्ते मीलो दूर तक उड़ उड़ का पहुंचते है और ये सूखे पत्ते थोड़ी सी भी चिंगारी मिलने पर जलने लगते है. कभी ये चिंगारी कुछ शरारती तत्व देते है तो कभी बीड़ी, सिगरेट या भयानक गर्मी भी इसकी वजह हो सकते हैं. दरअसल, ये पेड़ यहां की स्थानीय प्रजाति नही हैं. जब अंग्रेजों ने पहाड़ो पर अपनी ऐशगाह बनाई तब उनको ये ठन्डे मगर नंगे पहाड़ नही सुहाते थे. ऐसे में वो ब्रिटेन से इस तरह के पेड़ लाये जो बिना ज्यादा मेहनत किए जल्द फलता-फूलता था. एक बार ये पेड़ लगाने के बाद अपनी रख रखाव खुद कर सकता है और इसके बीज भी पेड़ो से छिटक कर खुद बखुद अपनी संख्या बढ़ाने में सहायक हैं.

दूसरी बात, ये पेड़ अपने आसपास दूसरे पेड़ पौधों को नही पनपने देते. छोटे छोटे पेड़ पौधे इसके नीचे नही पनप पाते. तीसरी बात, आग लगने की हालत में भी ये पेड़ सही सलामत बच जाता है सिर्फ इसकी पत्तियों को नुकसान पहुंचता है. अनेक बार कई सामाजिक संघठनो और लोगो ने इसकी जगह दूसरे पेड़ लगाए जाने की बात की जो सुरक्षित हों और फल फूल देने वाले सदाबहार पेड़ हों. उत्तराखंड में एक गांव है. उफ्फ्रेखाल. इस गाँव के आसपास भी पहले इस तरह की आग लगने की घटनाएं आम थी. जब लोगो ने देखा की सरकार या प्रशासन के स्तर पर कोई कदम नही उठाया जा रहा है तब उन लोगो ने एक अनोखी तरकीब निकाली.

आज 20 साल से अधिक हो गया है उस तरकीब पर काम करते हुए लेकिन उसके बाद से कभी भी उस गाव के आसपास आग लगने की घटना नहीं हुई. सबसे पहले सभी गांववालो ने मिलकर अधिक से अधिक पेड़ लगाने का प्रण किया. इसकी शुरुआत हुई स्कूलो के बच्चों से. इसके बाद इस अभियान में उनके अभिभावकों का भी सहयोग मिला. गांव के एक शिक्षक सच्चिद्दानंद भारती के नेतृवत में गांववालो का ये अभियान जन जन का अभियान बन गया. आज उस सभी गांव के आसपास 10 लाख से अधिक पेड़ हैं. इन पेड़ो में अधिकांश पेड़ अखरोट, ब्रुअंश, काफल पहाड़ी फल फूलों के हैं. ये न केवल पर्यावरण की रक्षा करते है बल्कि सघन वन की तरह प्रतीत होते हैं. घने तो इतने हैं की दिन में भी जाने से लोग डरने लगे है.

हालांकि इसका नुकसान भी हुआ है. क्योंकि शेर, चीता, भालू की आमद बढ़ने से खेती उनकी चोपट हुई है. इन पेड़ो के फलों को गांववालो ने आपस में बांट लिया है जिससे उनकी अर्थव्यवस्था अच्छी हुई है. यही नहीं वनों में पेड़ों की कटाई और शिकारियों को रोकने के लिए हर गांव में पांच-पांच औरतों का समूह है जो हर रात सामूहिक रूप से बारी-बारी जंगलों की रक्षा के लिए निकल जाती हैं. हाथो में दरांती या डंडे लिए हुए. अगले दिन जिसकी बारी होती है उसके घर के आगे एक खास किस्म का घुंघरु लगा हुआ डंडा छोड़ आती है. देखिये कितनी होशियारी से इन गांव वालो ने सघन वन की रचना की, स्वयं को आत्मनिर्भर बनाया और जलावन के लिए लकड़ी की समस्या का भी हल खोजा.

मगर इसके अलावा एक और बहुत महत्वपूर्ण काम भी किया गया वो था आग लगने के कारण का पता लगाना. चूंकि वहा चीड़ के पेड़ पहले ही काफी सारे जल चुके थे उसकी जगह शीतल प्रक्रिति के पेड़ लगाए गए. दूसरी तरफ पहाड़ो पर जंगलो में अनगिनत 5-6फ़ीट के गड्ढे खोदे गए. पहाड़ो पर बारिश एक निश्चित अंतराल पर होता रहता है. इसलये इन गड्ढो में 20-25 दिन तक पानी रुका रहता है. इस कारण गड्ढो की सतह पर हरी हरी घास उग आती है. साथ ही जमीन में नमी भी बनी रहती है जो आग लगने की सूरत में आग को और आधिक फैलने नही देती. एक व्यापक परिपेक्ष्य में देखे कितने बड़े लक्ष्य की पूर्ती हुई गांव वालो की थोड़ी से लगन मेहनत और जागरूकता से.

हमें ये मानना होगा कि जल जंगल जमीन पर पहला हक वहां रहने वाले वाशिंदों का होता है. वैसे भी, प्रशासन से ज्यादा बेहतर तरीके से उसकी हिफाजत वहां रहने वाले लोग उन जंगलो की कर सकते है. अभी भी कुछ नही बिगड़ा है. देश ही नही विश्वभर में ऐसे अनेक अनूठे प्रयोग हुए है जहां जन भागीदारी ने विकास को नई ऊंचाई दी है.

लेखक

सिद्धार्थ झा सिद्धार्थ झा @sidharath.jha

स्वतंत्र लेखक और लोकसभा टीवी में प्रोड्यूसर

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